उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफा चौंकाने वाला लगता है. विपक्षी दलों द्वारा मानसून सत्र में सरकार को घेरने के लिए तैयारी का पटाखा तो हर बार जैसा ही नारेबाजी में फुस्स हो गया. लेकिन धमाका धनखड़ ने कर दिया..!!
राज्यसभा के सभापति के रूप में पूरे दिन कार्यवाही का संचालन किया. पूरी तरह से सक्रिय दिखाई पड़े. दूसरे दिन के लिए बैठकों को स्थगित किया. फिर अचानक देर शाम राष्ट्रपति से मिलकर इस्तीफा दिया और खुद ही एक्स पर पोस्ट कर ऐलान कर दिया.
उपराष्ट्रपति संवैधानिक पद है. अगर इस्तीफा देना है तो निश्चित रूप से जिस सरकार ने उन्हें उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया, उसको तो जरूर विश्वास में लिया गया होगा. अगर इस्तीफे के पहले प्रधानमंत्री को विश्वास में नहीं लिया गया तो फिर यह स्पष्ट ही है कि, इस्तीफा स्वाभाविक नहीं बल्कि मजबूरी में दिया गया है. पूरा घटनाक्रम इसी और इशारा कर रहा है.
उपराष्ट्रपति अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंपने के बाद बिना मंजूरी के उसको सोशल मीडिया पर पोस्ट कैसे कर सकते हैं? क्योंकि धनखड़ ने ऐसा किया है इसलिए ऐसा लगता है कि, सरकार की नाराजगी के चलते उनके द्वारा त्यागपत्र दिया गया है. इसीलिए शायद वह स्वयं इसे सार्वजनिक कर संदेश देना चाहते होंगे. अब तो उनका त्यागपत्र राष्ट्रपति द्वारा मंजूर कर लिया गया है. गृह मंत्रालय की ओर से इस संबंध में अधिसूचना भी जारी कर दी गई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया भी सामने आ गई है. पीएम ने पूर्व उपराष्ट्रपति के उत्तम स्वास्थ्य की कामना की है. जितनी छोटी प्रतिक्रिया पीएम की ओर से दी गई है, वह भी अगर डीकोड की जाएगी तो सरकार और उपराष्ट्रपति के बीच नाराजगी का ही इशारा करती है.
पूर्व उपराष्ट्रपति ने यह इतिहास तो बना ही लिया है कि आजादी के बाद अब तक किसी भी उपराष्ट्रपति ने पहली बार कार्यकाल पूरा होने के पहले अपना पद छोड़ा है. इसके पहले उपराष्ट्रपतियों ने जब भी त्यागपत्र दिया तब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए ऐसा किया गया.
पूर्व उपराष्ट्रपति का व्यक्तित्व आउट स्पोकन रहा है. पेशे से वह वकील हैं. बुद्धिजीवी के रूप में उनकी छवि है. राजनीति में लोकदल, जनता दल और कांग्रेस से होते हुए बीजेपी में आए. पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा ही उन्हें राज्यपाल बनाया गया था. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उनके विवाद की कोई हदबंदी नहीं थी.
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल के रूप में उनकी भूमिका बीजेपी और केंद्र सरकार को इसलिए सूट कर रही थी क्योंकि इससे ममता बनर्जी को परेशानी हो रही थी. एक कानूनविद होने के कारण उनके एक्शन अवैधानिक नहीं होते थे, लेकिन उनका प्रैक्टिकल रूप वैधानिकता को कई बार कटघरे में खड़ा कर देता था.
पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार ने ही उपराष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार के रूप में चुना और वह उपराष्ट्रपति बने. सामान्य प्रक्रिया में उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखता है. पूर्व उपराष्ट्रपति हर कंट्रोवेंशियल मुद्दे पर अपनी राय रखते थे. सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ उनके वक्तव्य विवादास्पद बने थे. राज्यसभा सदन में कृषि मंत्री को जिस तरह से किसान मुद्दे पर आसंदी से टिप्पणी की थी, उसको लेकर भी सरकार असहज हुई थी.
उनके वक्तव्य उनके संवैधानिक पद और राजनीतिक सोच की सीमाओं से परे होते थे. जब से उन्होंने इस्तीफा दिया है तब से विपक्षी दलों द्वारा यही जानने की कोशिश हो रही है कि उन्होंने इस्तीफे में लिखे अनुसार स्वास्थ्य कारणों से ही पद छोड़ा है या कारण कुछ और है?
