स्टोरी हाइलाइट्स
द्वारका अर्थात् कई द्वारों का शहर… संस्कृत में इसे ‘द्वारवती’ कहा गया। इसी कारण इसका नाम द्वारका पड़ा।भगवान कृष्ण की पौराणिक राजधानी थी, जिसकी स्थापना मथुरा से पलायन के बाद की थी।
5000 साल पहले भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद बसाई थी नगरी “द्वारका”…
हिन्दु धर्मालंबियों के लिए महान तीर्थ स्थान है द्वारका…
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चारों धाम में एक है द्वारका…
सप्तपुरियों(द्वारका,मथुरा,काशी,हरिद्वार,अवंतिका,कांची,अयोध्या) में से एक है द्वारका…
… कहां है वो द्वारका?
… भारत के किस हिस्से में है वो द्वारका?
… कैसी दिखती थी वो द्वारका?
द्वारका अर्थात् कई द्वारों का शहर… संस्कृत में इसे ‘द्वारवती’ कहा गया। इसी कारण इसका नाम द्वारका पड़ा।भगवान कृष्ण की पौराणिक राजधानी थी, जिसकी स्थापना मथुरा से पलायन के बाद की थी। इस शहर के चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें थी, जिनमें कई सौ दरवाजे थे। द्वारका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मंडल, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्यस्थान के नाम से भी जाना जाता है। गुजरात के दक्षिण-पश्चिम कोने में स्थित समुद्र किनारे चार धामों में से एक धाम और 7 पवित्र पुरियों (द्वारका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या) में से एक पुरी है। वर्तमान में दो द्वारका हैं, एक गोमती द्वारका, दसूरी बेट द्वारका। गोमती द्वारका ‘धाम ‘है, जबकि बेट द्वारका ‘पुरी’ है। बेट द्वारका समुद्र के बीच एक टापू पर स्थित है।
प्राचीन द्वारका एक पूर्ण नियोजित शहर था- कहा जाता है कि शहर को छह विभागों (सेक्टरों) में विभाजित किया गया था, जिसमें आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र, चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े चौक, 7,00,000 महल जो सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से बने थे, साथ ही कई सार्वजनिक सुविधाएं शामिल थीं। इसके अलावा वनस्पति उद्यान और झील भी थी। द्वारका में एक बड़ा हॉल जिसे सुधर्मा सभा कहा जाता था, यह वह स्थान था जहाँ सार्वजनिक सभाएं होती थीं। द्वारका में विशालकाय सभा मंडप था। शहर पानी से घिरे होने के कारण पुलों और बंदरगाहों के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा था।
जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ में द्वारका के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। बहुत से पुराणकार मानते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम, कृतवर्मा, सत्याकी, अक्रूर, उद्धव और उग्रसेन समेत 18 साथियों के साथ द्वारका आए थे। कृष्ण ने जब कंस का वध कर दिया, तब कंस के ससुर मगधिपति जरासंघ ने यादवों को खत्म करने का फैसला किया। वे मथुरा और यादवों पर बार-बार आक्रमण करते थे। इसलिए यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया। कृष्ण और उनके साथियों ने द्वारका आकर इस भूमि को रहने लायक बनाया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाराजा रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही द्वारका का नाम कुशस्थली हुआ था।
हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
विष्णु पुराण के अनुसार आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर राज्य किया।
विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी।
महाभारत के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-‘कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्’।
द्वारका में श्रीकृष्ण ने 36 साल तक राज किया था लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि द्वारका नष्ट हो गई? किसने किया द्वारका को नष्ट? क्या प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गई थी द्वारका? क्या किसी आसमानी ताकत ने नष्ट कर दिया द्वारका को या किसी समुद्री शक्ति ने उजाड़ दिया था द्वारका को? आखिर ऐसा क्या हुआ था जो नष्ट हो गई द्वारका?
