इलेक्शन कमीशन पर राजनीतिक हमले अब धमकी तकपहुंच गए हैं. बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के विरोध में संसद ठप्प है. बिहार विधानसभा में कार्यवाही बाधित है. राहुल गांधी बीजेपी से मिलकर चुनाव आयोग पर वोट चोरी का आरोप लगा रहे हैं..!!
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार भी राहुल के हर आरोप को झूठ बता रहे हैं. वह यहां तक कह रहे हैं कि आयोग का यह संवैधानिक दायित्व है, कि मतदाता सूची में पात्र उम्मीदवार ही शामिल रहें. आयोग यही दायित्व निभा रहा है. किसी के दबाव या भय में आयोग अपना संवैधानिक दायित्व नहीं छोड़ सकता. एसआईआर पर विवाद राजनीतिक दलों की संगठनात्मक अक्षमता के कारण है. कमीशन तो मतदाता पुनरीक्षण में सॉफ्टवेयर के रूप में काम करता है. वास्तविक रूप से तो पुनरीक्षण का काम राजनीतिक दलों के बूथ लेवल एजेंट ही संपन्न करते हैं.
एक बूथ में औसतन 1200 मतदाता होते हैं. बूथ एजेंट लगभग सभी मतदाताओं से परिचित होता है. इस दौरान मृत हुए, स्थाई रूप से बाहर गए, दो स्थानों पर वोटर कार्ड रखने वाले या निर्धारित आयु पूर्ण कर नए मतदाता बनने वाले हर पात्र-अपात्र को बूथ के अंदर बहुत सारे लोग जानने पहचानने वाले उपलब्ध होते हैं. यहां तक कि सरकारी अमला भी यह जानकारी रखता है. कौन घुसपैठी है. इसको जानने के लिए भी किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है. बूथ के लोग आपस में यह निर्धारण कर लेते हैं.
राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और दूसरे राजनीतिक दल जिस तरह से एसआईआर का पुरजोर विरोध कर रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि इन दलों की ताकत बोगस मतदाता ही रहे हैं. मतदाता सूची से अपात्र लोगों के नाम हटाने के बाद राजनीतिक दलों के सामने आपत्ति का दो माह का समय होता है. जो भी राजनीतिक दल जमीन पर सक्रिय है, उसे मतदाता सूची पुनरीक्षण, से कोई समस्या नहीं हो सकती. जिन्हें केवल तुष्टिकरण जाति और बोगस वोटों के आधार पर अपनी जीत का हवाई किला बनाना है, उन्हें ही इस पर गंभीर आपत्ति है.
चुनाव आयोग पर विवाद तो पहले भी उठते रहे हैं, लेकिन एसआईआर पर जिस तरह का संगठित विरोध किया जा रहा है, वह संवैधानिक संस्था की गरिमा को ठेस पहुंचा रहा है. इस मामले में विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट भी गए हैं. इसकी सुनवाई अभी हो रही है. अगर पुनरीक्षण की कार्रवाई में कोई अवैधानिक प्रक्रिया अपनाई गई है, तो निश्चित रूप से सर्वोच्च अदालत इस पर अपना फैसला देगी. राजनीतिक दलों के लिए यह बात पूरी तरह से अनुचित है, जो उनका अंपायर है, जिसे संविधान ने यह शक्ति दी है, उस पर पॉलिटिकल गुंडागर्दी के जरिए ऐसे आरोप लगाया जाएं जिनकी कोई प्रमाणिकता नहीं है.
चुनाव आयोग भी एक प्रक्रिया के अंतर्गत ही काम करता है. हर प्रक्रिया में अपील की व्यवस्था है. किसी भी स्तर पर किसी भी गड़बड़ी को उजागर करने और एक्शन के लिए अपील की जा सकती है. कानूनी प्रक्रिया में जाए बिना केवल राजनीतिक रूप से संवैधानिक आयोग को बदनाम करना, धमकाना लोकतंत्र के हित में नहीं हो सकता.
