• India
  • Sat , Jul , 27 , 2024
  • Last Update 06:53:AM
  • 29℃ Bhopal, India

कैसे पता लगेगा सौदेबाजी का सच, क्या मध्य प्रदेश बन रहा है दलबदल का केंद्र?

सार

सरकारों में अथवा राजनीतिक दलों में सौदेबाजी लोकतंत्र की हत्या जैसा काम है. यदि कमलनाथ सौदेबाजी की सभी बातों को जनता के सामने लाते हैं, तो उनका सम्मान पड़ेगा. सत्ता की बाजी हारने की भड़ास के रूप में सौदेबाजी का जुमला उछालना लोकतंत्र और जन नेताओं की मर्यादा को प्रभावित करेगा.

janmat

विस्तार

कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में दशकों तक सुपरस्टार रहे कमलनाथ के हाथ से राज्य की राजनीति की बाजी क्यों फिसलती जा रही है?

 

सरयूसुत मिश्रा

 

मध्यप्रदेश में 1967 में संविद सरकार के समय हुए दलबदल के बाद कमलनाथ की अगुवाई वाली कांग्रेस में  इतने बड़े दल बदल के पीछे कुछ तो ऐसा है जो थोड़ा गंभीर है. सचिन बिरला कांग्रेस छोड़ने वाले 27वें विधायक हैं. वह उप-चुनाव के ऐन मौके पर पार्टी छोड़ गए हैं.

 

ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ पार्टी विधायकों के कांग्रेस छोड़ने के बाद जब से कमलनाथ की मुख्यमंत्री की कुर्सी गई है, तब से वह दसियों बार पब्लिक और मीडिया के सामने कह चुके हैं कि यदि मैं भी सौदेबाजी करता, तो मेरी सरकार नहीं गिरती. सचिन बिरला के पार्टी छोड़ने पर भी कमलनाथ यही कह रहे हैं कि सौदेबाजी की राजनीति नहीं चलेगी.

 

सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह सौदेबाजी कौन कर रहा है और सौदेबाजी की शर्तें क्या है? कमलनाथ अपने विरोधी दल भाजपा पर तो आरोप लगा सकते हैं कि वह सौदेबाजी कर रही है, लेकिन उन्होंने अपनी सरकार बचाने के लिए सौदेबाजी नहीं की यह तो उन्हें बताना चाहिए?  यह सौदेबाजी क्या राज्य के हितों के विपरीत थी. सौदेबाजी कौन नेता कर रहा था? इससे एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि सरकार में रहते हुए 15 महीनों तक किन-किन ताकतों से क्या-क्या सौदेबाजी हो गई. वह कौन सी सौदेबाजी थी, जो परवान नहीं चढ़ी और सरकार पलट गई.

 

 

बाईस विधायकों के सिंधिया के साथ पार्टी छोड़ने और उसके बाद नई सरकार भाजपा सरकार गठित हो गठित हो गई, फिर एक-एक कर पांच विधायकों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी. इसके पीछे क्या रहस्य है? भाजपा सरकार के लिए इन विधायकों की तकनीकी तौर पर आवश्यकता नहीं थी.

 

 जिन भी विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी है वे सभी पार्टी और सरकार में सुनवाई नहीं होने की क्राइसिस के लिए कमलनाथ को दोष देते रहे हैं. कमलनाथ जैसे मंझे हुए नेता, जो केंद्रीय स्तर पर रहते हुए मध्य प्रदेश कांग्रेस के सूत्र अपने हाथ में रखते थे, वह राज्य की राजनीति में इस हश्र को क्यों प्राप्त हुए.

 

 

केंद्र और राज्य की राजनीति के तौर-तरीके, दृष्टिकोण और विचार प्रक्रिया क्या अलग-अलग होते हैं? जो राजनेता केंद्र में सफल रहा और राज्य में सफल नहीं हो पाए, तो इसे कैसे देखा जाएगा? कमलनाथ मध्य प्रदेश के पहले ऐसे नेता हैं, जो केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में 40 साल से से भी अधिक समय से सक्रिय रहे हैं. मध्य प्रदेश की राजनीति में वह 2018 के चुनाव के  पहले राज्य कांग्रेस अध्यक्ष बनकर आए थे. राज्य का मुख्यमंत्री बनने की उनकी बहुत पुरानी ख्वाहिश थी, पहले वह दिल्ली से मुख्यमंत्री और मंत्री बनाते रहे. उन्हें इसीलिए किंगमेकर कहा जाता था.दिल्ली से मध्य प्रदेश सरकार चलाने का काम  कमलनाथ ने किया है. इसमें वह सब तरह से सफल रहे, चाहे अपने समर्थकों को सत्ता में भागीदारी या अपने चहेतों को कथित तौर पर टेंडर और ठेके दिलाना हो.