श्रीकृष्ण के विदा होते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई और यादव कुल नष्ट हो गया, मान्यता है कि उस समय समुद्र में इतनी ऊंची लहरें उठी थीं द्वारका को एक ही बार में पानी में डूबो दिया था। द्वारका के डूबने के कहानी कुछ वैसी ही है जैसी दुनियाभर में ग्रीक सभ्यता का शहर ‘अटलांटिस’ की कहानी है। अटलांटिस को भी एक बड़ी बाढ़ ने तबाह कर दिया था। ग्रीक के महान दार्शनिक और चिंतक प्लेटो ने दो हजार वर्ष पहले जिस प्राचीन अटलांटिस सभ्यता का वर्णन किया था उसमें अटलांटिस के डूबने का समय लगभग 9000 साल पहले का ही बताया गया है।
अब सवाल उठता है कि द्वारका कब समुद्र में विलीन हुई थी… इस पर इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ता, समुद्र विज्ञानियों में मतभेद है, कुछ का कहना है कि द्वारका लगभग 5000 साल पहले डूबी थी तो कुछ का कहना है कि 9000 से 9500 साल पहले डूबी थी…
श्रीमद्भागवतम् पुराण और अन्य शास्त्रों के अध्ययन के मुताबिक द्वारका वर्ष 3102 ई.पू. में डूबा था, जो आज से लगभग 5100 वर्ष है। 3102 ईसा पूर्व द्वापर युग का अंत और कलयुग का प्रारंभ हुआ था। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, कलियुग 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व की मध्य रात्रि यानी 12 बजे से शुरू हुआ। धर्म ग्रंथों में यही वह तिथि मानी जाती है, जब श्रीकृष्ण बैकुंठ लोक लौट गए थे।
द्वारका के जलमगन होने के बाद कृष्ण के परपोते वज्रनाभ द्वारका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यादवों के अंतिम युद्ध में जीवित रह गए। द्वारका के समुद्र में डूब जाने के बाद अर्जुन द्वारका आए और वज्रनाभ और अन्य जीवित यादवों को हस्तिनापुर ले आए। कृष्ण के वज्रनाभ को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से मथुरा क्षेत्र को वज्रमंडल भी कहा जाता है।
द्वारका के नष्ट होने की कुछ और भी मान्यताए हैं… यह भी कहा जाता है कि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी और ऋषि दुर्वासा ने यदुवंश के नष्ट होने का श्राप दिया था जिसके चलते द्वारिका नष्ट हो गई थी। एक मान्यता यह भी है कि यह नगर अरबी समुद्र में 6 बार डुब चुका है और वर्तमान द्वारका 7वां शहर है जिसको पुराने द्वारिका के पास पुन: स्थापित किया गया। वर्तमान की द्वारका आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित है।
1963 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने द्वारा के लिए खोज आरंभ है…
पुरातत्त्ववेत्ता पिछले 6 दशकों से प्राचीन द्वारका के अवशेषों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। द्वारका में पहली पुरातात्विक खुदाई 1963 में की गई थी। इस खोज में कई शताब्दियों पुरानी कलाकृतियां मिली थीं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की मरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट (MAU) ने 1979 में डॉ. एस. आर. राव के नेतृत्व में खुदाई का दूसरा दौर चलाया था। यह खोज गुजरात में बंदरगाह शहर लोथल में की गई। इस खोज में विशिष्ट मिट्टी के बर्तन मिले थे। जो 3,000 साल पुराने बताए गए। इन खुदाई के परिणामों के आधार पर 1981 में अरब सागर में द्वारका की खोज शुरू हुई।
पानी के नीचे की खोज की परियोजना को 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा मंजूरी दी गई थी। समुद्र के नीचे खुदाई का काम कठिन था 1983 और 1990 के बीच डॉ. एस. आर. राव की टीम को ऐसी खोजों के बारे में पता चला जिसने एक डूबे हुए शहर की मौजूदगी की प्रमाणिकता पर पहली बार मोहर लगाई थी।
दिसंबर 2000, अक्टूबर 2002 और फिर जनवरी 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंडरवाटर पुरातत्व विंग (UAW) ने द्वारका में फिर से खुदाई शुरू की थी। जिसमें अरब सागर में पाए जाने वाली प्राचीन संरचनाओं की पहचान की जा रही है। अन्वेषणों में बस्तियां, दीवारें, स्तंभ और त्रिकोणीय और आयताकार जैसी संरचनाएं निकली। शिलालेख, मिट्टी के बर्तन, पत्थर की मूर्तियां, टेराकोटा की माला, पीतल, तांबा और लोहे की वस्तुएं मिली थीं।
प्राचीन द्वारका नगरी के समुद्र में समा जाने के रहस्य के बारे में पूछे जाने पर सिन्हा ने कहा कि द्वारका नगरी का एक बड़ा हिस्सा समुद्र में डूब गया था लेकिन इसके कारण के बारे में प्रमाण के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है. ‘‘हालांकि एक मान्यता यह है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने से यह प्रचीनतम नगरी डूब गई.’’ धरोहर विशेषज्ञ प्रो. आनंद वर्धन के अनुसार, महाभारत काल से अब तक पुराणों, धर्मग्रंथों एवं शोधकर्ताओं द्वारा किये गए अध्ययन में भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी के प्रमाण मिले हैं.
