भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अपनी शपथ क्यों तोड़ी? -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अपनी शपथ क्यों तोड़ी? -दिनेश मालवीय दुनिया के गिने-चुने महाकाव्यों में शुमार ‘महाभारत’ वैसे तो ऐसी अनूठी विचित्रताओं से भरा है, जो कहीं और नहीं मिलतीं. कहते हैं कि जो महाभारत में नहीं है, वह संसार में है ही नहीं. इसका तात्पर्य है कि जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जो इसमें शामिल नहीं है. ‘महाभारत’ का युद्ध भी अनेक ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है, जिनकी कल्पना करना तक मुश्किल है. ज़रा सोचिये कि भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना कौरबों की तरफ से लड़ रही थी, जबकि उसके स्वामी पांडवों की तरफ थे. यह बहुत अजीब और अनहोनी-सी बात है, लेकिन यह प्रमाणित तथ्य है. इस युद्ध में शपथ लेने और उन्हें जान की बाजी लगाकर पूरा करने के भी बहुत प्रसंग मिलते हैं. इसके महारथी अनेक तरह की शपथों के बंधन में थे. भीष्म पितामह हस्तिनापुर की रक्षा की शपथ के चलते उस पक्ष की सेना के सेनापति थे, जिसे वे ख़ुद अधर्मी मानते थे. महाबली भीम द्रोपदी के अपमान का बदला लेने के लिए दुर्योधन की जांघ फोड़ने, दुशासन के हाथ उखाड़ने और उसके खून से द्रोपदी के केश धोने की शपथ से बंधे थे. इस महायुद्ध के सबसे बड़े नायक अर्जुन ख़ुद सिन्धु नरेश जयद्रथ के वध के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर गहरे संकट में पड़ गये थे. यदि सूर्यास्त से पहले वह उसका वध नहीं कर पाते तो उन्हें जीवित ही अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्यागना पड़ता. श्रीकृष्ण ने अपनी चतुराई से उसे इस संकट से उबारा. इसी तरह और भी अनेक तरह की शपथ-प्रतिज्ञाओं की प्रसंग भी हैं. लेकिन सबसे बड़ा और बहुत अविश्वसनीय प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिज्ञा करने और फिर उसे तोड़ने का है. युद्ध शुरू होने से पहले दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण की सहायता माँगने उनके पास गये थे. श्रीकृष्ण ने कहा कि आप दोनों मेरे प्रिय हैं, लिहाजा मैं दोनों की सहायता करूँगा. भगवान ने कहा कि उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि वह इस युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएँगे.तुम दोनों में से कोई एक मुझे मांग ले और दूसरा,मेरी महाबलशाली नारायणी सेना को. उन्होंने पहले अर्जुन को माँगने का मौका, दिया. अर्जुन ने कहा कि आप भले ही युद्ध में सक्रिय रूप से भाग न लें और शस्त्र न उठायें, लेकिन मैं आपको माँगता हूँ. दुर्योधन की तो बांछें खिल गयीं. वह इसे अर्जुन की मूर्खता समझकर मन ही मन हँस रहा था. वह जड़बुद्धि यह नहीं जानता था कि श्रीकृष्ण शस्त्र उठाये बिना भी किसी युद्ध में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. बहरहाल, जब युद्ध हुआ और कौरव सेनापति के रूप में भीष्म ने पांडव सेना में ऐसी तबाही मचाई कि लगा जैसे पांडव तत्काल युद्ध हार जाएँगे. अर्जुन, उनसे युद्ध तो कर रहा था, लेकिन जिन पितामह की गोद में वह खेला था, उन पर घातक प्रहार नहीं कर पा रहा था. उसके हाथों की शक्ति उसका साथ नहीं दे रही