कैसे और कहाँ से हुयी भारतीय दर्शन की शुरुआत


स्टोरी हाइलाइट्स

 हमें बौद्धकाल में दार्शनिक, चिन्तन की प्रगति, साधारणतः, किसी ऐतिहासिक परंपरा पर होनेवाले किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही सम्भव होती है, जब कि मनुष्य-समाज पीछे लौटने को और उन मूलभूत प्रश्नों को एक बार फिर उठाने के लिए बाध्य हो जाता है जिनका समाधान उसके पूर्वपुरुषों ने प्राचीनतर योजनाओं के द्वारा किया था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के विप्लव ने वह, विप्लव अपने-आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया, उसने कट्टरता की पद्धति को अन्त में उड़ाकर ही दम लिया तथा एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने में सहायता दी। महान् बौद्ध विचारकों के लिए तर्क ही ऐसा मुख्य शस्त्रसागर था जहां सार्वभौम खंडनात्मक समालोचना के शस्त्र गढ़कर तैयार किए गए थे। बौद्ध धर्म ने मस्तिष्क को पुराने अवरोधों के कष्टदायक प्रभावों से मुक्त करने में विरेचन का काम किया है।

भारत में वैदिक काल से ही  दर्शन का प्रादुर्भाव दिखाई देने लगता है,। भारतीय दर्शनों में छः दर्शन अधिक प्रसिद्ध हुए-महर्षि गौतम का ‘न्याय’, कणाद का ‘वैशेषिक’, कपिल का ‘सांख्य’, पतंजलि का ‘योग’, जैमिनि की पूर्व मीमांसा अथवा ‘वेदान्त’। ये सब वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। जो दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं वे आस्तिक कहलाते हैं और जो स्वीकार नहीं करते उन्हें नास्तिक की संज्ञा दी गई है। किसी भी दर्शन का आस्तिक या नास्तिक होना परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्मम न होकर वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर है। यहाँ तक की बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों का भी उद्गम उपनिषदों में है; यद्यपि उन्हें सनातन धर्म नहीं माना जाता है, क्योंकि वे वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते।  हमें बौद्धकाल में दार्शनिक, चिन्तन की प्रगति, साधारणतः, किसी ऐतिहासिक परंपरा पर होनेवाले किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही सम्भव होती है, जब कि मनुष्य-समाज पीछे लौटने को और उन मूलभूत प्रश्नों को एक बार फिर उठाने के लिए बाध्य हो जाता है जिनका समाधान उसके पूर्वपुरुषों ने प्राचीनतर योजनाओं के द्वारा किया था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के विप्लव ने वह, विप्लव अपने-आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया, उसने कट्टरता की पद्धति को अन्त में उड़ाकर ही दम लिया तथा एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने में सहायता दी। महान् बौद्ध विचारकों के लिए तर्क ही ऐसा मुख्य शस्त्रसागर था जहां सार्वभौम खंडनात्मक समालोचना के शस्त्र गढ़कर तैयार किए गए थे। बौद्ध धर्म ने मस्तिष्क को पुराने अवरोधों के कष्टदायक प्रभावों से मुक्त करने में विरेचन का काम किया है। कुमारिल भट्ट, जिनकी सम्मति इन विषयों में प्रामाणिक समझी जाती है, स्वीकार करते हैं कि बौद्ध दर्शनों ने उपनिषदों से प्रेरणा ली है, और वे यह युक्ति देते हैं कि इनका उद्देश्य अत्यन्त विषय-भोग पर रोकथाम लगाना था। वे यह भी घोषणा करते हैं कि ये सब प्रामाणिक दर्शन हैं। वेद को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि आध्यात्मिक अनुभव से इन सब विषयों में शुष्क तर्क की अपेक्षा अधिक प्रकाश मिलता है। वास्तविक तथा जिज्ञासा-भाव से निकाला हुआ संशयवाद विश्वास को उसकी स्वाभाविक नीवों पर जमाने में सहायक होता है। नीवों को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम महान् दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट हुआ, जिसने छः दर्शनों को जन्म दिया जिनमें काव्य तथा धर्म का स्थान विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने लिया रूढ़िवादी सम्प्रदाय अपने विचारों को संहिताबद्ध करने तथा उसकी रक्षा के लिए तार्किक प्रमाणों का आश्रय लेने को बाध्य हो गए। दर्शनशास्त्र का समीक्षात्मक पक्ष उतना ही महत्त्वपूर्ण हो गया है कि जितना कि अभी तक प्रकल्पनात्मक पक्ष था। दर्शनकाल से पूर्व के दार्शनिक मतों द्वारा अखण्ड विश्व के सम्बन्ध में कुछ सामान्य विचार तो अवश्य प्राप्त हुए थे, किन्तु