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कोई भी ज़ेब में नहीं होता -दिनेश मालवीय

सार

भारत ही नहीं, दुनिया के सभी ज्ञानवान और विवेकशील लोगों की सदा-सदा से एक बात पर आम सहमति है. सबका एक स्वर से कहना है, कि बोलने में संयम रखो. यह बात उन लोगों के लिए विशेष रूप से कही गयी है, जो सार्वजनिक जीवन में हैं- जो लोग सत्ता पर काबिज हैं. कभी कोई किसी की ज़ेब में नहीं होता. ईमानदारी और निष्ठा से काम करके व्यक्ति और वर्ग का विश्वास, सहयोग और समर्थन तो अर्जित किया जा सकता है, लेकिन किसी को अपनी ज़ेब में रखा नहीं माना जा सकता. लोकतंत्र में तो यह किसी भी सूरत में मुमकिन नहीं है...

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विस्तार

भारत ही नहीं, दुनिया के सभी ज्ञानवान और विवेकशील लोगों की सदा-सदा से एक बात पर आम सहमति है. सबका एक स्वर से कहना है, कि बोलने में संयम रखो. यह बात उन लोगों के लिए विशेष रूप से कही गयी है, जो सार्वजनिक जीवन में हैं- जो लोग सत्ता पर काबिज हैं. जो लोग सामाजिक व्यवहार और  जीवन को प्रभावित करते हैं. जिन लोगों से समाज को दिशा देने की अपेक्षा की जाती है. कहा गया है, कि किसी भी व्यक्ति के परिधान और रहन-सहन पर नहीं जाना चाहिए. उसकी धन-संपत्ति, परिवार और उसके सम्बन्ध उसका परिचय नहीं हैं. उसका सही परिचय उसकी वाणी है. सार्वजनिक जीवन में तो किसी व्यक्ति द्वारा बोला गया एक वाक्य क्या, एक शब्द ही उसके उत्थान या पतन का कारण बन सकता है. अभी भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने कहा, कि समाज के कुछ वर्ग उसकी ज़ेब में हैं. यह बहुत फूहड़ और अज्ञान से भरी बात है. कभी कोई किसी की ज़ेब में नहीं होता. ईमानदारी और निष्ठा से काम करके व्यक्ति और वर्ग का विश्वास, सहयोग और समर्थन तो अर्जित किया जा सकता है, लेकिन किसी को अपनी ज़ेब में रखा नहीं माना जा सकता. लोकतंत्र में तो यह किसी भी सूरत में मुमकिन नहीं है.

विचार करने पर स्पष्ट होता है, कि 2018 में मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को क्या सिर्फ़ ग़ैर-बामन-बनियों ने अपना मत दिया था ? यह संभव ही नहीं है. समाज के इन वर्गों के भी बड़ी संख्या में लोगों ने यदि समर्थन नहीं दिया होता, तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनना संभव ही नहीं था. इसके अलावा यह कहना, कि कोई आपकी ज़ेब में है, उसकी समझ और विवेक पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है.  भारत दुनिया का सबसे बड़ा ही नहीं, सबसे परिपक्व लोकतंत्र है. इसमें मतदाता की सामूहिक समझ इतनी मेच्योर है, कि उसके मन की बात कोई नहीं जान सकता. उसके मन में क्या है, इसे वह कभी किसी को नहीं बताता. जो सामने आता है, उसके सामने उस जैसी बात करता है, लेकिन मतदान करते समय वह वही करता है, जो उसका विवेक कहता है. उसके इसी विवेक ने भारत में बड़े-बड़े कद्दावर नेताओं को पानी पिलाया है और सरकारें बदल दी हैं. लिहाजा उसे Taken For Granted मानना बहुत बड़ी नासमझी है.  
 

उत्तर प्रदेश में मायावती को यह भ्रम हो गया था, कि दलित वर्ग एकतरफा उनकी पार्टी बसपा के साथ है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पिछले चुनावों में उसे एक भी सीट नहीं मिली. समाजवादी पार्टी भी मुस्लिम-यादव वोटरों को अपनी ज़ेब में मानकर चल रही थी, लेकिन  उसका भी बहुत बुरा हश्र हुआ. और भी अन्य राज्यों में अनेक नेताओं में समाज के कतिपय वर्गों को अपनी ज़ेब में मान लिया था, जो उनके लिए घातक साबित हुआ. राजीव गांधी जब नये-नये प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने सार्वजनिक भाषण में कह दिया था, कि “पाकिस्तान को नानी याद दिला देंगे”. यह एक बहुप्रचलित मुहावरा है, लेकिन देश के लोगों ने इसे अच्छा नहीं माना. उनकी घोर आलोचना हुई, जिससे उन्होंने सबक भी लिया. उन्होंने फिर कभी ऐसी कोई बात नहीं कही.  गुजरात के विधानसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने भाजपा को “मौत का सौदागर” कहकर अपनी पार्टी की हार सुनिश्चित कर ली थी.
 