थी. श्रीकृष्ण ने उसे बहुत समझाया कि युद्ध में जो शत्रु सेना का साथ दे रहा है, वह कोई भी हो, शत्रु है और उसका वध करना तुम्हारा कर्तव्य है. लेकिन अर्जुन था कि पितामह के मोह को छोड़ ही नहीं पा रहा था. इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि तुम पितामह का वध नहीं कर सकते, तो मैं ख़ुद उनका वध करूँगा. ऐसा कहकर वह रथ से नीचे उतर कर अपना सुदर्शन चक्र लेकर पितामह की तरफ दौड़े. यानी उन्होंने युद्ध में शस्त्र न उठाने की अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी. रास्ते में पांडवों ने उनसे अनुनय-विनय की और अर्जुन ने पूरी ताकत से लड़ने का वचन दिया, तब वह सुदर्शन चक्र को वापस जाने की आज्ञा देकर रथ में लौटे. अब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण ने स्वयं भगवान होकर अपनी प्रतीज्ञा क्यों तोड़ी? महाभारत में इसका खुलासा यह बताकर किया गया है कि पितामह श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे. भीष्म पितामह ने जब श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा की बात सुनी, तो उन्होंने निश्चय किया कि वह ऐसा घोर युद्ध करेंगे कि श्रीकृष्ण शस्त्र उठाने पर मजबूर हो जाएँ. वह चाहते थे कि उनका वध श्रीकृष्ण के हाथों हो, ताकि तत्काल मोक्ष मिल सके. श्रीकृष्ण के प्रतीज्ञा तोड़ने का कारण यह बताया गया है कि उन्होंने प्रतीज्ञा तोड़कर अपने परम भक्त की कामना पूरी की. यह बात अपनी जगह सही हो सकती है, लेकिन मुझे इसका कारण यह समझ आता है कि वह पितामह और अन्य लोगों को यह सीख देना चाहते थे कि धर्म की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा तोड़ना भी पड़े तो तोड़ देनी चाहिए. पांडवों की पराजय धर्म की पराजय होती. यह एक प्रकार से पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और उन लोगों के मुँह पर एक तमाचा था, जो द्रोपदी चीरहरण के समय इस दृश्य के मौन साक्षी बने रहे. यदि इनमें से कोई एक भी पूरी ताक़त से इसका विरोध करता तो किसी में इतना बल या साहस नहीं था कि उनके विरोध में चला जाता. फिर पितामह के सामने तो दुर्योधन, कर्ण, दुशासन, धृतराष्ट्र आदि की कोई बिसात ही नहीं थे. उनके सामने चूं-चपड़ करने की हिम्मत किसमें थी? लेकिन पितामह अपनी पतिज्ञा के बंधन को धर्म मानकर मौन बैठे रहे. भगवान ने  शस्त्र उठाकर उन्हें और आने वाली पीढ़ियों को यह शिक्षा दी कि धर्म यानी  सत्य की रक्षा से बड़ी कोई प्रतीज्ञा नहीं होती. ऐसा धर्मसंकट आने पर किसी प्रतिज्ञा का कोई मोल नहीं है. उन्होंने ऐसा करके पितामह को उनकी धर्म की गलत समझ का अहसास करवाया.  पितामह भी भीतर ही भीतर इस बात को समझ गए. यह प्रश्न उठता है कि फिर उन्होंने तत्काल दुर्योधन का साथ क्यों नहीं छोड़ दिया? ऐसा लगता है कि इसके दो कारण रहे होंगे. पहला यह कि अपने पक्ष से द्रोह करने पर उनके निष्कलंक जीवन पर धब्बा लग जाता. इससे भी ज्यादा बड़ा कारण यह था कि वह जानते थे कि श्रीकृष्ण के होते हुए पांडवों की पराजय हो ही नहीं सकती. ऐसा भी हो सकता है कि उस समय समाज और जीवन मूल्य इतनी अधोगति को पहुँच गये थे कि वह ख़ुद भी जीना नहीं चाहते थे. उन्होंने श्रीकृष्ण के संदेश को सही ग्रहण किया. यही श्रीकृष्ण के प्रतिज्ञा भंग करने का कारण था.