मुस्लिमों को स्वतंत्र रूप से आत्मचिन्तन की ज़रुरत, सहिष्णुता एकतरफा कब तक संभव है
पिछले दो दिनों में कांग्रेस के उत्तरप्रदेश के दो नेताओं की ऐसी दो बातें सामनें आयीं, जिनसे एक बार फिर हो गया है, कि इन जैसे नेता ही भारत में मुस्लिमों के सबसे बड़े दुश्मन हैं. पूर्व केन्द्रीय क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद की किताब की वो बातें सामने आयीं, जिनके अनुसार “हिंदुत्व” की तुलना मुस्लिम आतंकी संगठनों आईएसआईएस और बोकोहोरम से की गयी है. इसके बाद कांग्रेस के पूर्व केन्द्रीय मंत्री राशिद अल्वी ने कहा, कि राम का नाम लेने वाले लोग निशाचर हैं. निशाचर यानी राक्षस.
इन दोनों नेताओं ने जो घोर अपत्तिजनक बातें कही हैं, उनसे उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को कितना नुकसान पहुँचाया है, इसका उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा. उपरोक्त दोनों आतंकी संगठनों से सलमान द्वारा हिन्दुत्व के समर्थकों से करना उनकी और कांग्रेस की उस पुरानी सड़ी सोच को फिर से उजागर करता है, जिसमें भारत के मुस्लिमों को कभी देश के बहुसंख्य हिन्दुओं के साथ जुड़ने में हमेशा बाधा पहुंचाई. कांग्रेस और उसके नेता ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष यानी सेकुलर कहते रहे और सियासत के लिए धर्म का सबसे ज्यादा दुरूपयोग भी उन्हीं ने किया.
भारत एक सेक्युलर देश है, जिसका अर्थ सर्वधर्म समभाव” किया गया. यानी शासन की नज़र में सभी धर्म समान होंगे. सरकार किसी एक धर्म के पक्ष या विपक्ष में नहीं रहेगी. सभी धर्मों के मानने वालों को अपने धर्म के अनुसार जीवन जीने की आज़ादी होगी. किसीके साथ भी धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं होगा.
लेकिन देखा और अनुभव तो यही किया गया है कि, देश में बहुत अधिक समय तक जिस दल का शासन रहा, उसने अपना वोट बैंक मजवूत बनाने के लिए ख़ूब मुस्लिमपरस्ती की. इसीको धर्मनिरपेक्षता मान लिया गया. मुस्लिम हितों के नाम पर सिर्फ उस समुदाय के कुछ नेताओं को अपने पक्ष में रखने के लिए उन्हें कई तरह से नवाज़ा. उन्हीं को मुस्लिम समाज का सच्चा नुमाइंदा मानकर सरकार उन्हीं के हाथों में खेलती रही. ये नेता इसी कारण आम मुस्लिमों को इस प्रकार गुमराह करती रही कि, वे कभी इस खेल को समझ ही नहीं पाये. वे आँख मीचकर उनकी सभी बातें मानते गये. मुस्लिमों को कट्टर बनाना इस नेताओं और उनके सियासी आकाओं के हित में था, इसलिए उन्होंने आम मुस्लिमों को कभी उदारता और स्वतंत्रता से सोचने की दृष्टि ही नहीं दी.
ऐसा नहीं है, कि मुस्लिम समाज में उदारवादी सोच के नेता और अन्य लोग नहीं हैं. विवेकशील लोगों की कभी भी नहीं है. वे कभी-कभी बहुत जोखिम उठाकर बोलते भी हैं, लेकिन माहौल ऐसा बना दिया गया कि, आम मुस्लिम उनको तवज्जो ही नहीं देता.
उत्तरप्रदेश में कुछ दल इतने मुस्लिमपरस्त हो गये कि, उनकी सरकार के रहते मुस्लिमों को कुछ भी करने की खुली छूट मिल गयी. इससे उन्हें एकमुश्त मुस्लिम वोट पाने में मदद मिली. लेकिन अपने दलीय हितों के लिए, इन दलों ने ऐसा क्यों नहीं सोचा कि, एक समुदाय की कट्टरता दूसरे समुदायों में कट्टरता पैदा करेगी. ऐसा कैसे हो सकता है कि, एक पक्ष उदार बना रहे और दूसरा कट्टर? इसके कारण हिन्दुओं में भी कुछ कट्टरता आती जा रही है, जो आत्मरक्षा के लिए ज़रूरी है.
इस प्रकार एक धर्मिक सम्प्रदाय को अपने साथ लाने में कुछ सियासी दलों ने पूरे देश और समाज के हित पर बहुत गहरा कुठाराघात किया. उन्हें यह क्यों नहीं समझाया गया कि, जब जीवनभर इसी देश में रहना है, तो देश के बाक़ी सभी समुदायों के साथ मिलकर रहना ही हर प्रकार से उनके और पूरे देश के हित में है. इस भावना की कमी के चलते देश के बाहर की भारत विरोधी शक्तियां हमेशा इन लोगों की भावनाओं को उभारकर देश के विरुद्ध भड़काती रहती हैं.
हिन्दुओं को किसी धर्म से परहेज नहीं
भारतीय दर्शन के अनुसार जिस तरह सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती है, उसी तरह सारे मार्ग (धर्म) उस परमसत्ता की ओर ही जाते हैं. इसी कारण सनातन हिन्दू धर्म में बहुत व्यापक दृष्टि है. जब यहाँ ईसाई लोग आये, तो केरल में भारत के लोगों ने उनका बाहें फैलाकर स्वागत किया. मुस्लिमों का भी बाहें फैलाकर स्वागत किया गया. भारत की पहली मस्जिद केरल में ही बनी. पारसियों को अपनाकर उन्हें अपने तरह से जीने की सुविधा दी.
