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वोट पॉलिटिक्स ने बिगड़ा गवर्नेंस मैट्रिक्स

सार

मध्य प्रदेश की नई प्रमोशन पॉलिसी भी हाईकोर्ट में उलझती दिख रही है. अभी भले ही हाई कोर्ट ने इस पर स्टे नहीं लगाया है, लेकिन अगली सुनवाई होने तक नए नियमों पर आगे बढ़ने से रोक दिया है..!!

janmat

विस्तार

    प्रमोशन पॉलिसी आते ही सामान्य और पिछड़े वर्गों के अधिकारियों, कर्मचारियों के संगठन द्वारा इसका यह कहकर विरोध किया गया था, कि नए नियम भी पुराने नियमों जैसे हैं. इसमें आरक्षण को ना केवल पूर्ववत बनाए रखा गया है, बल्कि इसके इंप्लीमेंटेशन से आरक्षित वर्गों को ज्यादा लाभ मिलेगा. सामान्य वर्ग के अधिकारी, कर्मचारी नए नियमों से भी नुकसान में रहेंगे, इसीलिए उच्च न्यायालय में याचिका लगाई गई. 

    सरकार के नए प्रमोशन नियमों पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट द्वारा जो सवाल उठाए गए हैं, उनमें ही प्रमोशन का भविष्य छुपा हुआ है. हाई कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि जब सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के हिसाब से नए नियम बनाए गए हैं, तो वहां दायर एसएलपी को वापस क्यों नहीं लिया गया. हाई कोर्ट ने कहा कि नए नियम बनाए हैं, तो सरकार को यह बताना होगा, कि पुराने नियम और नए नियम में क्या फर्क है. कोर्ट ने तुलनात्मक चार्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा है.

    प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के नियम स्पष्ट हैं. एम नागराज केस में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था, कि पहले यह देखा जाएगा, कि जिस वर्ग को आरक्षण दिया जा रहा है, इसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में जनरैल सिंह केस में कहा कि आरक्षित वर्ग अगर पदोन्नति में पिछड़ा है, तो आंकड़े एकत्र करने होंगे कि वास्तव में उन्हें पदोन्नति की जरूरत है. क्रीमी लेयर को भी देखना होगा. जिन्हें पदोन्नति दी जाना है अगर वह सक्षम हो चुके हैं, तो पदोन्नति क्यों दी जाए? एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भर्ती में आरक्षण से एक बड़े समूह को लाभ होता है, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण से एक व्यक्ति को लाभ होता है. यानी कि यह सामूहिक नहीं व्यक्तिगत होता है. 

    प्रथम दृष्टया यही लगता है, कि मध्य प्रदेश सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए बनाए नए नियमों में सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का ध्यान नहीं रखा है. जिन प्रावधानों के कारण पुराने नियमों को कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिया गया था, वैसे ही प्रावधान नए नियमों में शामिल कर दिए गए हैं. इसलिए ऐसा लगता है, कि नए नियम भी कोर्ट की परीक्षा पास नहीं कर पाएंगे. 

    प्रमोशन में आरक्षण दलित एजेंडा की राजनीति का परिणाम हैं. दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में 2002 में रोस्टर आदि को शामिल करते हुए दलित एजेंडा को नए नियमों में घुसाया गया था. इन्हीं नियमों को हाई कोर्ट द्वारा 2016 में रद्द किया गया था. तब से लेकरअब तक 9 सालों में हजारों अधिकारी कर्मचारी बिना प्रमोशन के रिटायर हो गए हैं. मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. अब सरकार ने नए नियम अधिसूचित किए हैं, लेकिन इन नियमों के पीछे भी नीयत और मंशा सभी को समान रूप से पदोन्नति करने से ज्यादा दलित एजेंडा को ही आगे बढ़ाने की दिखाई पड़ती है. 

    जिन आईएएस अफसरों ने पदोन्नति में आरक्षण के नए नियमों को तैयार करने में भूमिका निभाई है, उनकोअपने सेवा काल में आरक्षण का दर्द नहीं भोगना पड़ता. इस कैडर में प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान नहीं है. यह एक ऐसा नियम है जिसके कारण हर विभाग में अधिकारी, कर्मचारी को कनिष्ठ से वरिष्ठ बने अफसर के अंडर में काम करने की मानसिक पीड़ा भुगतनी पड़ती है. हालात तो यहां तक बन जाते हैं, कि वर्दी सर्विसेज में किसी के साथ अर्दली के रूप में काम करने वाला कर्मचारी आरक्षण का लाभ लेकर वक्त के साथ के साथ उसका सीनियर बन जाता है.

