मध्य प्रदेश के लोकनाट्य 5: रामलीला, जानें कैसे शुरू हुई मध्यप्रदेश में रामलीला... 


स्टोरी हाइलाइट्स

प्रदेश के प्रायः सभी शहरों और गाँव गाँव में रामलीला की मंडलियों सक्रिय रही हैं, और इनकी प्रस्तुतियों में यही पाठपद्धति अभी तक चली आ रही है।

इस प्रदेश में रामलीला की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। महाराज भोज ने हनुमन्नाटक का पुनराविष्कार कराया था, और हनुमत्राटक रामलीला की प्राचीन परंपरा की महत्त्वपूर्ण कड़ी है (देखें इस पुस्तक का पहला अध्याय)। 

राजशेखर का बालरामायण नाटक भी लीला नाटय की दृष्टि से लिखा गया है। अत एवं मध्यप्रदेश के प्राचीन जनपदों में ईसा के बाद की शताब्दियों में रामलीला के संपन्न पारंपरिक केंद्र थे इसमें कोई संदेह नहीं रामलीला का वर्तमान स्वरूप संस्कृत के रामकत्वाविषयक लीला पद्धति में विरचित नाटकों से सीधे सीधे आया है, पर सोलहवीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने इसे एक शक्तिशाली लोकमंच बनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। 

अयोध्या और काशी के साथ साथ चित्रकूट रामलीला के इस नवोत्थान का एक बड़ा केंद्र बना, जो आज भी मध्यप्रदेश का एक हिस्सा है। इस पृष्ठभूमि में प्रदेश के कोने कोने में रामलीला का प्रचार प्रसार हुआ। 

सोलहवीं शताब्दी के पहले रामलीला की लोकमंच पर प्रदर्शन की परंपरा थी, वह संस्कृत रंगमंच और लोकनाट्यों के समागम से विकसित हुई थी। गोस्वामी तुलसीदास के इस परिदृश्य में अवतरण के साथ रामलीला की पद्धति में किंचित् परिवर्तन हुआ, विशेषता उसकी पाठ की परंपरा में उसकी प्रस्तुति के साथ रामचरितमानस के दोहे और चौपाइयों के गायन के द्वारा प्रसंग प्रस्तुत किये जाने लगे। 

प्रदेश के प्रायः सभी शहरों और गाँव गाँव में रामलीला की मंडलियों सक्रिय रही हैं, और इनकी प्रस्तुतियों में यही पाठपद्धति अभी तक चली आ रही है। ये मंडलियों प्रायः विजयादशमी के दस दिन या दो सप्ताह पहले से लीला की प्रस्तुतियाँ आरंभ करती है, और विजयादशमी (दशहरा) के दिन रावणवध का प्रसंग प्रस्तुत किया जाता है। इसके पश्चात् रामराज्याभिषेक के प्रसंग के साथ लीला समाप्त होती है। रामलीला का आयोजन चैत के महीने में भी किया जाता है।

प्रदेश में सैकड़ों रामलीला मंडलियां हैं, इनमें राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाली मंडलियाँ ये हैं - 

(1) खजुरी ताल रामलीला मंडली, सतना, 

(2) श्री आदर्श रामलीला मंडली, सतना, 

(3) श्री अक्षय रामलीला मंडली पश्चिमी निमाड़, 

(4) गोविंदगंज रामलीला मंडली, जबलपुर,

ये मंडलियाँ राष्ट्रीय रामलीला मेले में अपनी श्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ दे चुकी हैं। बजरी ताल रामलीला मंडली सतना के संचालक बाबा रामसुंदर दास हैं। यह मंडली देश में कई स्थानों पर लीला प्रदर्शन कर चुकी है। भक्ति की प्रधानता, झांकियों की साज सजावट, तड़क भड़क तथा संवादों की ओजस्विता के कारण इसकी प्रस्तुतियाँ बड़ी आकर्षक होती हैं। 

यह देश की सबसे अधिक तामझाम वाली रामलीला मंडली मानी जाती है। इसकी प्रस्तुतियाँ बड़ी भव्य होती हैं। पात्रों व अभिनेताओं की दृष्टि से मंडली बहुत संपन्न है। लगभग नब्बे कलाकार इसके मंच पर उतरते हैं। साधु संत ही इसमें ज्यादातर पात्रों की भूमिका करते हैं। 

एक लीला प्रदर्शन में इसके द्वारा रावण के पात्र का अभिनय तीन प्रसंगों में तीन अलग-अलग अभिनेताओं के द्वारा कराया गया। सजावट इस लीला में खूब होता है। यहाँ तक कि पात्र सोने के आभूषण पहना कर मंच पर लाये जाते हैं। राम का सिंहासन भी स्वर्ण जटित होता है। 