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव इस मामले में सबसे ज्यादा मुखर दिख रहे हैं. तेजस्वी यादव तो चुनाव बहिष्कार के विकल्प की भी बात कर रहे हैं. बहिष्कार की बात भी लोकतांत्रिक गुंडागर्दी का नमूना है, जो लोग सत्ता की राजनीति के लिए संवैधानिक संस्था पर हमले कर रहे हैं, वह चुनाव से दूर हो सकते हैं. यह केवल अपने झूठे आरोपों को मजबूती देने के लिए कहा जा रहा है, जो राजनीतिक दल चुनाव के बहिष्कार पर बढ़ना चाहते हैं, उनको पहले यह देखना चाहिए कि उनको राजनीति में आगे आने के लिए ही किस जनता ने आमंत्रित किया था.
इनमें से ज्यादातर नेता परिवार की विरासत में राजनीति में आए हैं. परिवारवादी राजनीति वैसे ही लोकतांत्रिक चोरी का नमूना है. लोकतंत्र में तपकर बना नेतृत्व अनुभव की परिपक्वता से चलता है. जबकि परिवारवादी राजनीति ऐसे ही असंवैधानिक बातों और आचरण की डुगडुगी से भीड़ की राजनीति का सहारा लेते हैं.
संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग पर संसद में चर्चा करने की विपक्ष की मांग भी संवैधानिक नहीं है. असमान विचारधारा वाले दल मोदी विरोध में एक साथ आकर संवैधानिक संस्थाओं की भीड़ हत्या करने की कोशिश कर रहे हैं.
मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टीएन सेशन ने राजनीतिक दलों में दहशत पैदा कर दी थी. वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार भी जिस तरह से आयोग के संवैधानिक दायित्व को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई पड़ रहे हैं, उससे पॉलिटिकल लिंचिंग की मंशा से एक साथ आए नेताओं को सावधान हो जाना चाहिए. चुनाव आयोग को बिना डरे और बिना प्रभावित हुए अपना दायित्व निभाना चाहिए.
आयोग की कार्रवाई की संवैधानिकता पर सर्वोच्च न्यायालय में अंतिम निर्णय जब आएगा, तब सारी परिस्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी. संवैधानिक संस्थाओं की कार्यवाही का पॉलिटिकल लिंचिंग से मुकाबला नहीं किया जा सकता. अगर कोई जिनाइन गड़बड़ी है तो फिर कानूनी ढंग से ही उसका निराकरण होगा. इसी तरह का प्रयास राजनीतिक दलों को करना चाहिए.
संविधान अगर बोल पाता तो विपक्षी दलों को यही कहता, कि उसके साथ मुंह में राम और बगल में छुरी की कहावत दोहराई जा रही है. हाथ में संविधान लेकर संवैधानिक संस्था को ही धमकाया जा रहा है. घुसपैठी बोगस और फर्जी नामों को मतदाता सूची में रखने के लिए संसद को ठप्प किया जा रहा है. मतदाता सूची शुद्धिकरण से बोगस वोटर्स से लाभान्वित होने वाले दलों को खतरा महसूस हो रहा है.
एसआईआर की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से बूथ स्तर पर शामिल होकर राजनीतिक दल मतदाता सूची शुद्धिकरण में भागीदार हो सकते हैं. जिन दलों का जमीन पर संगठन नहीं है, उन्हीं के नेता संसद परिसर में प्रदर्शन की राजनीति कर रहे हैं. एसआईआर का विरोध और चुनाव आयोग पर हमला राजनीतिक दलों का सीआर बता रहा है.
मंदिर में चोरी करने वाला भगवान से नहीं संविधान से डरता है. लोकतंत्र के मंदिर में तो ना वह भगवान से ना ही संविधान से डरता दिखाई पड़ रहा है.