“जीवन में कुछ और बहुत है” -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

Visiting nature in nature and in itself is the ultimate state of human consciousness in Indian philosophy of life.

“जीवन में कुछ और बहुत है” कवि चौ. मदनमोहन समर की अद्भुत कृति -दिनेश मालवीय प्रकृति में स्वयं के और स्वयं में प्रकृति के दर्शन करना ही भारतीय जीवन-दर्शन में मानव-चेतना की परम अवस्था यह कही गयी है. इस स्थिति में मानव को कोई पराया नहीं दिखायी देता. वह स्वयं को प्रकृति के सभी अवयवों के साथ एकाकाकार अनुभव करता है. प्रकृति के सौन्दर्य और उसकी अद्भुत छटाओं को अनेक कवियों ने बहुत सुन्दरता के साथ अभिव्यक्त किया है. हिन्दी कवियों में कविवर सुमित्रानंदन पन्त और अयोध्या सिंह उपाद्याय ‘हरिओध’ जैसे कवियों को इस कला में अद्भुत श्रेष्ठता हासिल थी. लेकिन प्रकृति की आत्मा में जाकर उसके साथ एकाकार होकर उसका स्वर बनने वाले पहले कवि, वर्तमान वाचिक काव्य-परम्परा के कवि चौधरी मदनमोहन समर ही कहे जायेंगे. उनका काव्य-संग्रह “जीवन में कुछ और बहुत है” पढने का सुअवसर मिला. सामान्यत: किसी काव्य-संग्रह को पढने बैठो तो एक बार में बमुश्किल पाँच-सात कविताएँ पढने के बाद ऐसा लगने लगता है कि शेष कविताएँ बाद में पढेंगे. लेकिन इस काव्य-संग्रह के मामले में मेरे साथ यह अपवाद हुआ. हर कविता को पढने के बाद दूसरी कविता को पढने की तीव्र लालसा हुई और मैं इसे तीन दिन में ही पढ़ गया. कवि ने प्रकृति के साथ एकात्मता स्थापित कर जिस गहरे भावबोध के साथ ये कविताएँ लिखी हैं, वह बहुत आह्लादकारी हैं. मैं तो कहूँगा कि ये कविताएँ लिखी नहीं गयी हैं, स्वत:स्फूर्त हैं. जब वृक्ष पर लिखा तो स्वयं वृक्ष हो गये, जब नदी पर लिखा तो स्वयं नदी हो गये, पक्षी पर लिखा तो स्वयं पक्षी हो गये, प्रकृति के किसी भी अवयव पर लिखा तो उसके ही रूप हो गये. वे उनके प्रवक्ता नहीं बल्कि स्वयं वही हो गये. इसी तरह, श्रंगार, प्रेम, रिश्तों पर उनकी कविताओं में गहन अनुभूति ह्रदय की गहराई में उतर जाती है. इन कविताओं का मूल स्वर यही है कि तथाकथित विकास के नाम पर प्रकृति का जो अंधाधुंध विनाश किया जा रहा है, वह आने समय में स्वयं हमारे विनाश का कारण बनने वाला है. श्रृष्टि सिर्फ मानव के लिए नहीं है. इसमें हर जीव-जंतु, पेड़-पौधों सहित सभी को पूरी आज़ादी से जीने का हक़ है. समरजी की पूरी पुस्तक का सन्देश यही है कि हम रोजमर्रा की उथली बातों में पूरा जीवन गुजारते हुए, जीवन की उन चीजों और भावों को महसूस करने से चूक रहे हैं, जो हमारे जीवन को सही अर्थों में सार्थक बनाती हैं. बैतूल में एक बरगद का पेड़ काटे जाने की जानकारी मिलते ही, वह पेड़ के नीच जाकर बैठे और पेड़ की आत्मा में समाकर वहीँ एक सुंदर कविता की रचना की- “अपना किससे बैर रहा है...” इस कविता की गहराई को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है. यह गूंगे के गुड़ की तरह है- जो पढ़े या उनके मुख से सुने वही इसका सही रसपान कर सकता है.  “मरती हुयी नदी हूँ मैं” में कवि नदी की आत्मा में समा गया और नदी की पीड़ा का ऐसा मार्मिक शब्द-चित्रण किया, जिसकी मिसाल कहीं और मिलना मुश्किल है. “सूरज क्यों आँख दिखाता है” में उन्होंने अनेक ऐसे शब्द-दृश्य उपस्थित किये हैं, जो उनके भावों और विचारों के साथ ही अवलोकन की बारीकी का परिचय देते हैं. किस पंक्ति को उद्धृत करूँ, किसको नहीं, इसी ऊहापोह में कुछ भी उद्धृत नहीं कर पाया. हर पंक्ति उद्धृत करने योग्य है. “चिड़िया चीं-चीं करती आना”, “रहने दो मत रोपो पौधा”, “हम आये हैं देश तुम्हारे”, “हमें हमारी हस्ती दे दो” जैसी कविताएँ प्रकृति से जुड़ कर सृजित अनूठी कविताएँ हैं. गाँवों से “भारतीयता” यानी उनकी आत्मा खो जाने की स्थिति का उन्होंने “कहते हैं वह एक गाँव था” में बहुत मार्मिक वर्णन किया है. “मैंने आँख अभी-अभी खोली हैं” भी बहुत सुंदर कविता है. “ढूंढ रहा हूँ रामदीन को” में रामदीन सब्जी विक्रेता के माध्यम से उन्होंने भारतीय देहात की पूरी संस्कृति और उसमें आयी विकृतियों को लाजबाव ढंग से उकेरा है. कवियों में प्राय: गाँव को रूमानी ढंग से और शहरों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति आमतौर पर देखी जाती है. लेकिन समरजी ने “मैं शहर हूँ” कविता में शहर की अच्छी बातों और गाँव से रोजी-रोटी की तलाश में आने वाले लोगों को वह किस प्रकार खुली बाहों से अपनाता है, इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है. “बंदी जीवन कैसे काटूं” में पिंजरे के तोते की व्यथा और स्वतंत्रता के महत्त्व को रेखांकित किया गया है. कवि का बहुआयामी होना ही उसकी सिद्धत्व का प्रमाण है. मंचों पर वह ओज का साकार रूप होते हैं. इस कविता में उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं. इस कविता-संग्रह में प्रकृति की प्रमुखता के साथ ही व्यक्तिगत रिश्तों पर भी उनकी कलम ने बहुत सराहनीय सृजन किया है. “सुनोजी” कविता में जीवन की आपाधापी में गृहस्थ जीवन के अनमोल पलों को खोने का विवरण दिल को भीतर तक छू लेता है. “बबूल” में उन्होंने बबूल के सकारात्मक पक्ष और मनुष्य को सही रास्ता दिखने में उसकी भूमिका को रखांकित किया है. “मेरे बाबा” कविता हर किसीको अपने पिता की याद दिलाकर उसकी आँखें नाम करने की सामर्थ्य रखती है. “बस इतना सा हिस्सा दे दो” भी पारिवारिक जीवन और संबंधों पर एक अद्भुत कविता है. “अपना घर”, “शब्दों से करने चर्चाएँ”, “कुकरू”, “डूब रहे हरसूद”, “ नव अंकुर की पंखुरी बैठा”, “गुरुवर बोलो किसे पढ़ते”, “बिना ऊर्जा कल क्या होगा?”, “ मैं पुरखा हूँ”, “तस्वीरों के पार”, “आज के गाँव”  भी अन्य कवितओं से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं. कुल मिलकर “जीवन में कुछ और बहुत है” वर्तमान हिन्दी साहित्य की एक बहुमूल्य रचना है. हर कविता की भाषा बहुत सरल और प्रांजल है. इसे हर साहित्य और कविता-प्रेमी के साथ-साथ प्रकृति तथा जीवन-मूल्यों के प्रति सजग व्यक्ति को पढ़ना चाहिए. इन कविताओं की एक बड़ी विशेषता यह है कि ये लम्बी होने के बाबजूद कहीं भी बोझिल नहीं होतीं. या पुस्तक “अमेजन” से ऑनलाइन मंगवाई जा सकती है.