सुप्रीम कोर्ट के समाधान के रास्ते पर चलें आंदोलनकारी किसान: सरयुसुत मिश्र 


स्टोरी हाइलाइट्स

The farmers' refusal to speak to the committee of experts constituted by the Supreme Court cannot be justified. Dialogue with the government is one way

सुप्रीम कोर्ट के समाधान के रास्ते पर चलें आंदोलनकारी किसान: सरयुसुत मिश्र सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति विशेषज्ञों की समिति से बातचीत से किसानों का इनकार जायज नहीं कहा जा सकता| प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकार से बातचीत एक तरीका है| किसान आंदोलन में किसानों से केंद्र सरकार कई दौर की बातचीत कर चुकी है, लेकिन कोई हल नहीं निकला| मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने एक रास्ता निकाला|  तीनों कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाई और कृषि विशेषज्ञों की एक समिति गठित की| समिति इस पूरे मामले पर किसान और सरकार के पक्षों पर विचार कर समाधान का रास्ता निकालेगी, यह समिति सुप्रीम कोर्ट के लिए काम करेगी| सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस समिति के सदस्यों की संख्या बढ़ाई जा सकती है| यदि किसानों को ऐसा लगता है कि समिति में उनके प्रतिनिधि नहीं हैं तो वह शामिल किए जा सकते हैं| लेकिन समस्या  के समाधान के लिए चर्चा से इनकार नाजायज है|  ऐसा लगता है किसान आंदोलन समाधान की बजाए मोदी सरकार के लिए समस्या पैदा करने के लक्ष्य पर काम कर रहा है| कोई भी आंदोलन जब अहंकारग्रस्त और निरंकुश हो जाता है तो वह खूनी शक्ल भी ले सकता है|  सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद आंदोलनकारियों की ओर से जिस तरह की प्रतिक्रिया सामने आ रही है उससे लगता है आंदोलनकारियों को देश की सरकार और सुप्रीम कोर्ट पर भी विश्वास नहीं है| कृषि कानूनों पर किसानों द्वारा जो असंतोष दिखाया जा रहा है वह किसी के लिए भी लाभकारी नहीं है| भारत में कृषि की व्यवस्था पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था में इसी का हिस्सा 1947 में 50% से घटकर आज लगभग 15% रह गया है| ऐसी परिस्थितियां दिख रही हैं जिसमें किसान नेता किसानों से ज्यादा बिचौलियों को संरक्षण दे रहे हैं इसके पीछे बिचौलियों की कमाई की बंदरबांट भी एक कारण हो सकती है| किसान नेता किसानों को क्यों मजबूर करना चाहते हैं कि वह अपनी  उपज मोनोपोली में इनएफिशिएंट मंडियों में बेचे जबकि अधिकांश मंडिया भ्रष्टाचार में लिप्त है| आर्थिक उदारीकरण के जब प्रयास हुए थे, तब इंडस्ट्रीज ने भी इसका विरोध किया था, उद्योगपतियों ने कंपटीशन में उतरने से बचने का प्रयास किया, जबकि उदारीकरण के लागू से विदेशों से भारत में उद्योग लगे, निवेश हुआ| क्या शिवराज बनेंगे पन्ना के दूसरे छत्रसाल? हीरा खदान …..क्या दोहराएंगे इतिहास? आज हम देखते हैं कि कॉरपोरेट सेक्टर में क्रांति आई, कॉर्पोरेट के कर्मचारियों के जीवन में भी बेहतरी  आई| भारतीय कृषि क्षेत्र भी इसी तरह के क्रांतिकारी बदलाव की मांग कर रहा है, यह तीनों कानून कुछ हद तक इस दिशा में प्रभावी कदम हो सकते हैं| आंदोलनकारी किसान पूरे देश के किसानों को क्यों मजबूर करना चाहते हैं कि वह उनके अनुसार चलें आंदोलन में कई राज्य किसान शामिल नहीं हैं|  दक्षिण भारत बिल्कुल भी आंदोलन में भागीदारी