पत्नी के हठयोग में डूबे उद्धव ठाकरे


स्टोरी हाइलाइट्स

महाराष्ट्र में सियासी बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा. शिवसेना ने एकनाथ शिंदे को विधायक दल के नेता के पद से हटा दिया है. शिंदे बागी विधायकों के साथ सूरत में हैं..!

"राजेश सिरोठिया"

पत्नी रश्मि ठाकरे के हठ के आगे उद्धव ठाकरे ने बालासाहब ठाकरे की विरासत को डुबा दिया। पार्टी के दो तिहाई से ज्यादा विधायकों की बगावत के बाद बड़ी मासूमियत के साथ मुख्यमंत्री और शिवसेना अध्यक्ष के पद को छोड़ने का भावनात्मक दांव चलने से अब कुछ नहीं होने वाला।

आज जो लोग शिवसेना की बगावत में भाजपा को विलेन बनाने की मुहिम चला रहे है, उन्हें थोड़ा पीछे झांकने की जरूरत है। फिर उन्हें पता चल जाएगा कि शिवसेना सहानुभूति की पात्र है या फिर जैसा बोया वैसा काटने की नियति की शर्त है।

शिवसेना ने 2019 में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और सवा सौ से ज्यादा सीटें हासिल की। शिवसेना ने जीती सिर्फ 53। भाजपा ने डेढ़ सौ से पास सीटें लड़ने के बावजूद 107 सीटें हासिल की। चुनाव पूर्व गठबंधन के नाते महाराष्ट्र में सरकार भाजपा-शिवसेना की बननी थी। लेकिन नतीजे आते ही शिवसेना ने पहली बार चुनाव जीते उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने की शर्त ठोंक दी।

जिसे भाजपा किसी भी सूरत में नहीं मानने वाली थी। बाला साहब ठाकरे के वक्त में ही यह तय हो गया था कि दोनों दलों में जिसके ज्यादा विधायक होंगे उसका ही विधायक बनेगा। उनके बनाए फार्मूले के तहत ही मनोहर जोशी शिवसेना से और देवेंद्र फडनवीस भाजपा से मुख्यमंत्री बने।

यदि उद्धव खुद मुख्यमंत्री बनने की बात कहते तो शायद भाजपा मान ही जाती लेकिन भाजपा के सामने आदित्य को मुख्यमंत्री बनाने का जिद करने वाले उद्धव ठाकरे ने एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाकर खुद मुख्यमंत्री बनने को तैयार हो गए।

यानि जो शख्स कभी पार्षद का चुनाव भी नहीं लड़ा वह सीधे मुख्यमंत्री बन बैठा। इस पूरे घटनाक्रम के पीछे उद्धव नहीं बल्कि उनकी तेजतर्रार पत्नी रश्मि थीं। यह उनकी ही हठ थी कि शिवसेना को भाजपा से पिंड छुड़ाकर अपनी अलग हस्ती बनाना चाहिए।

इसी के चलते हिंदुत्व के मूल पिंड पर खड़ी रहने वाली शिवसेना उस कांग्रेस और एनसीपी की गोद में जा बैठी जिन्हें वह पानी पी पीकर सेकुलरवादी कहकर कोसती थी। उसने अपना विचार खो दिया। एनसीपी और कांग्रेस की तो बांछें ख़िल गई।

उन्होंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि चुनाव के पहले गठबंधन करने वाली पार्टियों को एक धड़ा उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का मौका दे देगा। बहरहाल किसी तरह ढाई साल तो गुजर गए। लेकिन ढाई साल बाद होने वाले चुनावों की चिंता शिवसैनिकों को परेशान कर रही थी।

हिंदुत्व के जिस मूलपिंड पर खड़े होकर वह इन कथित सेकुलरवादियों से जूझती थी, वह आखिर किस मुंह से जनता के सामने जाएंगे? शिवसेना के सबसे वफादार सैनिक एकनाथ शिंद को इसी बात ने शिवसेना के दो तिहाई से ज्यादा विधायकों को मजबूर कर दिया कि वे बाला साहब ठाकरे की पाटी को परिवारवाद के चंगुल से मुक्ति दिलाएं।

अब आगे जो भी होगा वह तो सबके सामने हैं लेकिन यह तो तय है कि उद्धव ठाकरे ने पत्नी के हठयोग के चलते अपने पिता की विरासत को उनके वैचारिक अधिष्ठान के डिगा दिया है। इस सदमें से शिवसेना कभी उबरेगी यह सवाल भविष्य के गर्भ में समा गया है।