अजीत डाभोल ने बहुत बड़ी बात कही, हाल ही में हैदराबाद में आईपीएस ट्रेनीज को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा, कि भारत के दुश्मन, देश में समाजिक विभाजन और बिखराव का खेल खेलकर देश को कमज़ोर बना रहे हैं...
भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डाभोल ने बहुत बड़ी बात कही है. हाल ही में हैदराबाद में आईपीएस ट्रेनीज को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा, कि भारत के दुश्मन, देश में समाजिक विभाजन और बिखराव का खेल खेलकर देश को कमज़ोर बना रहे हैं. यह उनके द्वारा छेड़ा गया एक परोक्ष युद्ध है. डाभोल ने कहा, कि अब राजनीतिक और सैनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए युद्ध प्रभावी माध्यम नहीं रह गये हैं. युद्ध बहुत महँगे हो गये हैं, जिनका खर्च उठाना बहुत मुश्किल हो गया है. इसके अलावा जीतने की भी गारंटी नहीं होती. ऐसी स्थिति में दुश्मन देशों ने यह नए तरह का युद्ध छेड़ दिया है. यह एक नयी सीमा है, जिसकी रक्षा में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. इसे उन्होंने फोर्थ जनरेशन वार कहा है. इससे देश के हितों का जितना नुकसान किया जा सकता है, उतना किसी युद्ध से नहीं.
डोभाल ने जो कहा, वह शत प्रतिशत सही है. यह खेल कोई आज शुरू नहीं हुआ है. यह तो बहुत लम्बे समय से चल रहा है. दिलचस्प बात यह है, कि जो लोग यह खेल खेलते रहे हैं या इस खेल के मोहरे बने रहे हैं, वे इसके लिए एक राजनैतिक दल और संगठन को जिम्मेदार बता रहे हैं. चुनावों में जो जाति-मजहब का घिनौना खेल खेला जा रहा है, वह किसीसे छिपा नहीं है. जातियों और समुदायों को अपने पक्ष में करने के लिए क्या क्या नहीं किया जा रहा!
शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटकर जो मुस्लिम तुष्टीकरण किया गया, उससे हिन्दू समाज में बहुत रोष हुआ. हिन्दुओं के आक्रोश को देखते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री ने तत्काल राम जन्मभूमि मंदिर के ताले खुलवा दिए और मंदिर का शिलान्यास करवा दिया. क्या यह राजनीति के लिए धर्म का उपयोग नहीं था? इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लाकर हिन्दू समाज के विभाजन का प्रयास किया, जिसके चलते पूरे हिन्दू समाज पर ही खंड-खंड होने का खतरा मंडराने लगा. क्या यह विभाजनकारी नहीं था ?
इस बिखराव को रोकने के लिए राममंदिर आंदोलन में भारतीय जनता पार्टी को शामिल होना पड़ा. हिन्दुओं में एकता बढ़ी और उनकी राजनैतिक शक्ति में भी इज़ाफा हुआ. उत्तर प्रदेश में राजनैतिक हितों के लिए कुछ दलों ने दलितवाद और यादव-मुस्लिमवाद का कार्ड खेलकर सत्ता हथियाई. लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने इन वर्गों के हित में क्या किया, यह सबके सामने है. एक तरफ वामपंथियों का अपना एजेंडा चलता आ रहा है. वे पूरे हिन्दू समाज को अपनी जड़ों से काटने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. अगर हिन्दू समाज की जड़ें मजबूत नहीं होतीं, तो बहुत बड़ा बिखराव हो गया होता. दूसरी तरफ मुस्लिमों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए उनके मन में हिन्दुओं और उनके संगठनों से खतरे का डर ऐसा गहरा बैठा दिया गया, कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा. संघ और भाजपा की तरफ से सब तरह का आश्वासन मिलने के बाद भी वे उन पर भरोसा नहीं कर पा रहे. हालांकि कुछ मुस्लिम अब इस खेल को समझने लगे हैं.
