पर्यावरण मंजूरी की एजेंसी सिया में घमासान का तूफान ट्रांसफर के साथ धीमा पड़ गया है. प्रमुख सचिव पर्यावरण और सिया की सदस्य सचिव को हटा दिया गया है..!!
यह विवाद रिटायर्ड आईएएस, सिया के अध्यक्ष, विभाग के प्रमुख सचिव एवं सदस्य सचिव के बीच नियमों के उल्लंघन, भ्रष्टाचार के आरोपों से शुरू हुआ था. जो विभाग की असली ताकत साबित करने में बदल गया.
पहली हार सिया चेयरमैन की हुई जब उनके कक्ष में तालाबंदी की गई. इसका आरोप प्रमुख सचिव और सदस्य सचिव पर लगा. अब इन दोनों अफसरों की हार हुई है. सिटिंग और रिटायर्ड आईएएस अफसरों की इस जंग में प्रशासन और पर्यावरण की सबसे बड़ी हार हुई है.
बिना सिया की स्वीकृति के जिन प्रकरणों को मंजूरी दी गई है, उसमें सीधा नियमों को तोड़ा गया है. आरोप के मुताबिक इसमें भ्रष्टाचार किया गया है. इसकी शिकायत राज्य और केंद्र सरकारों को की गई है. अब तो मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया है.
यह पूरा घटनाक्रम जब उछला तब राज्य के सीएम विदेश प्रवास पर थे. लौटने के बाद पूरी जानकारी के उपरांत ट्रांसफर का यह एक्शन यही बताता है कि, प्रथम दृष्टया इन दोनों अफसरों को दोषी माना गया है. दोनों ट्रांसफर में अपग्रेडेशन ही दिखाई पड़ता है. एक अधिकारी को राजभवन में प्रमुख सचिव बना दिया गया है तो दूसरे को अतिरिक्त प्रभार से मुक्त कर काम का बोझ कम कर दिया गया है.
राज्य की ट्रांसफर पॉलिसी में भले ही राजभवन के प्रमुख सचिव का पद उतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता हो लेकिन संवैधानिक प्रक्रिया में शासन, राज्यपाल के नाम से ही संचालित होता है. यही वजह है कि, उनके प्रमुख सचिव की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं मानी जा सकती.
राजभवन में भी सीनियर अफसर का नहीं टिक पाना भी कई सवाल खड़े करता है. राज्य सरकार और राजभवन के बीच संतुलन के इस पद पर पदास्थापना में अस्थिरता, प्रशासनिक चंचलता दिखाती है.
सिया में उठा विवाद ट्रांसफर के साथ भले ही धीमा पड़ गया हो लेकिन इससे उन सवालों का समाधान नहीं हुआ है, जो सिया अध्यक्ष द्वारा लिखे पत्र में उठाए गए थे. अगर पर्यावरण की मंजूरी के प्रोजेक्ट में नियमों का उल्लंघन हुआ है? भ्रष्टाचार के आरोप सही हैं? तो फिर ट्रांसफर नहीं बल्कि दंडात्मक कार्यवाई जरूरी है. ट्रांसफर के जरिए नई पदस्थापना पुरानी गड़बड़ियों और गलतियों को मिटा नहीं सकता है.
सरकारों में यह प्रवृत्ति पूरे सिस्टम को प्रदूषित कर रही है. जो भी ऐसे विवाद आते हैं, पहले तो उसको सुलटाने की कोशिश की जाती है. जब मामला सीमा पार चला जाता है तो फिर ट्रांसफर करके उसको दबा दिया जाता है. यही सिया के विवाद में भी अब तक दिखाई पड़ा है, जो प्रशासनिक दृष्टि से सही कदम नहीं कहा जाएगा.