संवाद, प्रस्तुति पद्धति और उपकरणों के प्रयोग में अनोखा चमत्कार रहता है। रंग बिरंगे पदों की छटा भी मंच पर यह मंडली सबसे ज्यादा पैदा करती है। पारसी रंगमंच का बनावटीपन इस मंडली की प्रस्तुतियों पर हावी रहता है हूबहू अनुकृति का आग्रह अपनी प्रस्तुति में यह मंडली इस सीमा तक करती आई है कि सीता हरण के प्रसंग में सचमुच के हरिण को मंच पर उतार दिया गया, जिसके तुरंत भाग जाने से राम को भी नेपथ्य में जाना पड़ा। 

मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद् द्वारा आयोजित राष्ट्रीय रामलीला मेले में यह मंडली 1983 में सीता हरण, 1989 में राम राज्याभिषेक तथा 1992 में रावण वध की लीलाएँ दिखा चुकी है।

श्री नांदरा पश्चिम नीमाड़ का एक छोटा सा गाँव है। यहाँ (स्व.) दाभा जी बीदर जी की प्रेरणा से पाटीदार ने 26 जनवरी 1972 के दिन अक्षय रामलीला मंडली के नाम से मंडली की स्थापना की। तब से प्रति वर्ष नांदरा ग्राम में नदी के तट पर प्रतिवर्ष फरवरी के महीने में रामलीला खेली जाती है। 

रामचरितमानस, तथा राधेश्याम रामायण को आधार बना कर विभिन्न प्रसंगों को यह मंडली प्रस्तुति करती है। प्रसंगों में नीमाड़ी लोकधुनों का सरस समावेश किया जाता है। इस मंडली की प्रस्तुतियों में नीमाड़ की लोकनाट्य परंपरा झलकती है। 

जबलपुर की गोविंदगंज रामलीला मंडली बनारस की रामलीला से प्रभावित है तथा अपनी प्रस्तुतियं को बहुत प्रभावशाली नहीं बना पाई है।

प्रदेश के अन्य शहरों में रामलीला मंडलियां स्थानीय स्तर पर प्रस्तुतियाँ देती रही हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में पुनर्जागरण की लहर तथा सांस्कृतिक नवोत्थान के दौर में ये मंडलियाँ विशेष सक्रिय रहीं और इनमें रामलीला के अलावा देशभक्ति से प्रेरित अन्य नाटक भी खेले जाते थे। 

आजादी के बाद इनमें से बहुत सी मंडलियाँ काल कवलित हो गई। शेष बची मंडलियों में अधिकांश धार्मिक अनुष्ठान पूरा करने के भाव से विजयादशमी के पूर्व रामलीला खेलने की रस्म निभाती चली आ रही हैं। 

विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई कुछ रामलीला मंडलियां अभी भी अच्छा काम कर रही हैं। इनमें छतरपुर की अन्नपूर्णा रामलीला मंडली अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे कर के हीरक जयंती मना चुकी है। प्रतिवर्ष रामलीला की समाप्ति के पश्चात् यह मंडली अन्य नाटक भी प्रस्तुत करती रही है, जिनमें हरदौल और छत्रसाल नाटक कई बार खेले जाते रहे। 

छतरपुर की ही दूसरी मंडली लाल कड़क्का रामलीला मंडली है। सौ साल पुरानी यह मंडली छतरपुर राज के अंतर्गत सक्रिय रही है। छतरपुर जिले में नौगाँव की रामलीला मंडली की भी धूम है, तथा बिजावर और लौंड़ी में भी रामलीला मंडली सक्रिय रही है। 

रीवा, पन्ना और अजयगढ़ में भी रामलीला मंडलियाँ नियमित रूप से प्रतिवर्ष लीला करती रही हैं। दतिया में बलवंत मंडल पचास के दशक तक रामलीला के साथ अन्य नाटक करता रहा है, अब साल में एक बार किसी तरह लीला के निर्वाह मात्र में इसकी गतिविधि सिमट कर रह गई है।

मंच- रामलीला का मंच किसी भी खुले चौराहे पर चार तखत डाल कर बनाया जाता है। मंच के पीछे प्रायः राम राज्याभिषेक के दृश्य से सुसज्जित परदा रहता है। मंच की ओर मुँह कर के रामायण की पुस्तक हाथ में ले कर हारमोनियम और तबले बजाने वालों के साथ रामायण पढने वाले महंत बैठते हैं। चौपाइयों के गायन से दृश्य रचना और दृश्य परिवर्तन की सूचना मिलती जाती है।