नहीं कर रहा है आंदोलन में अधिकांश पंजाब हरियाणा के  किसान हैं| आंदोलनकारी किसान मंडियों को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं| मोनोपोली किसी भी सेक्टर को कितना नुकसान पहुंचाती है यह हम सब ने देखा है|  कम्युनिकेशन के क्षेत्र में बीएसएनएल की मोनोपोली के समय क्या हालात थे और आज कम्युनिकेशन सेक्टर की कैसी स्थिति है? ऐसा ही कार के मामले में है मारुति सुजुकी अकेली कंपनी थी जिसकी मोनोपोली थी, उदारीकरण के बाद बहुत सारी कंपनियां भारत में आई और आज कार बाजार की स्थिति हमारे सामने है|  जब भी उदारीकरण होता है, कंपटीशन बढ़ता है, तो ऐसा नहीं है कि कुछ लोगों को नुकसान होता है, इसमें सभी को फायदा होता है और कृषि क्षेत्र में हो रहे उदारीकरण से निश्चित ही फायदा होगा| इसमें बड़े और छोटे किसानों के हित अलग-अलग हैं जिनके पास बड़ी जमीन हैं, वह रासायनिक खाद और उपकरणों से खेती करते हैं इससे लोगों को रोजगार कम मिलता है| और छोटे किसान जो स्वयं खेती करते हैं उनकी स्थिति थोड़ी अलग है| उनको निश्चित निश्चित ही लाभ होगा|  किसान आंदोलन के बहाने पंजाब जैसे राज्य में औद्योगिक वातावरण भी खराब किया जा रहा है| जिससे भविष्य में युवाओं को रोजगार प्रभावित होगा| नये कृषि कानून एक सुनहरा अवसर हैं जब कृषि प्रधान राज्य फूड प्रोसेसिंग  उद्योगों का विस्तार कर कृषि को लाभ का धंधा बना सकते हैं| हाईवेज बंद करके गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली का भय पैदा करके जो हासिल नहीं हो सकता, वह राज्य में फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाकर किसानों को हासिल हो सकता है| ईज आफ डूइंग बिजनेस के मामले में हरियाणा भारत में १६वे स्थान पर है| जबकि जबकि पंजाब 19वें स्थान पर है| राज्य के और किसानों के विकास के लिए आवश्यक है ऐसे उद्योगपतियों को राज्य में आमंत्रित किया जाए| भारतवर्ष को फिरंगियों ने नहीं खोजा था,, इसका इतिहास सनातन है इसके साक्ष्य भी हैं मोजूद.. नैनो प्रोजेक्ट के समय पश्चिम बंगाल में ऐसे ही औद्योगिक वातावरण बुखार आ गया था जिसके दुष्परिणाम अब दिखाई पड़ रहे हैं| यदि आंदोलनकारी किसान अपने राज्य में कृषि की पुरातन परंपरा पर ही कायम रहना चाहते हैं और  औद्योगिक वातावरण नहीं बदलना चाहते हैं तो उसके लिए स्वतंत्र हो सकते हैं लेकिन दूसरे राज्यों के किसानों को क्यों नुकसान पहुंचाना चाहते हैं? वह यह मांग क्यों कर रहे हैं कृषि रिफार्म के तीनों कानून रद्द किए जाएं|  आंदोलनकारी किसान इस बात पर अड़े हुए हैं कि उनकी कानून रद्द करने की बात मानी जाए नहीं तो वह हाईवे जाम करेंगे, सिटी लाइफ बर्बाद करेंगे, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा करेंगे| किसानों के साथ लगातार बातचीत हो रही है और सरकार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने समाधान का एक रास्ता सुझाया है| यदि किसान इस रास्ते पर चलने से इनकार करते हैं तो इस आंदोलन को शक्ति से कुचलना आवश्यक होगा| किसानों को चाहिए कि वह कानून में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट की समिति के समक्ष अपना पक्ष रखें, सुप्रीम कोर्ट के सुझाव अनुसार समस्या का समाधान निकालें| किसानों के लिए अवसर है नहीं तो यह बात स्थापित हो जाएगी यह आंदोलन सत्ता बनाम किसान नहीं बल्कि सत्ता बनाम बिचोलिया है|