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प्रामाणिक दस्तावेज मान्य क्यों नहीं?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 03 Jul

सार

सर्वोच्च अदालत की निगरानी में असम और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में, प्रयोग के स्तर पर, एनआरसी की कवायद की गई थी..!!

janmat

विस्तार

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और एमआईएम नेता-सांसद ओवैसी के आरोप हैं कि भारत सरकार चोरी-छिपे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लागू करना चाहती है, नतीजतन मुसलमानों की एक अवांछित आबादी की नागरिकता रद्द की जा सकेगी। 

ममता बनर्जी ने बंगाल में एनआरसी लागू नहीं करने की घोषणा भी की है। नागरिकता का यह विवादित मुद्दा पुराना है। सर्वोच्च अदालत की निगरानी में असम और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में, प्रयोग के स्तर पर, एनआरसी की कवायद की गई थी। दरअसल यह न तो असंवैधानिक अभियान है और न ही मुसलमानों की नागरिकता रद्द की जा रही है। किसी भी सरकार को नागरिकता छीनने का अधिकार नहीं है। यह सर्वोच्च अदालत के स्तर पर कई बार दोहराया जा चुका है। 

गौरतलब यह भी है कि भारत सरकार ने एनआरसी का निर्णय अभी तक नहीं लिया है। फिलहाल जनगणना और जातीय गणना के विराट अभियान सामने हैं, जिन्हें मार्च-अप्रैल, 2027 तक पूरा करने के लक्ष्य तय किए गए हैं। वैसे एनआरसी जनगणना का ही एक प्रारूप है। यदि जनगणना पर आपत्ति नहीं है, तो एनआरसी पर चीखा-चिल्ली क्यों मचाई जा रही है? दरअसल हमारा विषय यह है कि एक औसत भारतीय की ‘नागरिकता’ के तय मानक क्या हैं? यह देश अधिकतर गांवों, पिछड़े इलाकों और बाढ़-बारिश से ग्रस्त क्षेत्रों में बसने को बाध्य है। 

‘नागरिकता’ के लिए कई दस्तावेज अपेक्षित हैं, जिन्हें पेश करना मुश्किल है। उन संदर्भों में अहम सवाल है कि ‘आधार कार्ड’ नागरिकता का पात्र,मानक आधार क्यों नहीं है? जनवरी, 2009 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण’ का गठन किया था और ‘इंफोसिस’ के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणि को उसका प्रथम अध्यक्ष बनाया गया था। ‘आधार कार्ड’ सितंबर, 2010 में लागू हो गया। आज देश के 125 करोड़ से अधिक लोगों के पास आधार कार्ड है। उसमें नाम, पिता का नाम, जन्म-तिथि, पता और व्यक्ति के बॉयोमीट्रिक चिह्न आदि सब कुछ दर्ज हैं।

प्राधिकरण के नाम में भी ‘पहचान’ शब्द जुड़ा है। आज आयकर रिटर्न, बैंक खाते के संचालन, सरकार की विशेष सामाजिक सुरक्षा वाली योजनाओं का लाभ, बच्चों का स्कूल में दाखिला, म्यूचुअल फंड्स अथवा शेयर बाजार में निवेश करने, सिम कार्ड खरीदने, नौकरी में प्रवेश करते समय ‘आधार कार्ड’ का प्रस्तुतीकरण अनिवार्य है। सरकार ने ‘पैन कार्ड’ और बैंक खातों को आधार से अनिवार्य तौर पर लिंक करा दिया है। अब ‘मतदाता पहचान पत्र’ को भी आधार कार्ड से जोडऩे पर विचार किया जा रहा है। 

यदि आधार कार्ड इतना महत्वपूर्ण और प्रामाणिक दस्तावेज है, तो उसके आधार पर किसी की नागरिकता तय करने में क्या दुविधा है? ‘मतदाता कार्ड’ भी अत्यंत मौलिक, साक्ष्य वाला दस्तावेज है। उसे नागरिकता का आधार मानक क्यों नहीं माना गया है? सरकार दलीलें देती रही है कि आधार कार्ड और मतदाता कार्ड एक निश्चित गिरोह द्वारा फर्जी बनाए जाते रहे हैं। यह सरकार की ही नाकामी है। फर्जी और नकली तो पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड भी बन रहे हैं। नकली पहचान बना कर आतंकवादी संसद भवन में घुस गए थे। सरकार इन नकलबाजों को क्यों नहीं रोक पाई है? यह सरकार के लिए गंभीर चुनौती भी है। 

देश में करोड़ों घुसपैठिया बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमान व्याप्त हैं, दशकों से सक्रिय हैं, उनके पास फर्जी कार्ड भी होंगे, वे वोट बैंक भी हैं, कमोबेश भाजपा-एनडीए सरकार उन्हें देश से बाहर क्यों नहीं कर पाई? बहरहाल किस्तों में ये अभियान जरूर दिखाई देते हैं। सरकार ने जिन दस्तावेजों को नागरिकता के आधार के तौर पर स्वीकार किया है, वे प्रवासी नौकरी-मजदूरी करने वालों के लिए मुश्किल हो सकते हैं। 

जन्म प्रमाणपत्र स्कूल-कॉलेज तक तो मिल सकते हैं, उसके बाद कामकाजी जिंदगी शुरू होती है, ऐसे प्रमाणपत्र कौन लेकर चलता है? माता-पिता के जन्म प्रमाणपत्र कहां से लाएं? मूल निवास छोड़ कर व्यक्ति दिल्ली या किसी अन्य महानगर में काम कर रहा है, मूल निवास पर माता-पिता भी दिवंगत हो चुके हैं, तो वह प्रमाणपत्र कहां से पेश किया जा सकता है? ‘आधार कार्ड’ प्रामाणिक दस्तावेज लगता है। उसे मान्यता क्यों नहीं?