घुसपैठी वोट बैंक के लिए संविधान और देश को दांव पर लगाया जा रहा है. वोटर लिस्ट में घुसपैठियों का नाम हटाने के लिए प्रतिबद्ध संवैधानिक चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट से लड़ाने की कोशिश हो रही है..!!
चुनाव आयोग को नागरिकता जानने का अधिकार नहीं होने की बात कर वोटर लिस्ट से घुसपैठी विदेशी नागरिकों को हटाने की मुहिम को रोकने का प्रयास किया जा रहा है.
राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी चुनाव आयोग को बीजेपी का पिट्ठू बता रहे हैं. विपक्षी नेताओं का रवैया यह संदेह उत्पन्न कर रहा है कि, घुसपैठी उन्हीं के वोट बैंक हैं. बिहार में वोटर लिस्ट के गहन पुनरीक्षण पर कांग्रेस और आरजेडी द्वारा खड़े किए जा रहे विवाद को तो समझा जा सकता है, क्योंकि वहां चुनाव बहुत करीब है. सीमित समय में गहन पुनरीक्षण को अंजाम दिया जा रहा है. लेकिन पश्चिम बंगाल में तो अभी चुनाव काफी दूर है.
चुनाव आयोग ने पूरे देश में वोटर लिस्ट के विशेष पुनरीक्षण की मंशा ज़ाहिर कर दी है. इसका मतलब है बंगाल और दूसरे राज्य में भी पुनरीक्षण होगा. ममता बनर्जी ने इसको घुसपैठियों के खिलाफ नहीं बल्कि अपने खिलाफ मान लिया है. क्योंकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए अब राजनीतिक रूप से तो गहन पुनरीक्षण को नहीं रोका जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक रूप से कोई निर्णय कर सकता है लेकिन गहन पुनरीक्षण को तो उसने भी स्वीकार कर लिया है. विवाद पहचान पत्रों पर सिमट गया है. अब विवाद इस पर आ गया है कि, चुनाव आयोग को नागरिकता की जांच करने का अधिकार नहीं है? यह बात सही भी है, कानूनी रूप से यह अधिकार गृह विभाग को है.
संविधान चुनाव आयोग को यह अधिकार देता है कि, अट्ठारह वर्ष आयु से ऊपर के भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार सुनिश्चित करें. इसी के लिए वोटर लिस्ट बनाई जाती है. हर साल उसका चार बार अपडेशन किया जाता है. पहले एक बार ही यह होता था लेकिन अब यह अपडेशन चार बार होने लगा है. क्योंकि हर तीन महीने में बड़ी संख्या में युवा अठारह वर्ष की आयु पूरी करते हैं. किसी को भी मतदान के अधिकार से वंचित न होना पड़े इसलिए हर तीन महीने में वोटर लिस्ट अपडेशन किया जाता है.
विशेष पुनरीक्षण की प्रक्रिया पहले भी होती रही है. इसमें चुनाव आयोग इस बात का परीक्षण करता है, कि कोई भी घुसपैठी या विदेशी नागरिक मतदाता सूची में शामिल न रहे. साथ ही पात्र मतदाता तो सभी उसमें रहें लेकिन जिनका निधन हो गया हो, जिन्होंने अपना निवास स्थान बदल दिया हो, उनका नाम हटाकर वोटर लिस्ट को अपडेट कर दिया जाए.
आधार कार्ड पहचान के रूप में देश में स्वीकार है लेकिन इसे नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकता. अगर कोई छह माह से अधिक समय तक भारत में निवास करता है तो कानून के मुताबिक किसी विदेशी नागरिक को भी आधार कार्ड पाने की पात्रता हो जाती है. आधार कार्ड को विशेष पुनरीक्षण में स्वीकार नहीं किया जा रहा है. संविधान में भारत के नागरिक के लिए जो आधार बताए गए हैं, उन्हीं आधारों को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक दस्तावेजों को आयोग द्वारा मांगा जा रहा है.
राजनीतिक दल इस पूरी प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से विवादास्पद बना रहे हैं. पूरे मुद्दे को भटकाया जा रहा है. मीडिया भी इसमें सहयोगी बन जाता है. किसी भी व्यक्ति को एक स्थान पर मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करने का अधिकार है. अगर कोई पलायन कर गया है और उसने दूसरी जगह अपना नाम दर्ज करा लिया है तो फिर उसका मूल स्थान पर वोटर लिस्ट में नाम नहीं हो सकता.
