कुछ पाने का लक्ष्य हो, तो नीति मर्यादा सब कुछ छूट जाता है. स्वार्थ का लालच अंधा बना देता है. विभाजन चाहे धर्म का हो या जाति का हो, इसके पीछे मानसिकता एक ही होती है, आतंकवादी धर्म पूछते हैं और राजनीतिज्ञ जाति को पूछते और पूजते हैं..!!
जाति की राजनीति और आतंकवादियों की धर्म की राजनीति में अच्छाई-बुराई का नजरिया भी तलाशते लोग दिख जाएंगे. अगर मौसम चुनाव का हो यह चुनाव ऐसे राज्य में हो रहा हो जहां पूरा दारोमदार जातियों पर टिका हुआ हो, तब तो फिर जातीय संघर्ष को भी भुनाने में कोई परहेज नहीं है.
उत्तर प्रदेश के इटावा में यादव कथावाचक के साथ घटित अमानवीय घटना को जातीय संघर्ष के रूप में इसीलिए उभारा जा रहा है, क्योंकि बिहार में चुनाव हैं. उत्तर प्रदेश में भले चुनाव दूर हों, लेकिन पूरी जमावट जातियों पर ही सिमटी हुई है. जो भी घटना हुई है वह निंदनीय है. किसी को भी किसी के साथ अमानवीय व्यवहार की अनुमति नहीं है. भले ही वह अपराधी हो.
पूरे घटनाक्रम में जो बातें सामने आ रही हैं. उनमें यादव कथावाचक द्वारा अपनी पहचान छुपाने का अपराध भी घटित होना बताया जा रहा है. उनके पास दो आधार कार्ड मिले एक में उनका नाम यादव के रूप में है और दूसरे आधार कार्ड में ब्राह्मण के रूप में अपना नाम उल्लेखित किया है.
यह निश्चित रूप से अपराध है. इसके लिए उन्हें कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा. लेकिन इसके बाद भी उनके साथ जिस तरह का सलूक किया गया यह सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता.
बिहार और उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति का गढ़ रहा है. देश के दूसरे राज्यों में इन्हीं दोनों राज्यों की जातीय राजनीति अब बढ़ रही है. हिंदू मुस्लिम की राजनीति विस्तारित होने के बाद जाति की राजनीति करने वाले दलों के सामने अस्तित्व की चुनौती आ गई है. पिछले लोकसभा में इस राजनीति को बढ़ाकर चुनावी लाभ हासिल किया गया है. इसीलिए अब कथावाचक की जाति कथा में भगवान को भी फंसाया जा रहा है.
यदुवंशी भगवान कृष्ण भारतीय संस्कृति के पुरुषोत्तम हैं. यादव और ब्राह्मणों के बीच सामाजिक रूप से कभी भी खुला तनाव नहीं देखा गया. निजी रूप से घटनाएं हो सकती हैं. कृष्ण भक्ति किसी जाति तक सीमित नहीं . है. दुर्भाग्यजनक स्थिति यह है, कि लोगों ने ईश्वर भी बांट दिए हैं. हमारे सामने तो रसख़ान की कृष्णभक्ति का अनुपम उदाहरण है.
भगवान राम ने कभी अपने नाम के आगे सिंह नहीं लिखा. इसी प्रकार कृष्ण ने अपने को यादव नहीं साबित किया. परशुराम ने कभी अपना सरनेम नहीं लिखा फिर भी इन सब को अलग-अलग जातियों ने अपना अपना भगवान मान लिया है. आज व्यवस्था समाज संचालित नहीं है, बल्कि सब कुछ राजनीति संचालित हो गया है. अब जो जातिय राजनीति बढ़ रही है, उसका एकमात्र कारण राजनीतिक ही प्रतीत होता है.
