इतिहास घटनाओं की स्मृतियों पर जीवन पाता है. स्मृतियां निरपेक्ष होती हैं. जब इतिहास को विचारधारा के लिए तोड़ा-मरोड़ा जाता है, तब इतिहास पर विवाद शाश्वत हो जाता है..!!
इतिहास बदला नहीं जा सकता, लेकिन इसे सही दृष्टिकोण और परिपेक्ष्य में देखा, समझा और परोसा जा सकता है. पाठ्य पुस्तकों में मुगल शासकों और भारतीय सम्राटों के इतिहास में जब भी भारतीय दृष्टिकोण को प्राथमिकता मिलती है, तब विवाद शुरू हो जाते हैं.
एनसीईआरटी की आठवीं की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में अकबर और औरंगजेब के इतिहास के अच्छे और बुरे दोनों पक्षों को शामिल किया गया है. अभी तक केवल अकबर की महानता पढ़ाई जा रही थी. अब अकबर की सहिष्णुता के साथ उसकी क्रूरता को भी पाठ्य पुस्तक में पढ़ाया जाएगा.
इसी प्रकार औरंगज़ेब के शासन काल की क्रूरता का इतिहास अब बच्चों को पढ़ाया जाएगा. औरंगजेब को निर्दयी शासक इसीलिए बताया गया है, क्योंकि उसकी कट्टरता और क्रूरता तो सार्वजनिक रही है. उसने गैर मुसलमानों की धार्मिक यात्राओं पर जजिया कर लगाया. हिंदू मंदिरों को तोड़ने का भी महापाप किया. हर शासक का काल इतिहास होता है. केवल शासन की महानता स्थापित करना ही इतिहास का काम नहीं है, बल्कि उसकी क्रूरता को भी बताया जाना चाहिए.
किसी शासक के किसी भी कृत्य के लिए वर्तमान में किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. जब शासकों की क्रूरता इतिहास में पढ़ाई जाती है, तब वर्तमान में शासको को सबक मिलता है. मुगल साम्राज्य पर इतिहास में कुछ भी नई बात होगी, तो फिर तो राजनीतिक विवाद निश्चित है. जब इतिहास के सही दृष्टिकोण को पाठ्यक्रमों में लाने का काम हिंदूवादी सरकार कर रही है, तब तो फिर इसे मुस्लिम विरोधी साबित करने में कोई कठिनाई ही नहीं है.
इतिहास पर राजनीति अपनी जगह है, लेकिन इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता. भारतीय इतिहास में स्वाधीनता के बाद एक खास दृष्टिकोण को ही प्राथमिकता मिली है. इसी कारण विचारधारा का असंतुलन खड़ा हो गया. जो विचारधारा धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति का आधार मानती रही, उसी का लंबे समय तक देश में वर्चस्व रहा. इसके कारण इतिहास ने भी धर्मनिरपेक्षता का रास्ता पकड़ लिया.
धर्मनिरपेक्षता वैसे तो एक पक्षीय नहीं है. लेकिन प्रैक्टिकल में यह शब्द मुस्लिम परस्ती और तुष्टिकरण का प्रतीक बन गया. राजनीति में वर्तमान में ही यह शब्द ही विवाद का कारण बना हुआ है. धर्मनिरपेक्षता को संविधान से हटाने तक की बात हो रही है. संविधान में इस शब्द की उपयोगिता और अनुपयोगिता पर वैचारिक विमर्श हो सकता है, लेकिन इतिहास में तो धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण ने भारत की वैचारिक और सांस्कृतिक भूमिका को ही सीमित कर दिया है.
भारत के सम्राट और महानायकों को कमतर करके दिखाया गया. स्वतंत्रता आंदोलन में भी उसी विचारधारा के नायकों को इतिहास में महत्व दिया गया, जिनके पास आजादी के बाद सत्ता थी. सुभाष चंद्र बोस को आजादी के महानायक के रूप में इतिहास में पर्याप्त सम्मान और स्थान नहीं मिला.
