कार्य में कुशलता ही ""योग: कर्मसु कौशलम्'' नहीं है – जाने गीता के योग का सही मतलब |


स्टोरी हाइलाइट्स

सामान्य रूप में हम इस श्लोक का अर्थ यह लगाएंगे कि हमें अपना काम बेहतर ढंग से करना चाहिए लेकिन गीता जी  के ..."Yogah Karmasu Kaushalam"..""योग: कर्मसु कौशलम्''

"योग: कर्मसु कौशलम्' ......."Yogah Karmasu Kaushalam" सामान्य रूप में हम इस श्लोक का अर्थ यह लगाएंगे कि हमें अपना काम बेहतर ढंग से करना चाहिए लेकिन गीता जी  के इस श्लोक का अर्थ इस से भी गहरा है , आइए जानते हैं इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण ने गीता में हम सब से क्या कहने की कोशिश की है |   यदि हम "योग: कर्मसु कौशलम्' को सिर्फ हर कर्म में बेहतरी से जोड़कर देखें तो हम इसके वास्तविक  संदेश से बहुत दूर रह जाते हैं | गीता हमें कर्म में लगे रहने की सलाह देती है लेकिन गीता हमें कर्म के माध्यम से मुक्ति का मार्ग भी दिखाती है | भगवान खुद अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं, अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं रखना है। इसी तरह हमे अपना कर्म बिना फल कि इच्छा के करते जाना है ,  हार या जीत कृष्ण यानि परमात्मा तय करते हैं , अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के मुताबिक़ कर्म करना है यही वास्तविक योग है। कृष्ण गीता में अर्जुन को इस श्लोक के माध्यम से आसक्ति को त्यागकर , मनचाहे और अनचाहे परिणामो में सम-भाव रहकर कर्म करने कि सलाह देते हैं | कृष्ण ने कहा है कि कर्म को करते समय किसी तरह कि कामना से परे रह जाना ही योग है , समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है  यानी उनसे मुक्त हो जाता है। यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है जो कर्मबंध से छूटने का उपाय है | हमे क्या करना होगा ? कृष्ण कहते हैं कि अन्तःकरण को शुद्धि रखो , ज्ञानप्राप्ति करते रहो, पुण्य पाप कि चिंता छोड़ अपने धर्म के मुताबिक कर्म करो  एसा करने वाला इसी लोक में कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। इसलिये समत्वबुद्धि रूप योग की प्राप्ति के लिये कोशिश करना चाहिए | जो कर्म, मनुष्य को स्वभाव से ही बांधने वाले हैं, वे ही मुक्ति देने वाले हो जाएं – यही कर्मों में कुशलता है। कर्म करने की ऐसी ही चतुरता को योग कहते हैं कि मनुष्य कर्म करता भी जाए और उसके बंधन में भी न फंसे। काजल की कोठारी में जाकर बिना कालिख लगाए निकल आना ही बड़ी भारी चतुरता है। बिना आसक्ति रखे कर्म करना ही योग है, जिससे कारण कर्म के फल अर्थात् भोग से सम्बन्ध छूट जाता है और अन्तत: मुक्त होने के कारण दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। इसी कारण कृष्ण ने ‘योग’ को दु:ख के संयोग का वियोग भी ही माना है   –तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।