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चुनाव के आसपास बढ़ते भाषाई विवाद

सार

​​​​​​​राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत किए गए चारों सदस्यों को पीएम ने स्वयं दूरभाष पर सूचना दी. पीएम की यह स्टाइल है. राष्ट्रपति को जब उम्मीदवार बनाया गया था, तब भी पीएम ने ही उन्हें सबसे पहले बताया था..!!

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विस्तार

    नव नियुक्त राज्यसभा सांसद उज्जवल निकम ने जो बताया, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री ने फोन पर सबसे पहले कहा कि मैं हिंदी में बात करूं या मराठी में. निगम के अनुसार पीएम ने मराठी में बात करके मनोनयन की जानकारी दी. महाराष्ट्र में इस समय मराठी पर विवाद चरम पर है. 

    दशकों पहले अलग हुए उद्धव और राज ठाकरे मराठी भाषा के नाम पर एक साथ आ गए हैं. महाराष्ट्र में नगरीय निकायों के चुनाव होने वाले हैं. मुंबई महानगर पालिका के संभावित चुनाव मराठी विवाद के पीछे हैं. शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने भी मराठी भाषा में बात कर महाराष्ट्र के लोगों को संदेश दिया.

    चुनाव के आसपास अक्सर भाषाई राज्यों में भाषा के विवाद उत्पन्न किए जाते हैं. दक्षिण भारत के राज्यों में तो यह विवाद चलते ही रहते हैं. महाराष्ट्र से अलग होकर गुजरात बना था. लेकिन गुजरात में भाषा को लेकर उतना विवाद नहीं है, जितना कि महाराष्ट्र में मराठी को लेकर है. व्यवसाय में जहां लाभ है, वहां भाषा भुला दी जाती है. 

    मुंबई में ही हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है. वहां बनी हिंदी की फिल्में पूरी दुनिया में हिंदी भाषा पहुंचाती हैं. तमिल और दूसरी भाषा की फिल्मों को भी हिंदी में डबकर इसलिए दिखाया जाता है, क्योंकि देश में हिंदी का बाजार ज्यादा है. जैसे बाजार लाभ की भाषा में सोचता है, वैसे ही सियासत भी लाभ की ही भाषा समझती है. 

    सियासत बातें संविधान की करती है, लेकिन लाभ के लिए आचरण संविधान विरोधी करने लगती है. मराठी भाषा के मामले में जिस तरह से मुंबई में हिंदी भाषियों को मारा-पीटा जा रहा है, वह न केवल अपराधिक कृत्य है, बल्कि संविधान विरोधी भी है.

    भारत का संविधान सभी लोगों को देश के किसी भी राज्य में किसी भी  स्थान पर रहने का, रोजगार करने का और जीवन यापन का अधिकार देता है. यही संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी अधिकार देता है. इसका मतलब है, कि कोई भी व्यक्ति देश के किसी भी हिस्से में रह सकता है और अपनी भाषा में अभिव्यक्ति का उसे अधिकार है. जो हिंदी भाषी मुंबई में रहते हैं, उन पर जबरदस्ती मराठी नहीं थोपी जा सकती. इसके उलट हिंदी देश की राजभाषा है. देश के सभी हिस्से में राजभाषा की शिक्षा त्रिभाषा फॉर्मूले में देना संविधान सम्मत है.

    मराठी विवाद उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे द्वारा मुंबई नगर पालिका चुनाव में राजनीतिक लाभ के लिए खड़ा किया जा रहा है. कोई भी ध्रुवीकरण शत प्रतिशत होता नहीं है. अगर मराठी ध्रुवीकरण भाषा के नाम पर कुछ सीमा तक हो भी जाता है, तो भी मुंबई में हिंदी भाषियों की संख्या पर्याप्त है. दोनों भाइयों को जितना मराठी भाषा के नाम पर एकजुटता लाभ पहुंचा सकती है, उतना ही हिंदी भाषियों में उनका जनाधार कमजोर होगा. इनका गठबंधन वैसे ही टूट गया है. मतलब कांग्रेस और एनसीपी मुंबई महानगर पालिका का अलग से चुनाव लड़ेंगी. यह सारे राजनीतिक गणित अभी धीरे-धीरे सामने आएंगे, लेकिन यह तो लगभग तय है कि कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन नहीं होगा.

    संविधान निर्माता भाषाई विवाद के दूरगामी दुष्परिणाम को जानते थे. शायद इसीलिए देश में ऐसी व्यवस्था की गई कि अगर भाषा के नाम पर राज्यों की राजनीति बहकने भी लगे तब भी राज्य की सरकार राष्ट्रीय उद्देश्य और लक्ष्य के अनुरूप काम करती रहेगी. सरदार वल्लभभाई पटेल ने अखिल भारतीय सेवाओं का जो स्ट्रक्चर खड़ा किया है,वह इतना मजबूत और प्रैक्टिकल है, कि कोई भी भाषा विवाद राज्य के प्रशासन को प्रभावित नहीं कर सकता है. 