हमारे देश में इतिहास को लेकर शुरू हुए विवाद वर्तमान पर हावी हो गए हैं. हिंदू मंदिरों को मुगल काल में तोड़ा गया, यह ऐतिहासिक तथ्य है लेकिन अब इन ऐतिहासिक जगहों पर फिर से मंदिर खोजने की कोशिश विवाद का बड़ा कारण बनी है.
राम जन्मभूमि आंदोलन एक पक्षीय इतिहास को तोड़ने वाला पल रहा है. अब तो अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन चुका है. अभी मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और ज्ञानवापी पर विवाद अदालतों में चल रहे हैं. पाठ्यक्रम में इतिहास के संदर्भों को एक खास विचारधारा के अनुरूप लिखा और पढ़ाया गया. हिंदू राजाओं को उतना महत्व नहीं दिया गया.
इतिहास को कैसे तोड़ा-मरोड़ा गया, वह इसी बात से समझा जा सकता है, कि प्रेम के प्रतीक के रूप में एक भी हिंदू सम्राट का उदाहरण इतिहास का हिस्सा नहीं है. जबकि लैला-मजनू, शीरीं -फरहाद और मुग़ल-ए-आज़म जैसी फ़िल्में मुस्लिम शासको की प्रेम कहानियों के रूप में स्थापित की गईं. इसे इसलिए भी सही नहीं कहा जाएगा क्योंकि ऐसा एक भी मुस्लिम शासक नहीं है जिसकी एक बेगम रही हो. जो एक पत्नी के प्रति एकनिष्ठ नहीं हो सकता वह प्रेम का प्रतीक कैसे हो सकता है? अगर इसको वर्तमान में सही दृष्टिकोण से रखने की कोशिश की जाएगी तो फिर इसे भी विवाद का विषय बनाया जाएगा.
इतिहास की स्मृतियों में जिया नहीं जा सकता. इसका मतलब यह नहीं है, कि हम अपने इतिहास से कट जाएं. इतिहास को सही संदर्भ में जानना, समझना और देखना वर्तमान के लिए जरूरी है. जिया तो वर्तमान में ही जाएगा, लेकिन यह वर्तमान भी अतीत से ही निकला है और इसी से भविष्य का निर्माण होगा. इतिहास को लेकर जितने भी विवाद चाहे वह शहरों के नाम बदलने,पाठ्यक्रमों में चरित्रों के व्यक्तित्व पर हों, मंदिर-मस्जिद पर हों वह सब इसीलिए खड़े हैं, क्योंकि इतिहास में उनके साथ छेड़छाड़ की गई है.
अगर छेड़छाड़ नहीं की गई होती तो फिर विवाद के कोई गुंजाइश नहीं थी. शहरों के इतने नाम बदले गए कि आज भारतीय संस्कृति और धर्म के इतिहास में जिन गांवों और नगरों का उल्लेख है, वह जमीन पर मिलते ही नहीं. क्योंकि उनके नाम बदल दिए गए हैं. अगर उन नामों को फिर से उनके मूल रूप में लाने की कोशिश की जाती है, तो उसका विरोध होता है. आज जो बदलाव हो रहे हैं, इसे इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं बल्कि इतिहास को मूल स्वरूप में लाना कहा जाएगा.
इतिहास की डेस्टिनी हमारी राइट टू आईडेंटिटी और राइट टू डिग्निटी है. अगर हम अपनी आइडेंटिटी और डिग्निटी से ही दूर हो जाएंगे तो फिर इतिहास की डेस्टिनी से कट ही जाएंगे. हम अपनी भविष्य की डेस्टिनी को भी खो देंगे. इतिहास पर विवाद राजनीति और जरूरत दोनों से जुड़ा है. पहचान के राष्ट्रीय गौरव से हम कट नहीं सकते हैं. राजनीतिक विचारधाराएं हमारा इतिहास नहीं हो सकतीं. इतिहास की समझ और सहानुभूति जरूरी है. गलतियों से सीखना इतिहास की प्रकृति है.
सही संदर्भ सही दृष्टिकोण में इतिहास किसी भी देश की सबसे बड़ी धरोहर है. जो सियासत इस धरोहर से खेलने की कोशिश करती है, वह खुद इतिहास बन जाती है. भावी पीढ़ी वही पढ़े जो सच है, तभी राष्ट्रीय गौरव बढ़ेगा.