इसके अलावा कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर द्वारा बोला गया “नीच” शब्द उनकी पूरी पार्टी के लिए बहुत महंगा साबित हुआ. पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने “चौकीदार चोर है” कहकर अपने दल का कितना चुनावी अनहित किया, इसको कोई भी थोड़ी राजनितिक समझ वाला व्यक्ति समझ सकता है. मध्यप्रदेश में “माई का लाल” जुमले को भी भाजपा की हार की बड़ी वजह बताया गया. वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने एक चुनाव में वहाँ अपनी पार्टी की महिला उम्मीदवार को “टंच माल” कहा था, जिसके कारण उनकी बहुत आलोचना हुई. कमलनाथ ने पूर्वमंत्री इमारती देवी को “आइटम” कहकर अपनी ख़ूब भद्द पिटवाई. हाल ही के उप-चुनाव में उन्होंने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वी.डी शर्मा के विरुद्ध “निक्कर” वाला बयान देकर अपनी मज़म्मत करवाई.
 

दुनिया के कई देशों के आधुनिक इतिहास की कुछ घटनाओं पर विचार करके यह बात और भी स्पष्ट रूप से समझी जा सकती है. रूस में लेनिन की मूर्तियों को ज़मींदोज़ किया गया. इराक में सद्दाम हुसैन की प्रतिमाएं लगी थीं, जिन्हें धूल में मिला दिया गया. जो लोग इनकी एक तरह से पूजा करते थे, उन्होंने ही इनकी प्रतिमाओं का अपमान किया. हाल ही में T20 क्रिकेट मैच में भारतीय टीम की पाकिस्तान की टीम के हाथों पराजय को वहां के गृह मंत्री ने इसे ”इस्लाम की जीत” कहकर अपनी जग हंसाई करवाई. इमरान खान ने जब कहा कि “अभी हम भारत से बात नहीं करेंगे, क्योंकि अभी वह मैच हारने के सदमे में हैं”, तो उन्होंने अपने घोर छिछोरेपन का परिचय दिया.
 

इस तरह की बातें सार्वजनिक जीवन में बिलकुल बर्दाश्त नहीं की जाती. इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत अच्छी मिसाल हैं. उनके विरोधी भी इस बात के कायल हैं, कि उनकी भाषा बहुत संयत है. वह बहुत योग्य कम्यूनिकेटर हैं. उनसे सहमति या असहमति हर किसी की अपनी सोच है, लेकिन उनके इस गुण की तारीफ़ तो की ही जानी चाहिए और की जा रही है. यह बात सदा-सर्वदा सच है, कि हमेशा कोई सत्ता में नहीं रहता. सत्ताएँ बदलती रहती हैं. इसलिए जो लोग आज सत्ता में हैं, उन्हें हमेशा विनम्र होना चाहिए. जब देश का प्रधानमंत्री “सबका साथ,सबका विकास, सबका विश्वास” की बात कर रहा हो,तो उसके दल के किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी समुदाय या वर्ग विशेष के पक्ष या विरोध में कुछ कहना अविवेक है.


 
यह बात किसी एक दल या नेता या किसी ख़ास वर्ग के लिए नहीं है. सार्वजनिक जीवन में हर स्तर के व्यक्ति को अपनी भाषा के प्रति बहुत सजग रहना ज़रूरी है. सार्वजनिक या राजनीतिक जीवन में वह कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि अपने संगठन और उसकी विचारधारा का प्रतिनिधि होता है. हालाकि पार्टियाँ यह कहकर पल्ला झाड़ती हैं, कि ’यह उनका व्यक्तिगत बयान है”. लेकिन ऐसा नहीं होता. सार्वजनिक जीवन में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता. भाजपा के उक्त नेता के प्रश्नाधीन बयान पर उनकी पार्टी क्या स्टैंड लेती है और उनके साथ क्या व्यवहार करती है, यह तो समय बतायेगा, लेकिन पब्लिक और मीडिया तो उन्हें लताड़ ही रहा है. यह बात हर किसी नेता के लिए एक सबक है.