    अगर भविष्य में ऐसी भी स्थिति बन जाए, कि भाषा के लिए सबसे अधिक आक्रामक राजनीति करने वाला नेता भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाए, तब भी राज्य प्रशासन को एकतरफा नहीं बनाया जा सकता. इसका कारण यह है, कि हर राज्य में अखिल भारतीय सेवाओं आईएएस और आईपीएस के कैडर में दो-तिहाई संख्या दूसरे राज्यों के अफसरों की रखी जाती है. 

    किसी भी राज्य में जितने आईएएस अफसर हैं. उनमें तीन में एक ही अफसर उस राज्य का होगा. बाकी दो अफसर दूसरे राज्यों के होंगे. इसका मतलब है कि जो दूसरे राज्यों के दो अफसर हैं वह या तो हिंदी, अंग्रेजी भाषा के होंगे या किसी भाषाई राज्य से संबंधित होंगे. अगर राज्य का पॉलिटिकल नेतृत्व क्षेत्रीय भाषा को आक्रामकता के साथ राजनीतिक उपयोग की कोशिश करेगा तो भी राज्य का दो तिहाई प्रशासन ऐसे अफसरों के कंट्रोल में रहेगा, जो मूल रूप से उस भाषा से बिलॉन्ग नहीं करते हैं. जब इस व्यवस्था को बनाया गया था, तब संविधान निर्माताओं ने सोच लिया था, कि भाषा विवाद कभी ना कभी राज्य प्रशासन को प्रभावित कर सकते हैं. 

    अगर देश में आज संघवाद मजबूती के साथ काम कर रहा है, तो उसका भी एक बड़ा कारण अखिल भारतीय सेवाओं का स्ट्रक्चर कहा जा सकता है. 

    हिंदी संविधान के अनुसार भारत की आधिकारिक भाषा है. अंग्रेजी को एक निश्चित समय के लिए स्वीकार किया गया था, लेकिन वह सरकारी भाषा का रूप ले चुकी है. मराठी भाषा पर जो विवाद खड़ा किया जा रहा है, उससे बड़े-बड़े भाषा विवाद पहले हो चुके हैं. कई बार तो ऐसा लगने लगा था, कि कहीं देश का विखंडन भाषा के नाम पर ना हो जाए. 

    आजादी के बाद शुरुआती दिनों में भाषा के नाम पर बहुत विवाद हुए. अब धीरे-धीरे हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है. हिंदी धीरे-धीरे देश के कोने-कोने में फैल रही है. इसका एक बड़ा कारण हिंदी सिनेमा और टेलीविजन के साथ ही विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों का आदान-प्रदान और संवाद माना जा सकता है.

    जिन राज्यों में पहले हिंदी भाषी अगर जाएं तो उनकी भाषा समझने वाला कोई नहीं मिलता था, वह स्थिति अब किसी भी राज्य में नहीं बची है. हिंदी भाषी पर्यटक भाषाई राज्यों में बड़ी संख्या में जाते हैं. उत्तर भारतीयों के चार धामों में से एक महत्वपूर्ण धाम रामेश्वरम तमिलनाडु में है. वहां उत्तर भारत के लोग तीर्थ यात्रा के लिए अनिवार्य रूप से जाते हैं. पहले वहां हिंदी भाषा समझने वाले नहीं मिलते थे, लेकिन अब केवल हिंदी भाषा जानने वाला संवाद शून्य नहीं रह सकता.

    भाषा के नाम पर एक नई जंग विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते भारत के लिए बाधक बन सकता है. भाषाई अंधभक्ति राज्य के हितों का संरक्षण नहीं कर सकती है. जिस तरह से हिंदी भाषी लोगों का आवागमन भाषाई राज्यों में हो रहा है, वह धीरे-धीरे भाषा के बैरियर को महत्वहीन कर देगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति से त्रिभाषा फॉर्मूला लागू हो चुका है, जो राज्य भाषाई कट्टरता से ज्यादा अपने युवाओं को देश में बेहतर अवसर दिलाने के लिए हिंदी की शिक्षा को भी प्रोत्साहित करेंगे, उसका राजनीतिक लाभ भविष्य में उन्हें अवश्य मिलेगा.

    हिंदी को प्राथमिकता देने के लिए भी आक्रामकता की जरूरत नहीं है, उसकी उपयोगिता को धीरे-धीरे बढ़ाते हुए स्वाभाविक स्वीकारोक्ति पर आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर है.