18 अगस्त 2007 को द्वारका की तह तक पहुंचे थे भारतीय नौसेना के गोताखोर
भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी से जुड़े दावों और अनुमानों के वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जाने का समय अब एकदम नजदीक आ गया है, क्योंकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोर भीतर पड़े अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाल लाए हैं।
गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला।
नौसेना के साथ मिलकर चलाए गए अपनी तरह के इस तीसरे अभियान के आरंभिक नतीजों की जानकारी देते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समुद्री पुरातत्व विशेषज्ञ डॉ. आलोक त्रिपाठी ने शुक्रवार को यहाँ बताया कि इन दुर्लभ नमूनों को अब देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों की पुरा प्रयोगशालाओं को भेजा जा रहा है और छह माह के भीतर द्वारका नगरी से जुड़े रहस्यों से पर्दा उठ जाएगा।
इस समुद्री उत्खनन के बारे में सहायक नौसेना प्रमुख रियर एडमिरल एसपीएस चीमा ने बताया कि इस ऐतिहासिक अभियान के लिए उनके 11 गोताखोरों को पुरातत्व सर्वेक्षण ने प्रशिक्षित किया और नवंबर 2006 में नौसेना के सर्वेक्षक पोत आईएनएस निर्देशक ने इस समुद्री स्थल का सर्वे किया।
इसके बाद इस साल जनवरी से फरवरी के बीच नौसेना के गोताखोर तमाम आवश्यक उपकरण और सामग्री लेकर उन दुर्लभ अवशेषों तक पहुँच गए, जिनके बारे में अनेक तरह के विवाद समय-समय पर सामने आते रहे हैं। इन गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया हैं, लेकिन उनकी वास्तविक प्राचीनता का सच जानना बाकी है।
रियर एडमिरल चीमा ने कहा कि इन अवशेषों की प्राचीनता का वैज्ञानिक अध्ययन होने के बाद देश के समुद्री इतिहास और धरोहर का तिथिक्रम लिखने के लिए आरंभिक सामग्री इतिहासकारों को उपलब्ध हो जाएगी। यह पूछने पर कि क्या प्रस्तर खंड किसी नगर या मंदिर के अवशेष लगते हैं, डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि हम किसी प्रकार के कयास लगाने के हक में नहीं हैं। दरअसल हम तो अभी तक लगाए जा रहे कयासों और अनुमानों की सचाई ढूँढ़ने निकले हैं। हमारे पास सर्वेक्षण के नतीजे और नमूने हैं, जिन्हें विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में भेजा जाएगा और खंडों की प्राचीनता और सही तारीख का पता लगाया जाएगा।
द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई है और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। उन्होंने माना कि जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है, लेकिन सिर्फ इस आधार पर कोई नतीजा निकालना खतरे से खाली नहीं होगा।
अलबत्ता उन्होंने कहा कि इन अवशेष खंडों का सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं मिलता और यह आयताकार खंडों की बनावट और स्टाइल से स्पष्ट है। संयोग की बात यह है कि द्वारका के इन समुद्री अवशेषों को सबसे पहले भारतीय वायुसेना के पायलटों ने समुद्र के ऊपर से उड़ान भरते हुए नोटिस किया था और उसके बाद 1970 के जामनगर के गजेटियर में इनका उल्लेख किया गया। उसके बाद से इन खंडों के बारे में दावों-प्रतिदावों का दौर चलता रहा है।