कोई भी गड़बड़ी या नियमों का उल्लंघन प्रकाश में आने के बाद व्यक्ति आधारित मामला नहीं बचता बल्कि इसको सिस्टम के रूप में देखा जाना चाहिए. जो भी एक्शन हो वह सुधार की दृष्टि से हो. जिससे कि, भविष्य में ऐसी गलतियां दोहराई ना जा सके. नियमों को तोड़ने की किसी भी लेवल पर कोई ताकत ना बचे. मनमौजी प्रशासन प्रणाली ही करप्शन की सारथी होती है. प्रशासन की प्रक्रिया नियम के अनुरूप हो ना कि, ताकतवर अफसर की मौज उसे संचालित करने का दुस्साहस कर सके.
पर्यावरण मंजूरी का विषय केवल प्रशासनिक गड़बड़ी का नहीं है बल्कि इससे आम जनजीवन भी प्रभावित होता है. पर्यावरण से जुड़ा कोई भी निर्णय अगर नियमों के विपरीत होगा तो इससे पर्यावरण को चोट पहुंचेगी. जो अंततः आम जनजीवन को प्रभावित करेगा. इसलिए ऐसे मामलों में ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. जिस तरह से ऐसे मामलों में ट्रांसफर की नीति अपनाकर नियम तोड़ने और कमाने के आरोपों को दबाया जाता है उससे तो यही कहा जा सकता है कि, ‘नियम तोड़ो, कमाओ और ट्रांसफर का लाभ उठाकर अच्छी पोस्टिंग पाओ’ की योजना सबसे’ लाभकारी है.
नियम प्रक्रियाओं की अनदेखी कर प्रशासन की मनमौजी प्रणाली शासन के पूरे सिस्टम पर हावी हो गई है. चपरासी से लेकर विभाग अध्यक्ष तक सब की सिस्टम में भूमिका परिभाषित है, लेकिन हर विभाग, विभागाध्यक्ष के मौज के मुताबिक चलता है. अगर किसी स्तर के किसी व्यक्ति ने नियम कानून बताने की कोशिश की तो उसे अपमानजनक व्यवहार से गुजरना पड़ता है. आजकल तो ताकतवर पदों पर आसीन अफसरों का संवाद और भाषा भी शिष्टाचारके अनुरूप नहीं दिखाई पड़ती.
समाचार पत्रों में राष्ट्रीय हरिहर नाट्य समारोह के विज्ञापनों में मनमौजी शासन प्रणाली सार्वजनिक रूप से शासन द्वारा ही प्रकट की गई है. संस्कृति विभाग के एक ही कार्यक्रम को दो विज्ञापनों में बताया गया है.एक संस्कृति विभाग का है तो दूसरा इसी विभाग के अंतर्गत वीर भारत न्यास द्वारा आयोजित कार्यक्रम का है. एक कार्यक्रम में अतिथि बताए गए हैं, दूसरे में कोई अतिथि नहीं है.
समुद्र मंथन पर आधारित इस इवेंट के महासंदेश अगर राज्य के लिए इतना जरूरी थे? तो अब से पहले किसी भी शासक ने इस पर क्यों नहीं ध्यान दिया?
जहां तक समुद्र मंथन का सवाल है, सरकार में तो यह सतत चलता रहता है. इस मंथन में एक तरफ नियम प्रक्रिया होती है तो दूसरी तरफ शासक के मनमौजी फरमान होते हैं. दोनों के मंथन में जो अमृत निकलता है, वह तो सिस्टम के देव पी जाते हैं. मंथन से निकला विष कोई भी पीना नहीं चाहता लेकिन कभी कभार किसी छोटे-मोटे को दंड मिल जाता है.
विष सिस्टम में फैलता रहता है. इसी के चलते पूरा सिस्टम विषैला हो जाता है. विषैले सिस्टम का नुकसान अंततः लोकतंत्र के मलिक आम नागरिक को ही उठाना पड़ता है.
एक कवि का व्यंग्य मौजू है. जिसमें कवि कहता है कि, ‘एक बॉस अपने अधीनस्थ को डांटते हुए कह रहा है कि..
तुम गधे हो, मक्कार, कामचोर, बेईमान हो.
तो अधीनस्थ धीरे से जवाब देता है, सर आप ठीक कह रहे हैं.. ‘सर आप हमारे बॉस हैं’. जो विशेषण लगाए गए हैं, उसमें कौन, किसका बॉस है यह तय करना मुश्किल है.