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वेब सिरीज शूटिंग मामले में बजरंग दल की कर्यवाही उचित या अनुचित, ओटीटी प्लेटफोर्म के लिए सेंसर बोर्ड ज़रूरी -दिनेश मालवीय

सार

भोपाल में जाने-माने फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा द्वारा की जा रही शूटिंग के दौरान बजरंग दल वालों ने हंगामा किया. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्रकाश झा की पिटाई की गयी और उनके मुंह पर कालिख भी पोती गयी.

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विस्तार

वेब सिरीज शूटिंग मामले में बजरंग दल की कर्यवाही उचित या अनुचित, ओटीटी प्लेटफोर्म के लिए सेंसर बोर्ड ज़रूरी -दिनेश मालवीय



भोपाल में जाने-माने फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा द्वारा की जा रही शूटिंग के दौरान बजरंग दल वालों ने हंगामा किया. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्रकाश झा की पिटाई की गयी और उनके मुंह पर कालिख भी पोती गयी. एक्टर बॉबी देओल की पिटाई की बात भी सामने आ रही है. बजरंग दल के लोगों ने यह उचित किया या अनुचित, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन क्या इस घटना के संदर्भ में प्रकाश झा और पूरे बॉलीवुड के कारनामों को ध्यान से देखने और निरपेक्ष रूप से सोचने की ज़रूरत नहीं है.

कानूनी रूप से देखा जाए, तो प्रकाश झा ने शूटिंग की विधिवत अनुमति ली ही होगी. वह काफी दिनों से मध्यप्रदेश में फिल्मनिर्माण गतिविधियों में सक्रिय हैं. उन्हें शासन से यथोचित सहयोग भी मिल ही रहा है. इस तरह क़ानून के हिसाब से तो झा गलत नहीं हैं. जिन लोगों ने हिंसक गतिविधियाँ की हैं, उनके विरुद्ध कानूनन कार्यवाही भी की ही जानी चाहिए, लेकिन उनके मकसद को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. कानून ही सबकुछ नहीं होता. हर व्यवसाय से कुछ नैतिकताएं जुड़ी होती है. यह लिखित में तो होती ही हैं, लेकिन अधिकतर नैतिकताएं अलिखित और सामान्य समझ से समझी जाती हैं. यह झा की इस वेब सीरीज के तीसरे भाग की शूटिंग थी. दो भाग पहले ही आ चुके हैं. जिन लोगों ने दो भाग देखे हैं, उनका कहना है, कि यह जेल में बंद कथित बाबा रामरहीम और उसके आश्रम में चल रही गतिविधियों पर आधारित है.

झा भले ही सोचते हों, कि वह इस सीरीज का निर्माण लोगों को पाखंडी साधुओं के प्रति जाग्रत करने के लिए कर रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं है. इसका मकसद पैसा बनाना ही अधिक लगता है, क्योंकि ऐसे विषयों पर फ़िल्में काफी चलती हैं. विचारणीय बात यह है, कि हिन्दी फिल्मों में सिर्फ हिन्दू धर्म को ही क्यों गलत रूप से पेश किया जाता है? हिन्दू दूसरे धर्मों की तुलना में बहुत अधिक उदार और सहिष्णु रहे हैं. उनकी यह सहिष्णुता मूर्खता की सीमा तक जाती है. महा तपस्वी, परम ज्ञानी और देवताओं तथा दानवों में समान रूप से समादृत देवर्षि को हिन्दी फिल्मों और सीरियल्स में में एक विदूषक की तरह पेश किया जाता रहा है; लेकिन हिन्दू है, कि इसका भी मज़ा लेता रहा. चलिए पुराने लोगों को बात छोडिये. नयी पीढ़ी के लोग तो न मूल शास्त्रों को पढ़ते हैं, और न आजकल घर में ही अपने धर्म के बारे में कुछ बताया जाता है. ऎसी स्थिति में वे फिल्मों और सीरियल्स में जो  देखते हैं, उसे ही सच मानने लगते हैं.

ऐसा नहीं कि इस महान ऋषि के साथ ही ऐसा हुआ. हिन्दी फिल्मों के पिछले इतिहास पर नज़र डाली जाए, तो स्पष्ट रूप से यह बात सामने आती है, कि जानबूझकर, अज्ञान के कारण या किसी सुविचारित साजिश के तहत हिन्दू धर्म और उसके अनुयायियों को अमूमन गलत ढंग से ही प्रदर्शित किया जाता है. इस विषय में सोशल मीडिया पर काफी जानकारी देखने को मिलती है,जो काफी हद तक सही है. हिन्दी फिल्मों में पंडित-पुरोहित को हमेशा लम्पट, लोभी और चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है. इसके अपवाद गिने-चुने ही मिलेंगे. ठाकुर को हमेशा अत्याचारी और अनाचारी के रूप में और वैश्य को हमेशा बेईमान, सूदखोर,कंजूस और लालची के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है. इससे व्यापक रूप से इन्हें ऐसा ही समझा जाने लगा है.  

