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ड्रेनेज का रोना, मेट्रोपॉलिटन का सपना

सार

राजधानी में जल जाम है. सड़कों पर गड्ढे आम हैं. नालों  पर दुकान मकान हैं. झुग्गियों में वोट के मुकाम हैं. जरा सी बारिश में शहर लावारिस हो गया है लेकिन सेंट्रल विस्टा की ख्वाहिश और मेट्रोपॉलिटन के सपने की बारिश बन गया सरकारों का काम है..!!

janmat

विस्तार

    स्मार्ट सिटी की बातें क्या तकलीफों की रातें बन जाएंगी? हर बारिश सपने धुल जाते हैं फिर भी इसकी सौदागरी रुकती नहीं है. प्रशासनिक अक्षमता का 90 डिग्री ओवर ब्रिज जैसी प्लानिंग शहर के चप्पे चप्पे पर देखी जा सकती है. सुधार की उम्मीदें टूटती जा रही हैं. 

    भोपाल की सड़कों पर गड्ढे राष्ट्रीय आकर्षण बने हुए हैं. मध्य प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री गड्ढों को सड़कों की क्वालिटी में खराबी नहीं मानते बल्कि वह तो ऐसा कहते हैं कि जब तक सड़कें हैं, तब तक गड्ढे रहेंगे. साल छ: महीने के भीतर बनी सड़कों में जब गड्ढे हो जाते हैं तो यह सड़क पर करप्शन की परतें उजागर करते हैं. 

    कोई साल नहीं जाता जब बारिश के बाद सड़कों के यही हाल नहीं होते हो. सड़क, बिजली, पानी किसी भी सरकार का बुनियादी दायित्व होता है लेकिन शहरों में इसी का रोना रहता है. बातें स्मार्ट सिटी की होती हैं. उसके लिए बड़ी मात्रा में जनधन भी खर्च किया जाता है. सपना भी दिखाया जाता है, लेकिन जमीन पर कोई बदलाव दिखाई नहीं पड़ता है. 

    जब से भोपाल राजधानी बनी है तब से अतिक्रमण हटाने की बातें की जाती है. झुग्गी मुक्त,,आवास युक्त योजना पर करोड़ों रुपए खर्च भी किए गए लेकिन अतिक्रमण घटने के बदले बढ़ते चले गए. मजबूरी के कारण बनने वाली झुग्गियां अब तो व्यवसाय का मॉडल बन गई. झुग्गियां बनाकर गरीबों को बेची जाती है. 

    शहरी नदियां और नाले गटर में बदल गए हैं. कहीं भी जगह दिखी कि, उन पर कब्जा हो जाता है. कई मामले तो ऐसे भी दिखते हैं, जहां सरकारों ने बाकायदा निर्णय कर निर्माण कराए हैं. 

    शहरीकरण मजबूरी बन गया है. रोजगार के लिए पलायन होता है. सबको आवास कल्याणकारी सरकारों का दायित्व है. लेकिन कागजों और बातों में तो बड़े वायदे किए जाते हैं लेकिन जमीन पर सब नदारद होता है. 

    राजधानी भोपाल का दुर्भाग्य देखिए कि, अभी तक वहां का मास्टर प्लान नहीं बना है. सीवेज नेटवर्क और ड्रेनेज सिस्टम की एक बारिश में ही सांसे फूल जाती हैं. प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है. पेड़ काटे जा रहे हैं. कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं. ट्रैफिक मैनेजमेंट अनमेनेजेड है. शहरी परिवहन की व्यवस्था लगभग नगण्य है.

    बिना मास्टर प्लान के रियल स्टेट जो भी विकास कर रहा है, उसमें मिडिल क्लास रहने को मजबूर है. कई बार तो उसे बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलती. जब मुख्य सड़कों की हालत यह है, तो फिर कॉलोनियों में आने जाने की सड़कों की तो कोई बात ही नहीं है. भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन सियासत इसे ही अपना जरिया बना लेती है. वोट की खातिर शहर को बदसूरत बनाया जाता है.