लगता तो यही है कि, स्वास्थ्य का कारण तो बहाना है. असली कारण सरकार और उनके बीच नाराजगी रही है. अगर ऐसा है तो इसके लिए सरकार से ज्यादा पूर्व उपराष्ट्रपति स्वयं जिम्मेदार कहे जाएंगे. वह जाट समाज से आते हैं. उनका राजनीतिक जनाधार उतना महत्वपूर्ण नहीं है. उनकी योग्यता और कानूनविद होने की विशेषज्ञता के कारण उन्हें इस पद के लिए चुना गया था. उनका आउट स्पोकन होना, उनके लिए घातक साबित हो गया.
त्यागपत्र के बाद विपक्ष जहां इसका कारण खोज रहा है, वही उनका पुरज़ोर समर्थन भी कर रहा है. इसे राजनीति की विडम्बना ही कहा जाएगा कि, जो विपक्ष आज धनखड़ में सारी खूबियां देख रही है, वहीं विपक्ष उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लेकर आया था. उपराष्ट्रपति का पद केवल राज्यसभा के सभापति के रूप में ही उपयोगी हो सकता है बाकी तो सरकार के लिए इसकी बहुत सीमित उपयोगिता ही है.
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग के मामले में राज्यसभा का घटनाक्रम भी धनखड़ की बड़ी भूल के रूप में देखा जा रहा है. जब एनडीए सरकार विपक्ष के साथ मिलकर इस पर प्रस्ताव लोकसभा में ला रही है तो फिर राज्यसभा में केवल विपक्ष के प्रस्ताव को उनके द्वारा क्यों स्वीकार किया गया. यह या तो उन्होंने अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए किया.
इसके साथ ही विपक्ष का एक और महाभियोग प्रस्ताव जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ पहले से ही राज्यसभा के सभापति के पास विचाराधीन है. इस पर भी उन्होंने राज्यसभा में चर्चा का आश्वासन दिया था. जस्टिस यशवंत वर्मा के महाभियोग पर सरकार आगे बढ़ रही है लेकिन जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग के पक्ष में सरकार नहीं थी. उनकी इस भूल ने भी नाराजगी बढाने की भूमिका निभाई.
इस पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है कि, स्वास्थ्यगत कारणों से ही उन्होंने अपना पद छोड़ा है. उनके त्यागपत्र के अचानक घटनाक्रम ने सभी को चौंकाया है. पीएम नरेंद्र मोदी के महत्वपूर्ण कदम अचानक एलिमेंट के साथ ही आते रहे हैं. चाहे नोटबंदी हो और चाहे ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान पर अटैक का मामला हो, अचानक ही इसकी जानकारी देश को मिली. अचानक एलिमेंट भी यही इशारा कर रहा है कि, इसके पीछे सरकार की नाराजगी ही बड़ा कारण है.
उपराष्ट्रपति के पद से जगदीश धनखड़ के त्यागपत्र का राजनीतिक महत्व नहीं के बराबर है. फिलहाल राज्यसभा के उपसभापति सदन की कार्रवाही संचालित करेंगे. नए उपराष्ट्रपति का चुनाव संपन्न होने में कोई कठिनाई नहीं होगी. संवैधानिक पदों पर उम्मीदवार का चयन करते समय और सतर्कता की जरूरत है, ताकि ऐसी अप्रिय स्थितियां निर्मित नहीं हो.
जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति का संवैधानिक पद किसी राजनीतिक मजबूरी में नहीं दिया गया था बल्कि कानूनविद की उनकी विशेषज्ञता और योग्यता को पहचानते हुए केंद्र सरकार ने यह महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा था. जगदीप धनखड़ को अपनी संवैधानिक सीमाओं और कर्तव्य की लक्ष्मण रेखा को लांघने से बचना चाहिए था. राज्यपाल के रूप में सत्यपाल मलिक ने भी अपना कार्यकाल तो पूरा किया लेकिन उसके बाद उसी नेता और सरकार के खिलाफ संवैधानिक कार्यकाल की बातों को उछालते रहे, जो सर्वर्था अनुचित है.
धनखड़ को ऐसे व्यवहार से दूर रहने की जरूरत है. यद्यपि उनका आउट स्पोकन रूप तो यही कहता है कि, वह मर्यादा और गरिमा से ज्यादा अपनी बोली पर भरोसा करेंगे.
बीमारी या नैतिकता किसी भी कारण त्यागपत्र का विचार लोकतंत्र का श्रृंगार कहा जाएगा. कार्यकाल रहते हुए पद छोड़ने की प्रवृत्ति लोकतंत्र से गायब हो रही है. रिटायरमेंट की कल्पना सियासत में दिखती नहीं है.