यह अनुभव नहीं हो पाया था कि किसी भी सफल कल्पना का आधार ज्ञान का एक समीक्षात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिए। समालोचकों ने विरोधियों को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वे अपनी प्रकल्पनाओं की प्रामाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे सिद्ध न करें, बल्कि ऐसी स्वाभाविक पद्धतियों द्वारा सिद्ध करें जो जीवन और अनुभव पर आधारित हों कुछ ऐसे विश्वासों के लिए, जिनकी हम रक्षा करना चाहते हैं, हमारा मापदण्ड शिथिल नहीं होना चाहिए। इस प्रकार आत्मविद्या अर्थात् दर्शन को अब आन्वीक्षिकी अर्थात् अनुसंधानरूपी विज्ञान का सहारा मिल गया। दार्शनिक विचारों का तर्क की कसौटी पर इस प्रकार कसा जाना स्वाभावतः कट्टरतावादियों को रुचिकर नहीं हुआ। श्रद्धालुओं को यह निश्चित ही निर्जीव लगा होगा, क्योंकि अंतः- प्रेरणा के स्थान पर अब आलोचनात्मक तर्क आ गया था। चिन्तन की उस शक्ति का स्थान जो सीधी जीवन और अनुभव से फूटती है, जैसी कि उपनिषदों में, और आत्मा की उस अलौकिक महानता का स्थान जो परब्रह्म का दर्शन और गान करती है, जैसा कि भगवद्गीता में है, कठोर दर्शन ले लेता है। इसके अतिरिक्त, तर्क की कसौटी पर पुरानी मान्यताएं निश्चित ही खरी उतर सकेंगी यह भी निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता था। इतने पर भी उस युग की सर्वमान्य भावना का आग्रह था कि प्रत्येक ऐसी विचार धारा को, जो तर्क की कसौटी पर खरी उतर सके ‘दर्शन’ के नाम के ग्रहण करना चाहिए। इसी कारण उन तभी तर्कसम्मत प्रयासों को जो विश्व के सम्बन्ध में फैली विभिन्न बिखरी हुई धारणाओं को कुछ महान् व्यापक विचारों में समेटने के लिए किए गए, दर्शन की संज्ञा दी गई। ये समस्त प्रयास हमें सत्य के किसी अंश को अनुभव कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। इससे यह विचार बना कि प्रकट रूप में पृथक् प्रतीत होते हुए भी, ये सब दर्शन वस्तुतः एक ही बृहत् ऐतिहासिक योजना के अंग हैं। और जब तक हम इन्हें स्वत्रन्त्र समझते रहेंगे, तथा ऐतिहासिक समन्वय में इनकी स्थिति पर ध्यान नहीं देंगे, तब हम इनकी वास्तविकता को पूर्णरूप से हृदयंगम नहीं कर सकते। तर्क की कसौटी को स्वीकार कर लेने पर काल्पनिक मान्यताओं के प्रचारकों का विरोध नरम पड़ गया और उससे यह स्पष्ट हो गया कि उनका आधार उतना सशक्त व सुदृढ़ नहीं था और उन विचारधाराओं को दर्शन का नाम देना भी ठीक नहीं था। किन्तु भौतिकतावादियों, संशयवादियों और कतिपय बौद्ध धर्मानुयायियों के विध्वंसात्मक जोश ने निश्चयात्मक ज्ञान के आधार को ही नष्ट कर दिया। हिन्दू मानस इस निषेधात्मक परिणाम को कभी शांति से ग्रहण नहीं कर पाया। मनुष्य संशयवादी रह कर निर्वाह नहीं कर सकता। निरे बौद्धिक द्वन्द से ही काम नहीं चल सकता। वाद-विवाद का स्वाद मानव की आत्मिक भूख को शान्त नहीं कर सकता। ऐसे शुष्क तर्क से कुछ लाभ नहीं जो हमें किसी सत्य तक न पहुँचा सके। यह असम्भव था कि उपनिषदों के ऋषियों जैसे आत्मननिष्ठ महात्माओं की आशाएँ और महत्वकांक्षाएँ, तार्किक समर्थन के आभाव में यों ही नष्ट नहीं हो जाती। और यह भी असंभव था कि शताब्दियों के संघर्ष और चिंतन से भी मानव समस्या के समाधान की दिशा में कुछ आगे न जाता। एक मात्र निराशा में ही उसका अन्त नहीं होने दिया जा सकता। तर्क को भी अन्ततोगत्वा श्रद्धा का ही आश्रय ढूंढ़ना पड़ता है। उपनिषदों के ऋषि पवित्र ज्ञान के शिक्षणालय के महान शिक्षक हैं। वे हमारे आगे ब्रह्मज्ञान व आध्यात्मिक जीवन की सुन्दर व्याख्या रखते हैं। यदि निरे तर्क से मानव यथार्थ सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता तो निश्चय ही उसे उन ऋषियों के महान लेखों की सहायता प्राप्त करनी चाहिए, जिन्होंने आध्यात्मिक ध्रुव सत्य को प्राप्त करने का दावा किया है। इस प्रकार जो कुछ श्रद्धा के द्वारा स्वीकार किया गया था उसकी वास्तविकता को तर्क द्वारा सिद्ध करने के प्रबल प्रयास किए गए। यह ढंग बुद्धि, संगत नहीं हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि दर्शन उस प्रयास का ही दूसरा नाम है जो मानव समाज के बढ़ते हुए अनुभव की व्याख्या के लिए किया जाता है। किन्तु जिस खतरे से हमें सावधान रहना होगा वह यह है कि कहीं श्रद्धा को ही दार्शनिक विज्ञान का परिणाम स्वीकार न कर लिया जाए। साभार: मिथिलेश वामनकर