स्टोरी हाइलाइट्स
मध्यप्रदेश वन विभाग और वनौषधियों की परम्परा: डॉ. रामगोपाल सोनी आईएफएस पुराने समय में मलेरिया से बड़े बड़े madhya pradesh forest department....
मध्यप्रदेश वन विभाग और वनौषधियों की परम्परा
डॉ. रामगोपाल सोनी आईएफएस
पुराने समय में मलेरिया से बड़े बड़े लोग मर जाते थे । कई इलाकों में इसकी सही हर्बल दवा नहीं मालूम थी। सिकंदर की मृत्यु मलेरिया से हुई| गजनी जिसने सोमनाथ को लूटा उसकी मृत्यु भी मलेरिया से हुई।
कैप्टन फॉर्सिथ जिसने हाइलैंड्स ऑफ सेंट्रल इंडिया लिखी जिसने पचमढ़ी में वन विभाग का मुख्यालय बनवाया। उस बंगले का नाम बाइसन लॉज है। पचमढ़ी में और जबलपुर में कई बार मलेरिया से बहुत बीमार पड़ा। कुनैन की दवा के वावजूद बाद में छुट्टी लेकर इंग्लैंड चला गया। घटना 1862. यद्यपि सेंट्रल इंडिया के प्रथम वन संरक्षक कर्नल पियरसन थे और 1861 को मध्य प्रांत में वन विभाग की स्थापना माना जाता है और पियरसन पहले वन अधिकारी।
पता नही इन दो बातों की जानकारी वन विभाग में कितनो को है। बहरहाल फोर्सिथ को पियरसन अपना प्रभार देकर इंग्लैंड चले गए थे । फोरसिथ केवल सहायक वन संरक्षक के प्रभार में थे वैसे आर्मी में कैप्टन थे।
उन्होंने मलेरिया की भयानक समस्या का जिक्र किया था। मैने पाया कि यद्यपि कालमेघ अर्थात कडू चिरायता से मलेरिया ठीक हो जाता था किंतु बहुत कम लोग जानते थे। बिहार और बंगाल में जहां अधिक मलेरिया होता था|
वहां पर वर्षा ऋतु में रात्रि में कालमेघ या चिरायता के पंचांग को बड़े बर्तन में पानी में डाल देते थे और सुबह परिवार का हर व्यक्ति आधा कप चिरायता का पानी पीता था तभी नाश्ता मिलता था । सरगुजा और बस्तर में कुछ आदिवासी लोगों को और कुछ अन्य लोगों को मालूम था। मुझे भी लगभग ६ माह मलेरिया रहा जब मैं सरगुजा में पोस्टेड था।
सभी एलोपैथिक दवाइयां कई बार लेने के बाद भी मेरे स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। फिर पहली बार मुझे एक टेनिस खिलाड़ी श्री अनूप वर्मा ने कडू चिरायता का काढ़ा लेने की बात कही। मैं सात दिन में पूर्ण स्वस्थ हो गया। चिकनगुनिया भी इसी से ठीक हुआ।
१९४२ में धमतरी में अंग्रेज डीएफओ ने लोकल लोगो से जिस पौधे को खोजा उसका नाम है vitex peduncularis.
उसने इस पौधे को फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में लगा दिया ताकि उसके सभी कर्मचारी कालाजार बुखार से बच सकें। वो अंग्रेज डीएफओ आज के पढ़े लिखे लोगों से अधिक समझदार था । किंतु हम उससे बड़े अंग्रेज है जो देशज ज्ञान को झोला छाप मानते है।
यह सब हजारों सालों से क्लिनिकली ट्रायल ही की गई थी। करोना में भी कालमेघ और गिलोय प्रभावी है ।और गांव के लोग इन्ही वन औषधियों को लेकर ठीक हुई है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु के पहले नीम की पकी निबोली ५ से दस रोज ,कम से कम पंद्रह दिन लेने की परंपरा थी ।
निबोली जो पकी हो उसको बीज सहित चबा कर खा लेना हैं। इससे वर्ष में मच्छर जनित मलेरिया नही होता। यह कोरोना को रोकने में भी इम्यूनिटी बूस्टर का काम करेगी।
खून शुद्ध करेगी। पाचन ठीक करेगी ।
जो लोग अपनाना चाहे उनका स्वागत है। जिन्हे पारंपरिक ज्ञान के प्रति विश्वास नही उनका भी स्वागत है| न मानने के लिए। हर पैथी का अपना प्रयोग है।
NOTE- लेखक को वनौषधियों में शोध के लिए डॉक्टरेट दी गई है|