लंबे चिंतन-मनन और विचार-विमर्श के बाद मध्य प्रदेश की नई पदोन्नति नीति कैबिनेट अनुमोदन के बाद घोषित हो गई है. नए नियम सार्वजनिक होने के साथ ही विरोध के स्वर भी उभरे हैं. विरोध की आवाज़ें यही बता रही हैं, कि प्रमोशन में रिजर्वेशन की स्थितियां पहले जैसी ही हैं..!!
नियमों में शब्दों का अंतर हो सकता है, लेकिन स्थितियों में कोई बदलाव नहीं है. नौ साल पहले जिन नियमों को हाईकोर्ट द्वारा निरस्त किया गया था, उसमें प्रमोशन में आरक्षण की जो व्यवस्था थी, लगभग वैसी ही व्यवस्था नए नियमों में भी कायम रखी गई है. एससी, एसटी संगठन अजाक्स नए नियमों के पक्ष में है, तो सामान्य ओबीसी का संगठन सपाक्स इसका विरोध कर रहा है. फिर से अदालत में जाने की बातें हो रही हैं.
प्रमोशन में रिजर्वेशन के पुराने नियम अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं. प्रमोशन में समानता के जिस सिद्धांत को मनाते हुए अदालत में पुराने नियमों को खारिज किया था, नए नियमों को उस पर ही खरा साबित होना है. नए नियम भी अदालत की चौखट पर पहुंचेंगे. और इसे समानता के सिद्धांत पर कसा जाएगा.
पुराने नियम निरस्त होने के बाद नौ सालों से मध्य प्रदेश में प्रमोशन के कोई नियम नहीं थे. इसके कारण प्रमोशन रुके हुए थे. नए नियमों के साथ ऐसा कहा जा रहा है, कि तेजी से प्रमोशन होंगे. प्रमोशन से रिक्त होने वाले पदों पर नई भर्तियां होंगी. नए नियमों में रिटायर्ड को छोड़ दिया गया है.
अदालत के आदेश के बाद प्रमोशन के नियम नहीं होने के कारण जो हजारों कर्मचारी नौ सालों में रिटायर हुए हैं, उनको नए नियमों से कुछ नहीं मिलेगा. मंत्री परिषद के कुछ सदस्यों ने जब इस पर सवाल किया तो मुख्य सचिव ने कहा कि प्रमोशन भले ही इन वर्षों में नहीं हुए हों, लेकिन किसी भी कर्मचारी को वित्तीय नुकसान नहीं हुआ है.
समयमान, वेतनमान के अंतर्गत सभी कर्मचारियों अधिकारियों को निश्चित कार्यकाल के बाद उच्च वेतनमान दिया गया है. शासन के सर्वोच्च स्तर से यह माना जाना कि अधिकारियों कर्मचारियों को वेतनमान देना ही वास्तविक लाभ है. उच्च पदों पर प्रमोशन उतना महत्वपूर्ण नहीं है. यह सही भी है, कि अधिकारी कर्मचारी के लिए तो असली वित्तीय लाभ ही होता है.
उच्च पदों के कर्तव्य और दायित्व तो अफसरवादी और अवसरवादी नीति पर तय किए जाते हैं. किसी भी सरकारी दफ्तर में एक समान नियम लागू नहीं होते. प्रैक्टिकल परफॉर्मेंस की सक्षमता और अक्षमता देखी जाती है. प्रमोशन में जरूर नियमों का पालन किया जाता है. सीनियरटी, मेरिट और रिजर्वेशन का आधार होता है, लेकिन वास्तविक रूप से तो उसी को प्राथमिकता मिलती है जो परफॉर्म करने में उत्कृष्ठ होता है.
सरकार अगर ऐसा मानती है, कि मौ सालों में बिना प्रमोशन के रिटायर हुए कर्मचारियों को नए नियमों में शामिल करने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि ऐसे कर्मचारियों को समयमान पदोन्नति में वेतनमान का लाभ मिल चुका है, तो फिर तो प्रमोशन में आरक्षण और अन्य आधारों की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी. समयमान पदोन्नति में अधिकारियों, कर्मचारियों को वेतनमान मिलता है, लेकिन पद नाम नहीं मिलता.