जातिगत जनगणना का राजनीतिक दबाव भी इसीलिए केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार किया गया, क्योंकि इसको नहीं मानने में उन्हें अपना राजनीतिक नुकसान दिखाई पड़ रहा था. जाति जनगणना की प्रक्रिया चालू हो चुकी है. इसका अंतिम परिणाम अगर विकास की दृष्टि से ही उपयोग में लाया जाएगा, तब तो यह देश के लिए हितकारी हो सकता है, लेकिन अगर इन आंकड़ों को राजनीति की भट्टी में चढ़ाया जाएगा तो फिर इससे राष्ट्रीय एकता प्रभावित हो सकती है.
कथावाचक ज्ञान के आधार पर बनता है. इसको जाति से नहीं जोड़ा जा सकता. राजनीति तो यहां तक होती है कि सरकारी मंदिरों में दलित पुजारी नियुक्ति को सामाजिक न्याय के रूप में दर्शाया जाता है. इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन जब इसमें नजरिया राजनीतिक होता है, तो फिर यह समाज के लिए घातक साबित होता है.
हर राजनीतिक दल एक दूसरे को धर्म और जाति की राजनीति के लिए आरोपित करते हैं. लेकिन कोई भी ऐसा दल नहीं है जो इनका राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग नहीं करता हो. यह किसी एक राज्य का भी मामला नहीं है. हर राज्य में एक जैसी ही जातीय राजनीति चल रही है.
कथा के बाद कांवड़ यात्रा रूट का विवाद चालू हो गया है. ढाबों के मालिकों और कर्मचारियों की पहचान तलाशी जा रही है. इसमें कोई संशय नहीं है, कि हर नागरिक को व्यवसाय और उपासना का अधिकार है. किसी की भी आस्था को चोट नहीं पहुंचाई जा सकती. पहचान छिपाकर व्यवसाय करना अपराध की श्रेणी में हो सकता है. कोई भी व्यक्ति अपने सही नाम और धर्म को पता कर भी अपना व्यवसायकर सकता है. हो सकता है, कुछ लोग जाति और धर्म के आधार पर उसके प्रतिष्ठान पर नहीं जाएं, लेकिन पहचान छुपाकर तो एक तरह से अपराध किया जाता है.
पूरे देश में विभाजन की ही बयार है. भाषा और जाति पर लोग बांटे जा रहे हैं. धर्म पर तो आतंकवादी भारत को बांट रहे हैं. आतंकवादी भारत को हिंदू और मुस्लिम की नजर से ही देखते हैं, लेकिन राजनीति धर्म के साथ जाति को भी लाभ का धंधा मानती है.
पहचान छुपा कर आतंकवादी हमला करते हैं. पहचान छुपा कर व्यवसाय करना भी एक तरह का आतंकवाद ही कहा जाएगा. किसी को भी अपनी पहचान छुपाने की क्या जरूरत है. राजनीति की आंधी में इस तरह के अपराधिक व्यवहार को तो दरकिनार कर दिया जाता है, लेकिन राजनीति लाभ के लिए जाति और धर्म को विभाजन के दांव पर खड़ा कर दिया जाता है.
पिछड़े से अति पिछड़े और दलित से अति दलित के राजनीतिक प्रयास भी ऐसे ही सोच का परिणाम है. अब तो संवैधानिक रूप से धीरे-धीरे ऐसे विचारों को मान्यता मिलने लगी है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षित पदों में कोटे के भीतर कोटा की कल्पना भी इसी दिशा को दिखाती है.
जाति कथा और जातिय समाजवाद केवल राजनीति में दिखाई पड़ता है. सामाजिक जीवन में तोजातियों में ही गैर-बराबरी के हिमालय खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं. गैर बराबरी मिटाना बातों में ज्यादा होता है, काम में तोइसकी गति अभी तक जहां पहुंची है,उससे बहुत कुछ हासिल नहीं हो पाया है.
जब भगवान ही सबको एक जैसा नहीं बनता, तो फिर इंसान सबको एक जैसा कैसे बना सकता है. यह तो केवल राजनीति की बातें हैं और राजनीति विभाजन बोती, उगाती, खाती और जीती है. इसको जितनी जल्दी देश समझ लेगा लोकतंत्र की मजबूती के लिए मतदान करेगा, उतनी जल्दी विकसित बन सकेगा.