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निगम मंडलों में नियुक्ति जरूरी या राजनीतिक मजबूरी- सरयूसुत मिश्र 

सार

निगम मंडलों में नियुक्तियां हारे लोगों की किस्मत चमकाने, रूठो को मनाने और राजनीतिक एडजस्टमेंट के अलावा कुछ नहीं है, हालांकि यह निगम मंडल अपने लक्ष्य तक शायद ही कभी पहुंचे हों, कालांतर में ये “उपक्रम” “उपकृत” करने का जरिया बनते गये, यह निगम मंडल “जरूरी” से ज्यादा “मजबूरी” बनते जा रहे हैं..

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विस्तार

मध्यप्रदेश के निगम- मंडल सरकार के लिए सिर्फ शोभा की सुपारी और खर्च के मामले में सफेद हाथी साबित हुए हैं| कहा जा रहा है कि इन निगम मंडलों में नियुक्तियां हारे लोगों की किस्मत चमकाने, रूठो को मनाने और राजनीतिक एडजस्टमेंट के अलावा कुछ नहीं है| मध्यप्रदेश में  निगम मंडलों की स्थापना 'सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसायटी' के आधार पर की गई थी। इनकी स्थापना के पीछे वास्तविक उद्देश्य यह था कि राज्य में सुव्यवस्था, विकास, रोजगार और आम लोगों को सुख सुविधाएं मिले। हालांकि यह निगम मंडल अपने लक्ष्य तक शायद ही कभी पहुंचे हों, कालांतर में ये “उपक्रम” “उपकृत” करने का जरिया बनते गये| 

मध्य प्रदेश सरकार ने इन निगम मंडलों और उपक्रमों में करीब 25 नियुक्तियां की हैं| नियुक्तियों में लघु उद्योग निगम भी शामिल है| उपचुनाव हारने वाली सिंधिया खेमे की पूर्व मंत्री इमरती देवी को जिस लघु उद्योग निगम में चेयरमैन बनाया गया है उसे बंद करने की कवायद चल रही है| यहां के अधिकारी कर्मचारियों को वीआरएस दिया जा रहा है|  ऐसे में इस निगम में चेयरपर्सन की नियुक्ति क्या बताती है ? मध्य प्रदेश के निगम मंडल वर्षों तक इन नियुक्तियों के बिना भी चलते रहे हैं| लगभग 3 साल से निगम-मंडलों में किसी तरह की राजनीतिक नियुक्ति नहीं हुई थी|  तब भी यह चल ही रहे थे|  यह निगम मंडल “जरूरी” से ज्यादा “मजबूरी” बनते जा रहे हैं | 

संभवतः प्रदेश में संचालित दो दर्जन से ज्यादा निगम मंडलों में से आधे भी ऐसे नहीं है जो लाभ में चल रहे हों| सरकार पिछले 15 साल में तिलहन संघ, बुनकर सहकारी संघ, राज्य परिवहन निगम, भूमि विकास बैंक और कुक्कुट महासंघ को बंद कर चुकी है। फिलवक्त ऐसे कई निगम मंडल है जिन्हें सरकार बंद करना चाहती है, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते इन्हें बंद करने का निर्णय नहीं हो पा रहा है|  जब निगम मंडलों का गठन किया गया था तब अध्यक्ष और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर को नीति निर्धारण और अहम फैसले लेने का जिम्मा सौंपा गया था| धीरे-धीरे इन निगम मंडलों में राजनीतिक नियुक्तियां होने लगी और इनके कार्यों में सीधे-सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप होने लगा| न सिर्फ इन निगम मंडलों का कार्य प्रभावित हुआ बल्कि इनमें भर्ती होने वाले लोग भी सिफारिशी थे| समय के साथ निगम मंडलों पर स्थापना का व्यय बढ़ता रहा और अयोग्य और अकुशल लोगों के चलते इनकी परफॉर्मेंस भी खराब होती गई |

यह बात भी पूरी तरह सही है कि इनका निर्माण फायदा अर्जित करने के लिए नहीं किया गया बल्कि कल्याणकारी योजनाओं के सही क्रियान्वयन में इनकी भूमिका तलाशी गई थी| राज्य योजना मंडल कई बार इन मंडलों के स्थापना के उद्देश्य, कार्यकलापों और प्रबंधन को लेकर पुनर्विचार का आग्रह करता रहा है| फिलहाल जो नियुक्तियां की गई है साफ पता चलता है कि यह नियुक्तियां ज्योतिरादित्य सिंधिया के उन समर्थकों को एडजस्ट करने के लिए है जो विधायकी छोड़कर फिर से चुनाव लड़े लेकिन जीत नहीं पाए| दूसरे वह लोग हैं जो संगठन में लंबे समय तक काम करते रहे हैं और संगठन उन्हें उपकृत करना चाहता था,  तीसरे वो लोग हैं जिन्होंने संगठन का कहना मान कर चुनावों से अपनी उम्मीदवारी या दावेदारी वापस ली| इन नियुक्तियों में योग्यता या इन्हें बेहतर बनाने की क्षमता का आंकलन शायद ही किया गया हो! पहले भी इनमें नियुक्तियों का आधार योग्यता नहीं था| इन निगम मंडलों में होने वाली नियुक्तियों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह राजनीतिक लोगों के पुनर्वास के केंद्र बन गए हैं|

