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पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का कड़ाई से पालन ज़रूरी 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 14 Jul

सार

सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रिया न केवल तेज हो, बल्कि पारदर्शी और समावेशी भी हो..!!

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विस्तार

पूरे देश में बारिश का क़हर जारी है। जिन लोगों ने अपने परिजनों, घरों, खेतों या मवेशियों को खोया है, उनके लिए त्वरित और पारदर्शी मुआवजा आवश्यक है। घायलों के लिए मुफ्त और प्राथमिकता-आधारित चिकित्सा सुविधाएं होनी चाहिए। जिनके घर पूरी तरह नष्ट हो गए, उनके लिए स्थायी पुनर्निर्माण योजनाएं लागू की जानी चाहिएं। हकीकत यह है कि मुआवजे की प्रक्रिया अक्सर धीमी और जटिल होती है, जिससे प्रभावित लोग लंबे समय तक अनिश्चितता में जीते हैं। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रिया न केवल तेज हो, बल्कि पारदर्शी और समावेशी भी हो। 

हर वर्ष मानसून देश के लिए जीवन और विनाश का एक जटिल मिश्रण लेकर आता है। वर्ष 2025 का मानसून भी अपवाद नहीं रहा। बादल फटने, भूस्खलन और सडक़ों के ध्वस्त होने की घटनाओं ने न केवल जनजीवन को ठप कर दिया, बल्कि गहरे सवाल भी खड़े किए : क्या विकास के नाम पर हमने अपने पहाड़ों को खोखला कर दिया है? क्या सरकार की आपदा प्रबंधन नीतियां केवल कागजी आंकड़ों तक सीमित रह गई हैं? 

नदियों के किनारे बसे गांव जलमग्न हो गए, सडक़ें और पुल बह गए, और कई परिवार बेघर हो गए। ये घटनाएं प्राकृतिक लग सकती हैं, लेकिन इनके पीछे मानव-निर्मित कारक स्पष्ट हैं। अनियोजित निर्माण, पर्यावरण नियमों की अनदेखी, और जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने पहाड़ों को कमजोर कर दिया है। चार-लेन सडक़ों और सुरंगों जैसी परियोजनाएं बिना पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के शुरू की गईं, जिसने भूस्खलन के जोखिम को कई गुना बढ़ा दिया। 

यह संयोग नहीं, बल्कि दीर्घकालिक लापरवाही का परिणाम है। क्या विकास का मतलब केवल सडक़ों और इमारतों का निर्माण है,या इसमें पर्यावरण और मानव जीवन की सुरक्षा भी शामिल होनी चाहिए। आपदाओं ने सरकार की तैयारियों की पोल खोल दी है। आपदा प्रबंधन के लिए ठोस नीतियों का अभाव और मौजूदा योजनाओं का अपर्याप्त कार्यान्वयन स्थिति को और गंभीर बनाता है। 

जोखिम वाले क्षेत्रों- जैसे भूस्खलन-प्रवण पहाड़ी ढलान, नदी किनारे के गांव या अत्यधिक वर्षा वाले इलाके- में पूर्व चेतावनी प्रणालियों (अर्ली वार्निंग सिस्टम) की स्थापना अभी तक व्यापक स्तर पर नहीं हुई है। पंचायत और जिला स्तर पर प्रशिक्षित आपदा प्रबंधन टीमें या तो अपर्याप्त हैं या सक्रिय नहीं। स्थानीय पंचायतों को भवन निर्माण की निगरानी का अधिकार और जिम्मेदारी दी जानी चाहिए, ताकि नदियों और नालों के किनारे अनियंत्रित निर्माण रोका जा सके। जब आपदा आती है, तो त्वरित और कुशल राहत कार्य आवश्यक हैं। 

राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (एसडीआरएफ) को तुरंत प्रभावित क्षेत्रों में तैनात किया जाना चाहिए, जिसमें हेलीकॉप्टर, नाव और अन्य उपकरणों का उपयोग हो। विस्थापित लोगों के लिए राहत शिविरों में भोजन, पानी, दवाइयां और सुरक्षित आवास की व्यवस्था अनिवार्य है। सडक़ों और पुलों की त्वरित मरम्मत से राहत कार्यों में तेजी आएगी। लेकिन यह सब तभी संभव है, जब सरकार की नीतियां और संसाधन पहले से तैयार हों। आपदा के बाद का चरण उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आपदा के समय का बचाव।

जिन लोगों ने अपने परिजनों, घरों, खेतों या मवेशियों को खोया है, उनके लिए त्वरित और पारदर्शी मुआवजा आवश्यक है। घायलों के लिए मुफ्त और प्राथमिकता-आधारित चिकित्सा सुविधाएं होनी चाहिए। जिनके घर पूरी तरह नष्ट हो गए, उनके लिए स्थायी पुनर्निर्माण योजनाएं लागू की जानी चाहिएं। लेकिन हकीकत यह है कि मुआवजे की प्रक्रिया अक्सर धीमी और जटिल होती है, जिससे प्रभावित लोग लंबे समय तक अनिश्चितता में जीते हैं। 

सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रिया न केवल तेज हो, बल्कि पारदर्शी और समावेशी भी हो। आपदाएं बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन अनिवार्य है। अनियोजित निर्माण पर सख्त नियंत्रण, विशेषकर भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में, पहला कदम है। पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का कड़ाई से पालन और पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) को निश्चित ही अनिवार्य करना होगा।

जंगलों की कटाई पर रोक और वृक्षारोपण को बढ़ावा देना दीर्घकालिक स्थिरता के लिए जरूरी है। इसके अलावा, स्थानीय समुदायों, सामाजिक संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं को आपदा प्रबंधन में शामिल करना होगा, ताकि जमीनी स्तर पर जागरूकता और तैयारी बढ़े। हिमाचल प्रदेश की आपदाएं केवल एक राज्य की समस्या नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए सबक हैं। प्रकृति का प्रकोप तब सबसे अधिक घातक होता है, जब उसे अनदेखा किया जाता है। 

सरकार को त्वरित राहत के साथ-साथ दीर्घकालिक रणनीतियों पर ध्यान देना होगा। विकास का मतलब केवल बुनियादी ढांचे का विस्तार नहीं, बल्कि पर्यावरण और मानव जीवन की सुरक्षा भी है। यह समय है कि जनता, प्रशासन और नीति-निर्माता एकजुट होकर यह तय करें कि हमारा रास्ता विकास की ओर है या विनाश की ओर। एक संवेदनशील, सक्रिय और जवाबदेह शासन ही  लोगों का विश्वास जीत सकता है और उन्हें सुरक्षित भविष्य दे सकता है।