साहित्य से दूर होता आज का युवावर्ग और कुछ चिंताएं


स्टोरी हाइलाइट्स

युवा वर्ग किसी भी समाज का और राष्ट्र का कर्णधार होता है, भावी का निर्माता होता है. समाज में वह नेता, शासक के रुप में हो या साहित्यकार, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक...

साहित्य से दूर होता आज का युवावर्ग और कुछ चिंताएं युवा वर्ग किसी भी समाज का और राष्ट्र का कर्णधार होता है, भावी का निर्माता होता है. समाज में वह नेता, शासक के रुप में हो या साहित्यकार, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक के रुप में चाहे वह कोई उपाधि को क्यों ना हासिल कर ले लेकिन इन सबसे उपर अपनी सभ्यता,संस्कृति,कला और ज्ञान की विशेष परंपराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे लेकर जाना होगा और यही उसका दायित्व भी है. युवा नाम ही उर्जावर्धक है. नेताजी अपनी युवावस्था में ही ललकार के कहते है -तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आझादी दूंगा.स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को संबोधित किया, हमारे स्वतंत्र सेनानी वीर जवानों के जोश से भरे हुए देश में पैदा होने वाले आज के युवा कहीं अपनी संस्कृति से तो, कहीं अपने जीवनमूल्यों को खोते हुए द्रष्टिगत हो रहे हैं. क्या कारण है इन सब के पीछे युवा कमजोर हो गया है? या निराश? जीवन का पाठ पढाने वाले साहित्य से तो और भी दूर हो गया है. उसकी सकारात्मक सोच कहीं दूसरी गली में मूड रही है. आज का युवा चाहता है उंची उडान भरना लेकिन बहुत ही जल्द, बिना संघर्ष के नाम शोहरत सब कमाना चाहता है. इंटरनेट, टेलिविजन, सिनेमा ने आधा अधूरा जो ज्ञान दिया उससे गुमराह होता चला गया है. रातोरात अमीर बनने का सपना संजोने लगा. परिणाम स्वरुप अपराध, शोषण, आतंकवाद, अशिक्षा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार बढने लगे. बेशक आज के युग में पैसा का ही बोलबाला है. सब कमाना चाहते हैं, जब कोई छात्र कहता है कि ये कबीर,तुलसीदास,सूरदास,मीरा हमें जोब दिलायेंगें? हमें अच्छी नौकरी दिला पायेंगें? सवाल है उच्च शिक्षा के बाद उसे योग्य कार्य मिले. हमारी यह भी एक जिम्मेदारी है कि समाज में सही और आदर्श नागरिक तैयार करने के लिए उसे मानवीय मूल्यों को भी सिखाएं. आज कल के मां बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं. साहित्य जो जीवन का पाठ पढाता है, उसे तुच्छ मान लिया है. भाषाओं के प्रति उदासीनता और लिखा हुआ साहित्य पढने वाला वर्ग धीरे- धीरे कम हो रहा है.वोट्सअप,फेसबुक,गुगल सर्च कर के युवा वर्ग जो अधिक व्यस्त रहता है, लेकिन पुस्तकों से उतना ही दूर होता गया है.आज की पीढी को बेहतर इंसा बनाने के लिए हमें उसे साहित्य की ओर मोडना होगा. हिंदी,अंग्रेजी,गुजराती,संस्कृत या कोई भी भाषा जो हमें मां के जैसा मधुर संदेश देती है, सत्यम, शिवम, सुंदरम की परिकल्पना है ये साहित्य. और साहित्यकार कांता संमित उपदेश देता है.जैसे मां अपने बच्चे को चोकलेट की लालच में कडवी दवाई पीला देती है. रोबोट बना रहे हैं हम, चांद और मंगल पे जाने की तैयारी भी कर ली लेकिन आज का बेटा अपने मां और बाबा को नहिं रख पाता उसके लिए वृद्धाश्रम ढूंढता है.भाई- भाई का खून करता है. जिस विषयों को (यानी साहित्य)पढने के बाद उसे दूसरों को बताने में संकोच होता है वही साहित्य उसे मानवता के उच्च शिखर पर ले जायेगी. भारतीय समाज और साहित्य का गहरा संबंध है और दोनों एक दूसरे के पूरक है. समाज शरीर है, तो साहित्य उसकी आत्मा है. साहित्य मानव मस्तिष्क से उत्पन्न होता है. साहित्य मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करता है.मनुष्य न तो समाज से अलग हो सकता है और न साहित्य से. मनुष्य का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन निर्वहन भी समाज में ही होता है. साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू है. साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है. समाज की बडी चिंता यही है कि युवा धन को सही मार्ग पर कैसे लेकर जाएं. परिवार से भी उसे साहित्य की ओर बढने का कम प्रोत्साहन मिलता है.ऐसे वक्त में शिक्षा ही कुछ मार्ग दिखा सकती है, सही मार्गदर्शन कर सकती है.चिंताएं- युवा वर्ग को रोजगार की चिंताएं साहित्य से प्राप्त की(उच्च)डिग्री से योग्य नौकरी नहीं मिलने की शिकायत साहित्य को तकनीकि से जोडने का अभाव कार्यशालाएं और वर्कशोप में सही तरीके से आयोजन हो जो सही रुप में सार्थक बने.  पुस्तकों से परिचय और जानकारी का अभाव समय -समय पर अभ्यास क्रम में बदलाव में निरसता इंटरनेट पर सभी सामग्री उपलब्ध करा के ई बुक से जोडने के प्रयास को बढावा देकर या ऐसा कार्य खुद आज के युवा छात्रों को सोंपकर साहित्य की ओर झुकाव पैदा कर सकते है. लघुताग्रंथी जो उसके मन में होती है उसे दूर करने का प्रयास शिक्षक द्रारा होना चाहिए. साहित्य के साथ ज्ञान -विज्ञान और तकनीकि को जोडकर द्र्श्य- श्रव्य माध्यमों के प्रयोग से साहित्य को रुचिकर बनाना