जिन मुस्लिम नेताओं को पिछली सरकारों ने आगे बढ़ाया और नवाज़ा, वे आम मुस्लिमों के प्रतिनिधि नहीं थे. वे एक दल विशेष के हित में मुस्लिमों को इस प्रकार बरगलाते रहे, कि वे किसी भी तरह हिंदुओं के साथ घुलमिल नहीं सकें. उनके मन में हिन्दुओं के प्रति शंकाओं को वे बढ़ाते रहे. आम मुस्लिमों की यह गलती रही, कि वे इन नेताओं के गेम को समझ नहीं पाये और उनके मोहरे बने रहे. इसके बावजूद भारत में ऐसे मुस्लिमों की संख्या बहुत अधिक है, जो बहुत कट्टर सोच नहीं रखते. उनके हिन्दू समाज के लोगों के साथ बहुत अच्छे नहीं तो कम से कम अच्छे सम्बन्ध तो हैं. सभी समुदायों के आपसी आर्थिक-सामाजिक हित जुड़े हुये हैं. मैंने अपने शहर भोपाल में ही देखा है, कि अज़ान की आवाज़ कानों में पड़ते ही, उनका हाथ सहज रूप से अपने सिर पर चला जाता है. यह उन्हें घुट्टी में दिए सर्वधर्म समभाव के संस्कार का परिणाम है. कहीं-कहीं ऐसा भी देखा गया है, कि मंदिर की घंटियां सुनकर कुछ मुस्लिम एक पल को आँखें मूँद लेते हैं, हालांकि ऐसे लोगों की संख्या अधिक नहीं है.
हाल ही में हिन्दी भवन में एक राज्य स्तरीय कार्यक्रम चल रहा था. इस बीच अज़ान की आवाज़ आई, तो स्वाभाविक रूप से कुछ समय तक कार्यक्रम रोक दिया गया. अनेक जगहों पर कविसम्मेलन भी अज़ान होने पर कुछ देर रोक दिए जाते हैं. होली खेलने वाले और हिन्दू बहनों से राखी बंधवाने वाले मुस्लिमों को भी देखा है. बहुत सोची-समझी चाल के तहत जाति-पाति का बहुत हल्ला मचाया जाता है. हालांकि यह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन इसका स्वरूप पहले जैसा नहीं रह गया है. छोटे-छोटे गाँव में भले ही इसके अवशेष बचे हैं, जोस समय के साथ ख़त्म हो जाएँगे, लेकिन शहरों के होटलों में खाना बनाने और परोसने वालों की कोई जाति नहीं पूछता. मंदिरों में सभी जातियों के लोग जाते हैं. कोई उनसे उनकी जाति नहीं पूछता. घरों में काम करने वाली बाइयां और अन्य काम करने वाले लोग सभी जातियों के होते हैं, जिनसे घर में बुलाकर काम करवाया जाता है.
इसका मतलब यह हुआ, कि दुश्मनों की तमाम कोशिशों के बाद भी भारत में सामाजिक सद्भाव पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है. इसे समाप्त नहीं होने देने में सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की नहीं, बल्कि ख़ुद लोगों की है. राजनीतिक दल और विदेशों से फंडिंग पाने वाले लोग पूरी तरह कभी ख़त्म नहीं होने वाले. वे अपनी नापाक कोशिशें जारी रहेंगे. लेकिन सभी समुदायों, जातियों और वर्गों के लोग अगर समझदारी से काम लें, तो स्थिति कभी नियंत्रण से बाहर नहीं जा सकती.
हर जाति-समुदाय के लोगों को राजनितिक लाभ के लिए इस्तेमाल होने से साफ़ इंकार कर देना चाहिए. ऐसा नहीं हो सकता, कि एक समुदाय किसी दल को जीतने या हारने के लिए एकमुश्त मतदान करें और दूसरे समुदाय अपनी निष्पक्षता का ढोल बजाते रहें. क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी है. इससे बचकर, बहुत कुछ बचाया जा सकता है. इसमें पुलिस की सीमित और समाज की सबसे बड़ी भूमिका है. यह बात किसी एक समुदाय, जाति या वर्ग के लिए नहीं है. सभी को इस विषय में बहुत सतर्क रहने की ज़रुरत है. दुश्मन देश हमारे देश में कमज़ोर चरित्र के लोगों को ख़रीद लेते हैं या धर्म के नाम पर बरगलाते हैं. उनसे बहुत सजग रहकर ही उनके मंसूबों को नाकाम किया जा सकता है. और हाँ, अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए विभाजनकारी एजेण्डा चलाने वाले मीडिया से तो बहुत सतर्क रहना ज़रूरी है. सोशल मीडिया में कुछ भी झूठी खबर या वीडियो डालना बहुत आसान हो गया है. बिना पुष्टि किये कोई भी प्रतिक्रया देने से बचना चाहिए.