 

एक समय ऐसा भी था, जब कांग्रेस के दूसरे नेताओं को अलग-थलग कर बड़े और छोटे भैया मिलकर सरकार चलाते थे. दिल्ली में बैठकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमलनाथ ने सफलता के अनेक आयाम स्थापित किए हैं. राज्य की राजनीति में पहले दिन से ही कमलनाथ सभी कांग्रेस जनों का विश्वास नहीं जीत पाए थे. अलग पीठों और अखाड़ों के  कांग्रेसियों मैं कमलनाथ केवल अपने गुट के समर्थकों का ही विश्वास हासिल कर सके थे. पार्टी को फंडिंग की उनकी दक्षता और क्षमता के कारण मजबूरी में अलग-अलग गुट उनकी हां में हां मिलाते रहे.

 

जब कांग्रेस की सरकार कमलनाथ के नेतृत्व में बन गई, तब दिल्ली वाले समर्थकों का दृष्टिकोण और विचार प्रक्रिया सिस्टम में हावी रही. मध्यप्रदेश ने शिवराज जैसा सहज और आम लोगों के लिए हमेशा उपलब्ध रहने वाला मुख्यमंत्री देखा था उसे कांग्रेस के मुख्यमंत्री की कार्यशैली अजब-गजब लगी. शासन तंत्र भी कॉरपोरेट शैली में चलने लगा. नेतृत्व द्वारा सभी को समभाव से देखने की बजाए कार्यकर्ताओं और नेताओं को अपने पराए का एहसास कराया गया.

 

राजनीति का उद्योग भी लाभ की परिकल्पना पर चलता हैं. इस दृष्टि से भी गांव, गरीब, देहाती, शहरी, अंग्रेजीदां और सामान्य पढ़े-लिखे लोगों से अलग-अलग व्यवहार किया गया. जब कोई भी नेतृत्व सामान्य से बहुत बड़ा हो जाता है, तो पार्टी के आधार स्तंभ उसे दिखाई नहीं पड़ते और दिया तले अंधेरा जैसी स्थिति बन जाती है.

 

शायद ऐसी ही स्थिति के कारण पार्टी विधायक भी घुटन महसूस करने लगे और उनके दिल बदलने लगे. दिल बदले तो दल बदलने में देर नहीं लगी, लेकिन कमलनाथ इसे सौदेबाजी कह रहे हैं. कमलनाथ जैसे बड़े और अनुभवी नेता निश्चित ही साफगोई के साथ वास्तविकता ही जनता के सामने रखते हैं .इसलिए सौदेबाजी की शर्तों को जनता के लिए जानना बहुत जरूरी है. लोकतंत्र संवाद के आधार पर चलता है, सौदेबाजी के आधार पर नहीं.

 

सरकारों में अथवा राजनीतिक दलों में सौदेबाजी लोकतंत्र की हत्या जैसा काम है. यदि कमलनाथ सौदेबाजी की  सभी बातों को जनता के सामने लाते हैं, तो उनका सम्मान पड़ेगा. सत्ता की बाजी हारने की भड़ास के रूप में सौदेबाजी का जुमला उछालना लोकतंत्र और जन नेताओं की मर्यादा को प्रभावित करेगा. हमेशा सम्मान और प्रतिष्ठा की राजनीति करने वाले कमलनाथ उम्र के आखिरी पड़ाव पर सौदेबाजी का सच उजागर कर प्रदेश की राजनीति को स्वच्छ और साफ सुथरा बनाए रखने के अपने दायित्व को पूरा करेंगे ऐसी उम्मीद है. मध्य प्रदेश की राजनीति दलबदल का केंद्र बनती जा रही है, जो किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के हित  में नहीं है.