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भोपाल की हृदय विदारक घटना से सब सन्न रह गये, अहमदनगर हो या बिहार, सिस्टम से उठता जन-विश्वास.. -दिनेश मालवीय

सार

वैसे तो मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. संसार में सब कुछ अनिश्चित है, सिर्फ मौत ही निश्चित है. दुनिया में रोज़ाना लाखों लोग मर रहे हैं. यह एक सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन जो घटना भोपाल और कुछ समय पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर और बिहार में हुई, उनसे हर संवेदनशील व्यक्ति को गहरा सदमा पहुंचा है...

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विस्तार

वैसे तो मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. संसार में सब कुछ अनिश्चित है, सिर्फ मौत ही निश्चित है. दुनिया में रोज़ाना लाखों लोग मर रहे हैं. यह एक सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन जो घटना भोपाल और कुछ समय पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर और बिहार में हुई, उनसे हर संवेदनशील व्यक्ति को गहरा सदमा पहुंचा है. बात सदमे तक सीमित नहीं है. व्यवस्था यानी सिस्टम के खिलाफ व्यापक जन आक्रोश फूट रहा है, जो किसी दिन बहुत भयानक रूप ले सकता है. लोगों के मन में सरकार की व्यवस्था के प्रति अविश्वास का भाव पनप रहा है.
 

सोमवार को भोपाल के कमला नेहरू अस्पताल के बच्चा वार्ड में आग लग गयी, जिसमें चार शिशु जलकर मर गये. आग का कारण short circuit बताया जा रहा है. कारण जो भी रहा हो, लेकिन है तो लापरवाही का नतीजा ही. अस्पताल के मैनेजमेंट को क्या इलेक्क्ट्रिक सिस्टम पर लगातार नज़र नहीं रखनी चाहिए थी? ख़ासकर उस जगह, जहाँ उन बच्चों इलाज के लिए भर्ती किया जाता है, जो संकट को न तो समझ सकते और न उससे बचने का कोई उपाय ही कर सकते.
 

घटना के बाद के जो दृश्य मीडिया में सामने आ रहे हैं, उनसे अस्पताल प्रबंधन की बदहवासी और संवेदनहीनता का भी पता चलता है. कुछ परिवारों से कहा जा रहा है, कि उनके बच्चे मर गये, जबकि परिजनों का कहना है, कि उन्होंने बच्चों को जीवित देखा है. मृत बच्चों की पहचान और उन्हें सम्बंधित परिवारों को सौंपने में भी कुछ भ्रम की स्थिति देखने में आ रही है. यह एक अच्छी बात रही, कि आग लगने के बाद स्थानीय और विभागीय मंत्री कुछ ही समय में घटनास्थल पर पहुँच गये. सबके मिले जुले प्रयास से बहुत से बच्चों की जान बचा ली गयी. लेकिन ज़रा विचार कर देखिये, कि जिननके नन्हे-मुन्ने बच्चों की इतनी दर्दनाक मौत हुयी, उनके परिजनों पर क्या गुजर रही होगी. कोई भी सहायता या राहत उनकी असह्य पीड़ा को कम नहीं कर सकती.
 

इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए. हालांकि जांच का दायित्व उसी विभाग के प्रशासनिक मुखिया को दिए जाने से, इसकी निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह उठना स्वाभाविक है. इसके पहले हाल ही में बिहार में ज़हरीली शराब पीने से बहुत बड़ी संख्या में लोगों के मौत की दर्दनाक खबर आयी. इस घटना के खिलाफ जनता का गुस्सा इतना अधिक है, कि संभाले नहीं सम्हाल रहा. बिहार में शराबबंदी तो बहुत उत्साह से लागू दी गयी, लेकिन वहां अवैध शराब नहीं बने या बिके या प्रदेश के बाहर से नहीं आये, इसे सुनिश्चित करने में शासन-प्रशासन पूरी तरह असफल हो गया. जब किसी पाबंदी पर अमल नहीं करा सकते, तो पाबंदी लगाने का क्या फायदा? इससे लोगों को फायदा कम नुकसान अधिक हो रहा है. प्रशासनिक अमले के लिए भी भ्रष्टाचार के नये रास्ते खुल गये हैं.
 

इसके पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर में एक अस्पताल में आग लगने से उसमें भरती अनेक कोरोना मरीज़ ज़िंदा जल गये थे. यह घटना भी सिस्टम के लिए बहुत शर्मनाक थी. उन्हें कुछ भी सज़ा मिल जाए, लेकिन जिन लोगों की जान गयीं, उसकी भरपाई कौन करेगा. देश के हर कोने से इस तरह की ख़बरें लगातार आ रही हैं, जिनसे लगता है, कि सरकार द्वारा किये जाने वाले कामों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता.कहीं पुल गिर जाता है तो कहीं बाँध फूट जाता है. कहीं सार्वजनिक परिवहन के वाहनों में यात्रियों को ठूंस-ठूंस कर भरने और वाहनों तथा सड़कों की खराब हालत के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है. प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का नियंत्रण नहीं होता, लेकिन आपदाओं से निपटने के लिए उपयुक्त प्रबंधन करना तो सरकार का कर्तव्य है.
 

सरकार की मंशा में खोट भले ही नहीं हो, लेकिन सिस्टम के स्तर पर जो लापरवाही होती है, उसपर नियंत्रण भी सरकार की ही ज़िम्मेदारी है. सड़कों पर इतने गहरे गड्ढे होते हैं, कि उनमें वाहन तक समा जाते हैं. भोपाल में ही इस वर्ष अनेक दुपहिया चालक सड़कों में गड्ढों के कारण अपनी जान से हाथ धो बैठे. बड़ी संख्या में निजी अस्पताल खुल गये हैं, जो बढ़ती जनसंख्या के लिहाज से ज़रूरी भी हैं. लेकिन इन अस्पतालों को जिस तरह मनमानी करने की छूट मिली हुयी है, उसके लिए तो शासन-प्रशासन ही ज़िम्मेदार है. कोरोना काल में अनेक प्राइवेट अस्पतालों ने जमकर लूट मचाई. इसे रोकना किसका काम है? निश्चित ही यह काम सरकार को ही करना चाहिए था, जो पर्याप्त रूप से नहीं किया गया.


 
सार्वजनिक निर्माण कार्यों में ठेकों की गड़बड़ी अब कोई छिपी बात नहीं रह गयी है. इनमे जो भ्रष्टाचार होता है, उससे इन निर्माणों की गुणवत्ता का तो सवाल ही नहीं रह जाता. मैं इस बात को फिर दोहराना चाहूंगा, कि किसी भी कम के पीछे सरकार की मंशा अच्छी होती है, लेकिन उस मंशा के अनुरूप परिणाम आयें, यह देखना भी तो सरकार का ही काम है, जो यथेष्ट सख्ती से नहीं किया जा रहा. उम्मीद की जानी चाहिए, कि भोपाल की घटना से सबक लेकर ऐसी कार्यवाही की जानी चाहिए, कि भविष्य में इसका दोहराव नहीं हो.