    कोई भी सरकार हो या मुख्यमंत्री हो उसे भविष्य का सपना तो दिखाना ही पड़ता है. वर्तमान की कमियों को सुधारना आसान नहीं होता. इसलिए भविष्य के सपने में भरमाए रखना, सियासी नीति हो जाती है. मंत्रालय के पास प्रशासनिक भवन के लिए सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की घोषणा की गई है. जब घोषणा की गई है तो बनेगा भी लेकिन इससे राजधानी में कोई बुनियादी बदलाव आने की क्या कोई संभावना है? कंस्ट्रक्शन का बाय-प्रोडक्ट करप्शन बन गया है. कोई भी कंस्ट्रक्शन करप्शन के बिना केवल फिल्मों में सोचा जा सकता है.

    मध्य प्रदेश सरकार विधानसभा के इसी सत्र में मेट्रोपॉलिटन एक्ट लाने की बात कर रही है. इसके लिए मध्य प्रदेश ग्रोथ कॉन्क्लेव में विचार विमर्श का दावा किया जा रहा है. शहरी विकास के नए अध्याय की इसे शुरुआत बताया जा रहा है. राज्य के मुख्यमंत्री अखबारी विज्ञापन में दावा कर रहे हैं कि, मध्य प्रदेश के शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित हो रहा है. इससे बढ़ती नगरीय जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति होगी. समृद्ध और विकसित शहर प्रदेश के समावेशी विकास की आधारशिला बनेंगे.

    सरकारी भाषा में नए अध्याय की शुरुआत और आधारशिला जैसे शब्द अपने अर्थ खो चुके हैं. हर सरकार इन्हीं शब्दों का उपयोग करती है. सरकार एक सतत प्रक्रिया है लेकिन पुरानी गलतियों या नीतियों पर बिल्कुल बात नहीं की जाती. बात नए अध्याय से शुरू होती है. जैसे ही सरकार में बदलाव आता है, वैसे ही यह अध्याय अपने आप समाप्त हो जाता है. यह प्रवृत्ति विकास की दिशा को ही भटका देती है.

    आज मेट्रोपॉलिटन रीजन का सपना बेचा जा रहा है. यह सपना बिना मास्टर प्लान के कैसे पूरा होगा? यह कोई नहीं बताना चाहता. मास्टर प्लान क्यों रुका हुआ है? दशकों से बिना मास्टर प्लान राजधानी कैसे विकसित हो रही है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इस पर ना कोई सवाल है और ना ही कोई जवाब है.

    जहां सरकारों की कोई भूमिका नहीं होती, वहां भी विकास की एक स्वाभाविक गति होती है. परिवार बढ़ते हैं तो लोग नए घर भी बनाते हैं. नए रोजगार भी तलाशते हैं. और उनको पाने में किसी सरकार का कोई रोल नहीं होता. फिर भी विकास का यह स्वभाविक क्रम चलता रहता है.

    मेट्रोपॉलिटन रीजन बनाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन नए-नए सपनों से ही कुछ नहीं होगा. जो खामियां हैं, जो कमियां हैं उनको कब और कैसे दूर किया जाएगा? अब तो ऐसा लगने लगा है कि, बड़े शहर प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने लगे हैं. मेट्रोपॉलिटन रीजन का एक्ट पास भी हो जाएगा तो उसके लिए जो भी काम होगा, उसमें जनधन की आवश्यकता होगी. 

    जब वर्तमान में ही शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर की जरुरत पूरी करना मुश्किल हो रहा है, तो फिर नए एरिया में इनके विकास के लिए धन कहां से लाया जाएगा? विकास में निरंतरता का अभाव है. सामूहिकता से ज्यादा व्यक्तिवादी सोच और सपना विकास प्रक्रिया पर हावी दिखाई पड़ता है.

    पुराना बचाइए और साथ ही नया बनाइये. जब बुनियाद ही कमजोर होगी तो फिर नया भी इसी बुनियाद पर खड़ा होगा. फिर भविष्य में नई शुरुआत का सपना दिखाया जाएगा. जिम्मेदारी और जवाबदेही तय हो. अच्छे काम को पुरुस्कृत किया जाए और गलती के लिए दंड मिले, तभी वर्तमान चमकेगा. इसी चमक से भविष्य की चमक बढ़ेगी. केवल सपने से परिणाम नहीं मिल पाएंगे.