सरकार अगर यह निर्णय ले लेती है, कि समयमान पदोन्नति में वेतनमान के साथ ही उसको पद नाम भी मिल जाएगा तो फिर निश्चित कार्यकाल पूरा करने के बाद सभी अधिकारियों, कर्मचारियों को योग्यता अनुसार समयमान पदोन्नति और पदनाम मिल जाएगा. इसके लिए ना तो कैडर में पदों की आवश्यकता होगी और ना ही किसी को भी सामान्य योग्यता होने पर भी सुपरसीड होना पड़ेगा.
नए नियमों को लेकर रिटायर्ड कर्मचारी भी अदालत जा सकते हैं. अगर ऐसा रिटायर्ड कर्मचारी पहल करते हैं, तो सरकार के सामने समस्या हो सकती है. नए नियम भी अदालत से रोके जा सकते हैं. कोई भी सरकार किसी भी कर्मचारी को प्रमोशन से वंचित नहीं कर सकती. जब तक कि उसके पास निर्धारित योग्यता होती है.
अदालत ने पुराने नियमों को निरस्त किया, पदोन्नति रुकी रही. अब सरकार ने नए नियम बनाए हैं, तो नौ साल के समय को सरकार समाप्त तो नहीं कर सकती, उस समय में जो कर्मचारी अधिकारी सेवा में थे, उनके प्रमोशन के राइट को सरकार विधिक रूप से खारिज तो नहीं कर सकती.
सीएम डॉ. मोहन यादव की इस बात के लिए सराहना ज़रूर की जा सकती है, कि जो पदोन्नति पिछले नौ साल से रुकी हुई थी, उसके लिए नए नियमों की पहल की गई. नए नियमों को घोषित किया गया. विवाद अपनी जगह है, लेकिन इसके डर से पहल ही नहीं की जाए, यह तो नितांत आपत्तिजनक है.
मध्य प्रदेश सरकार के पुराने प्रमोशन नियम को 2016 में उच्च न्यायालय जबलपुर ने निरस्त किया था. उस समय प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री थे. उनके पास लंबा अनुभव था, फिर भी नए नियमों के लिए कोई पहल नहीं की गई. इसके बाद कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी. उस सरकार में भी प्रमोशन नियमों पर ध्यान नहीं दिया गया. उसके बाद फिर से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने और अधिकारी कर्मचारी बिना प्रमोशन के रिटायर होते रहे.
अब मोहन यादव ने कर्मचारियों अधिकारियों के हितों की तरफ ध्यान दिया है. अगर नए नियम में कोई विसंगति होगी, समानता के सिद्धांत का उल्लंघन होगा, तो निश्चित रूप से सुधार पर विचार होगा.
जहां तक प्रमोशन में आरक्षण का सवाल है, दिग्विजय सरकार द्वारा जो प्रावधान किए गए थे, उसमें ही समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ था. जिसके कारण अदालत ने नियमों को निरस्त किया था. आरक्षण राजनीति का सबसे ज्वलंत विषय है. कोई भी सरकार आरक्षण की व्यवस्था में किसी भी सुधार की पहल करने की हिम्मत नहीं कर सकती.
इसलिए यह तो निश्चित है, कि प्रमोशन के नए नियमों में भी आरक्षण की कमोबेश वही व्यवस्था रहेगी, जो पहले बनाई गई थी. किसी को भी एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाए तो फिर उसे दूसरी कोई भी सरकार ना रोक सकती है, ना कम कर सकती है. यही मध्य प्रदेश में भी प्रमोशन आरक्षण में हो रहा है. यह प्रशासनिक से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा है. बीजेपी सरकार इसे अपने हाथ से कैसे जाने देना चाहेगी.
नौ साल बाद नए नियम बने हैं. अब इस पर फिर से रस्साकशी. चलेगी मामला अदालत की चौखट तक भी पहुंच सकता है. प्रमोशन की जंग का रंग पुराना ही रहेगा. सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों की संख्या वैसे भी रिटायरमेंट के कारण लगातार घटती जा रही है.
सरकारी दफ्तर सूने-सूने दिखाई पड़ते हैं. पूरा सिस्टम संविदा और आउटसोर्स पर सिमटता जा रहा है. सरकारों के पास धन तो सीमित है, चाहे रिक्त पदों पर भर्तियां कर कर्मचारियों, अधिकारियों पर खर्च करे और चाहे मुफ्तखोरी की योजनाओं में लगाकर चुनावी लाभ ले लिया जाए. स्वाभाविक है राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता मिलेगी.