मध्यप्रदेश में 1981 में निगम मंडलों का गठन किया गया था| शुरुआत में इन्हें सार्वजनिक उपक्रम ब्यूरो कहा गया फिर 1986 में इनका नाम बदलकर सार्वजनिक उपक्रम किया गया| मध्य प्रदेश में 27 निगम मंडलों का गठन किया गया था|  इनमें से 4,5  निगम बंद किए जा चुके हैं| मध्यप्रदेश राज्य भूमि विकास निगम, मध्यप्रदेश लेदर डेवलपमेंट कारपोरेशन, मध्यप्रदेश स्टेट टेक्सटाईल कारपोरेशन लिमिटेड, मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम, मध्यप्रदेश राज्य उद्योग निगम लिमिटेड शामिल हैं।

एक तरफ निगम मंडलों के कर्मचारियों के ऊपर इनके बंद होने की तलवार लटकी रहती है तो दूसरी तरफ इनके चलते रहने से राजनीतिक नियुक्तियों का रास्ता साफ रहता है|  एक समय इन निगम मंडलों को ग्रेड में बांट कर इनकी परफॉर्मेंस सुधारने की कवायद हुई थी, लेकिन आज कौन सा निगम मंडल किस ग्रेड में आता है इनकी स्थिति क्या है, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है|  इनकी परफॉर्मेंस सुधारने के लिए शायद ही समग्र रूप से कदम उठाए जाते हों| मध्यप्रदेश स्टेट एग्रो इण्डस्ट्रीज डवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड का कार्य पोषण आहार से जुड़ा था, लेकिन यह काम अब आजीविका मिशन को दे दिया गया| 

प्रदेश के ज्यादातर निगम-मंडलों में स्वीकृत पदों के तुलना में आधे कर्मचारी भी नहीं बचे हैं। इस समय मप्र में 23 निगम-मंडल (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम) है, जिनमें अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद सिर्फ राजनीतिक शानो शौकत के लिए हैं।कई पूर्व अध्यक्ष भी यह मानते हैं कि निगम-मंडलों में न कुछ करने को है, और न ही फैसले लेने का अधिकार। मगर इन पदों को खत्म करने की बात पर वे टिप्पणी करने से बचते हैं।

प्रदेश में सब मिलाकर 4  दर्जन निगम-मंडल-आयोग व प्राधिकरण हैं। इनके अध्यक्षों, उपाध्यक्षों व सदस्यों पर सरकार हर साल करीब 250 से 300 करोड़ रुपए खर्च करती है। ये खर्च इनकी सुविधाओं मसलन वेतन, भत्ते, हवाई यात्राओं, एसी में ट्रेन का सफर, गाड़ी-पेट्रोल, कर्मचारियों, निवास, फोन आदि पर खर्च करती है। इनमें से ज्यादातर का खर्च राज्य सरकार ही वहन करती है। यह भी दिलचस्प है कि इनमें से कई निगम, मंडल आयोग तो बरसों सरकार को रिपोर्ट तक पेश नहीं करते हैं।

समय-समय पर  जारी होने वाली भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में निगम मंडलों की कार्यप्रणाली  सवाल खड़े किए गए हैं, कैग ने बताया है कि राज्य सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों में  हजारों करोड़ का निवेश किया,  इन उपक्रमों में निवेश करने की वजह से सरकारी खजाने का करोड़ों रुपए बेकार चला गया| सीएजी ने समय-समय पर यह भी टिप्पणी की है कि जिन निगम-मंडलों की बैलेंस शीट अपडेट नहीं है, सरकार उन्हें वित्तीय सहायता देना बंद करे। इसके साथ ही घाटे में चल रहे निगम-मंंडलों की बिना देरी किए समीक्षा करे। 

CAG की पिछली एक रिपोर्ट के अनुसार, 2012 से 2017 के दौरान राज्य के निगम-मंडल लगातार घाटे में रहे| इसमें सरकार को 4 हजार 857 करोड़ का नुकसान हुआ| वहीं 2017 में 1 हजार 224 करोड़ का नुकसान हुआ था| बताया गया कि निगम-मंडलों पर सरकार इन्वेस्ट करती रही लेकिन रिटर्न नहीं मिल पाया| निगम मंडलों में जब हालात ठीक नहीं है ऐसे में राजनीतिक नियुक्तियों के बहुत ज्यादा मायने नहीं निकाले जाने चाहिए|