     यह पूरी तरह से अप्राकृतिक है. जुड़वा बच्चों में जो पहले जन्म लेता है, वह बड़ा माना जाता है. सरकार की प्रमोशन में आरक्षण नीति समय के चक्र को बदलने जैसा है. शासकीय सेवा में प्रवेश के समय जो सीनियर था, वह सरकार के प्रमोशन में आरक्षण में नीति के कारण जूनियर बन जाता है. 

    समयमान वेतनमान के कारण कई बार अधिकारियों कर्मचारियों को पदोन्नति वाला वेतनमान तो मिल जाता है. लेकिन पदनाम का संकट बना रहता है. इसके कारण कई प्रैक्टिकल समस्याएं होती हैं. जूनियर आरक्षण का लाभ लेकर सीनियर बन जाता है, तो वह उसकी गोपनीय चरित्रावली लिखने के लिए पात्र हो जाता है. आरक्षण के कारण सुपरसीड हुए सीनियर के सामने तब और समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जब उसके कैडर में सीधी भर्ती से नियुक्तियां हो जाती हैं.  इसके बाद तो फिर हालात ऐसे हो जाते हैं, कि उसे अपनी पूरी शासकीय सेवा नारकीय अनुभव के साथ बितानी पड़ती है.

    राजनीति में हर कदम वोट की दृष्टि से उठाया जाता है. प्रमोशन में आरक्षण के नाम पर दलित एजेंडे की शुरुआत भी इसी नजरिए से की गई थी. यद्यपि जिस कांग्रेस ने इसे शुरु किया था, उसका राजनीतिक पतन हमारे सामने है. राजनीति की एक बड़ी समस्या यह है, कि एक बड़े वर्ग को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय को भले ही वह समानता के सिद्धांत के खिलाफ हो. कोई राजनीतिक दल बदलने की हिम्मत नहीं कर पाता. 

    प्रमोशन में आरक्षण के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है. मध्य प्रदेश सरकार के नए नियमों में भी इसीलिए आरक्षित वर्गों को संतुष्ट करने के लिए ज्यादा प्रयास दिखाई पड़ रहे हैं. यहां तक कि आईएएस अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन को भी नजरअंदाज कर दिया है.

    नियुक्तियों में आरक्षण समानता के लिए है. इसीलिए इसे पूरे देश में सर्वाधिक स्वीकार किया जाता है. प्रमोशन में आरक्षण सुशासन के सिस्टम में एक नई तरह की असमानता पैदा कर रही है. जात-पांत पैदा कर रही है. इसके कारण बहुत सारे अधिकारी, कर्मचारियों को मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है. 

    प्रमोशन की ऐसी नीति बनाई जाना चाहिए, जिसमें वरिष्ठता का सम्मान होना चाहिए. ऐसा भी किया जा सकता है कि अगर मेरिट के कारण या आरक्षण के कारण कोई भी अधिकारी और कर्मचारी सुपरसीड होता है, तब भी उसके पास यह अवसर होना चाहिए कि जब भी उसको प्रमोशन मिलेगा, तब उसकी वरिष्ठता उसके कनिष्ठ के ऊपर ही रखी जाएगी. यह प्रमोशन समयमान पदोन्नति भी हो सकती है. 

     स्वर्णिम बातें लेकिन कनिष्ठ के अंडर में काम करने की नारकीय परिस्थितियां, सुशासन की चूलें हिला रही हैं. वैसे तो रेगुलर कर्मचारी रिटायरमेंट के साथ कम हो रहे हैं. भर्तियां सीमित होती हैं. सब कुछ आउटसोर्स पर केंद्रित हो गया है. 

    इस बीच पदोन्नति में आरक्षण की पॉलिटिक्स गवर्नेंस का मैट्रिक्स बिगाड़ रही है. मायावती दलित राजनीति की प्रतीक मानी जाती हैं, लेकिन उनका पतन यही बताता है, कि जातिवादी प्रशासनिक चिंतन किसी के लिए भी लाभकारी नहीं है.