वोटर लिस्ट रिवीजन चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की सहयोग से ही करता है. राजनीतिक दलों के एजेंट बूथ लेवल तक इस पूरी प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं. यह राजनीतिक दलों की ही जिम्मेदारी है कि, अपने बूथ के पात्र मतदाताओं को लिस्ट में शामिल कराएं. इसके लिए जरूरी दस्तावेज तैयार कराएं. इसी से तो उनका वोटर बेस तैयार होता है. जमीन पर चूंकि राजनीतिक दल कटे होते हैं, पूरी राजनीति मार्केट के भरोसे हो गई है. व्यक्तिवाद की राजनीति हावी हो गई है. इसलिए गलत या सही परसेप्शन बनाने में राजनीति व्यस्त रहती है.
घुसपैठयों को नागरिकता देने के बारे में सरकार के नियम बने हुए. हर देश में नागरिकता के नियम है. भारत दुनिया का अकेला देश है जहां नागरिकता के लिए कोई अलग रजिस्टर नहीं है. भारत सरकार ने एनआरसी का कानून बनाया है लेकिन उसका भी यही सारे विपक्षी दल विरोध करते पाए जाते हैं. ऐसा बताया जाता है कि पूरे देश में लगभग दो करोड़ घुसपैठिये, जिनमें मुख्य रूप से बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल से आए रोहंग्या मुसलमान बताए जाते हैं.
भाजपा हमेशा से घुसपैठियों को कांग्रेस और विरोधी दलों का वोट बैंक मानती है, इसीलिए उनका पुरजोर विरोध करती है. जिन राज्यों के बॉर्डर इन देशों से मिलते हैं, वहां से घुसपैठ होती है. सर्वाधिक विवाद बंगाल से जुड़ा हुआ है. बिहार में भी नेपाल से बड़ी संख्या में घुसपैठ बताई जाती है. सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि घुसपैठियों को क्या भारत के लोकतंत्र को हाईजैक करने का अवसर दिया जा सकता है? क्या घुसपैठियों के समर्थन से राजनीतिक दल सत्ता तक पहुंचने के अपने सपने को पूरा करें, यह देश के हित में है?
बांग्लादेशी घुसपैठियों को पहचान कर उनके देश वापस भेजने की सरकार की मुहिम में बाधा पहुंचाने के लिए ममता बनर्जी बांग्ला भाषियों के अपमान का मुद्दा खड़ा कर रही हैं. इसके लिए कोलकाता में प्रदर्शन कर रही है. बीजेपी आरोप लगाती है कि, बांग्ला भाषी किसी भी व्यक्ति का देश में या राज्य में कोई अपमान नहीं हो रहा है. ममता बनर्जी अपने वोट बैंक रोहंगिया मुसलमान को वोटर लिस्ट से हटाए जाने की प्रक्रिया को रोकने के लिए इस तरह का राजनीतिक अभियान चला रही हैं.
घुसपैठी देश के लोकतंत्र को हाईजैक कर रहे हैं. बहुमत के लिए घुसपैठियों को पहचान पत्र दिए जाते हैं. फिर वोटर लिस्ट में नाम जोड़े जाते है. बहुमत से प्रीति राजनीति की मजबूरी हो सकती है लेकिन ऐसी राजनीति देश को तोड़ने लगी है. एक भी घुसपैठिये का नाम किसी भी राज्य के वोटर लिस्ट में होना चुनाव आयोग की असफलता होगी साथ ही देश की चुनाव प्रक्रिया संविधान मुताबिक नही होगी.
राजनीतिक दलों के विरोधी अभियान से बिना डरे, बिना झुके, चुनाव आयोग को अपनी संवैधानिक सत्ता लोकतंत्र को समर्पित करना चाहिए. राजनीतिक दल और नेता तो आएंगे और मिट जाएंगे लेकिन लोकतंत्र और देश हमेशा रहेगा. घुसपैठियो का कलंक देश से मिटना जरूरी है. यह नहीं कर पाना राष्ट्र घात ही माना जाएगा.