लिंग पुराण संक्षेप
-दिनेश मालवीय
शैव सम्प्रदाय से सम्बंधित इस पुराण में प्रधान प्रकृति लिंग को ही माना गया है. इसके अनुसार “लिंग” का अर्थ जनेन्द्रिय न होकर “पहचान चिन्ह” है. यह अज्ञात तत्व का परिचय देता है. इस पुराण का कथा भाग “शिव पुराण” जैसा ही है. शैव सिद्धांतों का जैसा बहुत सरल, सहज और विस्तृत विवरण इस पुराण में मिलता है, वैसा कहीं नहीं है. इसमें 163 अध्याय हैं. इस पुराण में शिव के अव्यक्त ब्रह्मरूप का विवेचन करते हुए उनसे ही सृष्टि की उत्पत्ति बतायी गयी है.
वेदों, उपनिषदों और दर्शनों में श्रृष्टि का प्रारम्भ ब्रहम से माना गया है, जिसका न कोई आकार है और न कोई रूप. उसी “शब्द ब्रह्म” का प्रतीक चिन्ह साकार रूप “शिवलिंग” है. भारत के मनीषियों ने भगवान के तीन रूप बताये हैं-व्यक्त, अव्यक्त और व्यक्ताव्यक्त. ‘लिंग पुराण’ में इसी भाव को शिव के तीन रूपों में बताया गया है.
शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में श्रृष्टि के पूर्व में स्थित हैं. वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है. जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण ‘नेति नेति’ कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्ति और अव्यक्त भी हैं. लिंग शिव का परिचय चिन्ह है.
‘लिंग पुराण’ में श्रृष्टि की उत्पत्ति पंच भूतों से मानी गयी है, जिनमें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी शामिल हैं. हर एक तत्व में एक गुण होता है, जिसे ‘तन्मात्रा’ कहा जाता है. मनीषियों के अनुसार जब ब्रह्म के मन में श्रृष्टि का विचार आया तो उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया. यह अहंकार श्रृष्टि से पहले का घन अन्धकार माना जा सकता है. अहंकार से पाँच सूक्ष्म तत्व उत्पन्न हुए -शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध. इन्हें ही तन्मात्रा कहा जता है.
‘लिंग पुराण’ के अनुसार, सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों की संख्या में ब्रह्माण्ड हैं. हर ब्रह्माण्ड के चारों तरफ दस गुना जल है. तेज से दस गुना आवरण व्याप्त है, जो तेज को ढंके रहता है. वायु से दस गुना आवरण आकाश का है, जो वायु के ऊपर रहता है. हर एक ब्रह्माण्ड के पृथक ब्रह्मा, विष्णु और शिव होते हैं. ब्रह्माण्डों की यह कल्पना विज्ञानसम्मत है, क्योंकि बड़ी-बड़ी दूरबीनों से देखने पर अनेक सूर्यों का पता चलता है. इनके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में हजारों वर्ष लग जाते हैं. इस प्रकार ‘लिंग पुराण’ विज्ञान पर आधारित है. जो भी भिन्नता दिखाई देती है, वह हमारे द्वारा कल्पित है.
धर्म की व्याख्या करते हुए इस पुराण में कहा गया है कि धर्म और अध्यात्म का वास्तविक सार इसी बात में है कि मनुष्य अपनी संकीर्ण दृष्टि को त्याग कर सभी प्राणियों में आत्मभाव रखे. संसार में जितने भी छोटे-बड़े जड़-चेतन पदार्थ दिखाई देते हैं, वे सभी इन पंचभूतों के खेल हैं. ‘लिंग पुराण’ में जो उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सार्वजनिक हित के हैं. इसमें सदाचार पर सबसे अधिक बल दिया गया है. भगवान् शिव ऐसे लोगों से प्रसन्न होते हैं, जो संयमी, धार्मिक, दयावान, तपस्वी और सत्यवादी और वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हैं और जो साम्प्रदायिक वैमनस्य से दूर धर्म में आस्था रखते हैं. साधना करने वाला ही साधु कहलाता है. कल्याणकारी कर्म ही धर्म है.
पुराणकार ने चारों युगों के वर्णन से श्रृष्टि के क्रमिक विकास को ही स्पष्ट किया है. ‘सतयुग’ के प्राणी परम तृप्त थे. उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था. ‘त्रेता युग में जनसंख्या में बहुत वृद्धि होने के कारण आहार की कमी होने लगी. भोजन के लिए वनस्पतियों और फलों का सहारा लेना पड़ता था, जिससे वृक्षों की हानि हुयी. इसी युग में वर्णों का विभाजन हुआ. ‘द्वापर’ युग में खाद्य पदार्थों, स्त्रियों और पारिवारिक समुदायों की सुरक्षा के लिए संघर्ष बढ़ गये. ‘कलियुग’ में स्वार्थ प्रमुख हो गया और स्वयं के प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ गयी. आचरणों का पालन दुष्कर लगने लगा. पारस्परिक सीमाएं, ईर्ष्या और दुराग्रह में वृद्धि हुयी और लोग हिंसक होने लगे. युगों का यह वर्णन मानव विकास की ही कहानी है, जो अत्याचार और पतन की चरम स्थिति पर पहुंचकर नष्ट हो जाती है.
‘लिंग पुराण’ में खगोल विद्या पर काफी विस्तार से प्रकाश डाला गया है. इसके अनुसार, चन्द्रमा, नक्षत्र और ग्रह आदि सभी सूर्य से निकले हैं और एक दिन उसीमें लीन हो जायेंगे. सूर्य ही तीनों लोकोण का स्वामी है. काल, ऋतु और युग उसी से उत्पन्न होते हैं और उसीमें लय हो जाते हैं. जीवनी-शक्ति उसीसे प्राप्त होती है.
‘लिंग पुराण’ में धार्मिक सहिष्णुता पर विशेष बल दिया गया है. नग्न रहने वाले और जल को छानकर पीने वाले अहिंसावादी जैन साधुओं को बहुत आदर दिया गया है. सांसारिक कष्टों के निवारण के लिए ‘ध्यान’ को मुख्य मार्ग बताया गया है. इस पुराण में पाँच प्रकार के योग बताये गये हैं- मंत्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, आभाव योग और महायोग. ‘मंत्र योग’ में मंत्रों के जप और ध्यान किया जाता है. ‘स्पर्श योग’ में योगियों द्वारा बताये गये ‘साष्टांग योग’ का वर्णन आता है. ‘भाव योग’ में राजयोग की भाँति शिव की मन से आराधना की जाती है. ‘अभाव योग’ इस संसार को सर्वथा शून्य और मिथ्या मानता है.
‘लिंग पुराण’ के अन्य प्रतिपाद्य विषयों में शिव की उपासना, गायत्री महिमा, पंच यज्ञ विधान, भस्म और स्नान विधि, सप्त द्वीप, भारतवर्ष का वर्णन, ज्योतिष चक्र आख्यान, ध्रुव आख्यान, सूर्य और चन्द्र वंश का वर्णन, काशी महात्म्य, दक्ष यज्ञ विध्वंस, मदन दहन, उमा स्वयंवर, शिव तांडव, उपमन्यु चरित्र, अम्बरीश चरित्र, अघोर रूप धारी शिव की प्रतिष्ठा और त्रिपुर वध आदि का वर्णन शामिल है.