इसके विपरीत दूसरे धर्मों को अमूमन हमेशा ही बहुत ऊंचे रूप में पेश किया जाता रहा है. किसी व्यक्ति ने सोशल मीडिया में पोस्ट डालकर इसके विषय में बहुत विस्तार से लिखा है. फिल्मों में हिन्दू देवी-देवताओं का मज़ाक उड़ाया जाना कोई नई बात नहीं है.“पीके” फिल्म में भगवान् शंकर के वेश में एक व्यक्ति को जिस तरह डरकर भागते हुए बाथरूम में जाते हुए दिखाया गया था, वह बहुत आपत्तिजनक था. अनेक लोगों ने आपत्ति की भी सही, लेकिन वह सीन फिल्म में बना ही रहा. और भी अनेक सटीक उदाहरण भी दिए जाते हैं.  

इस तरह की बातों की अनदेखी करना या उनका विरोध नहीं करना हिन्दुओं की सामान्य प्रवृत्ति रही है. यही कारण है, कि फिल्म वाले कुछ भी अनर्गल दिखाते रहते हैं. हिन्दू बेवकूफी की हद पर करते हुए इस सब का मज़ा लेते रहे हैं वेब सिरीज के अधिकतर दर्शक युवा और किशोर ही हैं. ऎसी चीजें देखकर उनके मन में बहुत कम उम्र में यह बात घर कर जाती है, कि हिन्दू धर्म के आश्रमों में यही सब होता है. युवाओं को यह बताने वाला कोई नहीं है, कि देश में हज़ारों आश्रम हैं, जहाँ बहुत चरित्रवान और सदाचारी लोग रहते हैं. वे स्वयं तो पवित्र जीवन जीते ही हैं, साथ ही समाज को भी धर्म और सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित करते हैं. राम रहीम, आशाराम, रामपाल आदि अपवाद हैं. लेकिन इस प्रकार की फ़िल्में या वेब सीरीज को देखकर नयी पीढ़ी के मन में अपने ही धर्म के प्रति ग्लानि और तिरस्कार का भाव स्थायी रूप से घर कर जाता है.

किसी फिल्म निर्माता ने क्या कोई ऎसी कृति बनायी है, जो हिन्दू धर्म के आश्रमों में चलने वाली पवित्र और सात्विक गतिविधियों को सामने लेकर आये? ऐसा देखने में नहीं आया. इसका कारण यह है, कि इस तरह की फिल्मों से नोटों की बरसात नहीं होती. फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों को अपनी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी समझने की बहुत ज़रूरत है. उन्हें इस बात को समझना होगा, कि समाज पर फिल्मों का बहुत गहरा असर होता है. पहले काफी अच्छी फ़िल्में बनी हैं और आज भी बनती हैं, जिन्हें दर्शकों ने बहुत पसंद भी किया. इन्हें बनाने वालों ने भी ख़ूब चाँदी काटी. इसलिए पैसा कमाने के लिए ज़रूरी नहीं है, कि प्रकाश झा की इस जैसी वेबसिरीज या फ़िल्में ही बनायी जाएँ.

यदि धर्म के नाम पर होने वाले भ्रष्टाचार या अनाचार के प्रति जन-जागरूकता लानी ही है, तो फिर सिर्फ हिन्दू धर्म ही क्यों, बाक़ी धर्मों में भी इस तरह की गड़बड़ियों की कोई कमी नहीं है. लेकिन इन पर कुछ कहने से फिल्म वाले डरते हैं, क्योंकि दूसरे धर्म वाले हिन्दुओं की तरह वेवकूफी की सीमा तक “सहिष्णु” नहीं हैं. बजरंग दल की इस कार्यवाही को के स्वरूप को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन उनके उद्देश्य को लेकर सवाल उठाना अनुचित है. उन पर जो कानूनी कार्यवाही होगी, वह अपनी जगह, लेकिन इसे सही मानने वालों की भी कोई कमी  नहीं है. माहौल ही ऐसा बन गया है. कोई कब तक चुपचाप पिटता रहेगा? हमेशा बचाव की मुद्रा में रहेगा ? किसी को तो आगे आना ही होगा. इस घटना से ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म के लिए सेंसर बोर्ड की स्थापना की ज़रूरत एक बार फिर सामने आयी है. इसे खुला सांड बनकर कुछ भी मनमानी करने की इज़ाज़त देना पूरे समाज और देश के हित में नहीं है.