गुजरात के सूरत में जब मुस्लिम सौदागर आये, तो वहाँ स्थानीय लोगों ने उनका पूरा आदर-सत्कार ही नहीं किया, बल्कि उन्हें अपने मजहब के अनुसार इबादत करने के लिए सुविधाएँ भी उपलब्ध करवायीं. अनेक जगहों पर हिन्दू राजाओं ने उन्हें मस्जिद बनाने के लिए मुफ्त ज़मीनें और अन्य सुविधाएं प्रदान कीं. सूफी संतों का भारत में कितना सम्मान है और उन्हें कितनी श्रद्धा के साथ माना जाता रहा है, इस बात को कौन नहीं जानता?
समस्या की जड़
लेकिन समस्या कैसे खड़ी हुई? इसकी जड़ हमलावर मुसलमानों की गतिविधियों में निहित है. वे लूटमार के मकसद से भारत आये, लेकिन यहाँ की आंतरिक कमजोरियों का फायदा उठाकर वे यहाँ के शासक बन बैठे. उन्होंने अरब में बैठे अपने आकाओं को यह जताने की कोशिश की कि, वे इस्लाम का प्रसार कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने यहाँ के मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को तोड़ना शुरू किया. अनेक तोड़े गए स्थलों पर मंदिरों के मलवे से ही मस्जिदों का निर्माण कर दिया. उनकी नीति थी कि, हमारी बात मानों नहीं तो मरो या कष्ट उठाओ.
मुस्लिम शासकों में भारत में लोगों को इस्लाम में लाने के लिए कई तरीके अपनाए. लोगों को जबरदस्ती इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया. अनेक प्रकार के प्रलोभन और सुविधाएं देकर लोगों को इस्लाम अपनाने के लिए प्रेरित किया गया. कुछ ऐसे कर लगा दिए, जो सिर्फ हिन्दुओं को ही देना होता था. जो हिन्दू इन करों का भुगतान नहीं कर सकते थे या नहीं करना चाहते थे, उन्होंने इस्लाम कबूल कर इन करों से निजात पा ली. इस्लाम कबूल करने वालों को नौकरियां दीं.
सल्तनत काल में और उसके बाद मुग़ल काल में मजहब के नाम पर जो ज्यादतियाँ की गयीं, वे इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. यहीं से हिन्दुओं को मुस्लिमों से परहेज़ होने लगा. राजनीतिक सत्ता मुस्लिमों के हाथ में थीं और उनके पास बहुत मजबूत फ़ौजी ताक़त थी, लिहाजा उनसे परहेज़ करने के बाद भी हिन्दू लोग कोई बहुत प्रतिरोध नहीं कर सके. सल्तनत काल में राजपूतों ने यथाशक्ति उनका सामना किया, लेकिन दुर्भाग्य से वे सफल नहीं हो सके.
इसके बाद मुग़ल काल में मराठों और सिखों ने अत्याचारी मुस्लिम शासकों से जमकर लोहा लिया और उन्हें नाकों चने चबवा दिए. सत्ता तो सत्ता होती है. मराठों और सिखों को सीमित सफलताएं मिलती रहीं, लेकिन वे कभी पूरे भारत को मुगलों से मुक्त नहीं करा पाए. ओरंगजेब तक आते-आते स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि, हिन्दू और मुस्लिमों के मन में बहुत गहरी खाई हो गयी.
इस तरह हिन्दू अपने धर्म की रक्षा के लिए कुछ कट्टर होते चले गये. मध्यकाल के एक बहुत सटीक उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि, किस तरह हिन्दुओं में यह भाव आया. गुरुनानक देवजी ने समाज के दबे-कुचले और गरीब लोगों को सम्मानजनक जीवन जीने में सुविधा देने के लिए “सिख” धर्म की स्थापना की. यह बिलकुल शांतिपूर्ण धर्म था. इसमें सभी धर्मों की समानता और सभी धर्मों के सम्मान की बात कही गयी.
फिर ऐसा क्या हुआ कि, पांचवें गुरु अर्जुनदेव को धर्म की रक्षा के लिए शहीद होना पड़ा. शहीदी का सिलसिला इतना बढ़ता गया कि, गुरु गोविन्दसिंहजी को तलवार उठानी पड़ी. खालसा पंथ की स्थापना करनी पड़ी? उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने चार शहजादों की बलिदानी दी और ख़ुद भी शहीद हो गये. ऐसा इसलिए हुआ कि, धर्म के नाम पर हिन्दुओं पर लगातार अत्याचार हो रहे थे. इन तथ्यों को कोई नहीं झुठला सकता.
मुस्लिमों के लिए विचारणीय प्रश्न
आज़ादी के बाद भारत का विभाजन हुआ और धर्म के नाम पर पाकिस्तान बन गया. इसके बाबजूद अनेक मुस्लिम भारत में ही रह गये. उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देकर अपनी प्रगति के लिए अनेक प्रकार की विशेष सुविधाएं दी गयीं. आज उनके बच्चे पढ़-लिख रहे हैं, वे नौकरी-व्यवसाय कर रहे हैं. उनके साथ धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं होता. उन्हें अपना मजहब अपने हिसाब से मानने की पूरी आज़ादी है.
ऐसी स्थिति में उनके सामने प्रश्न यह है कि, क्या वे सल्तनत काल और मुगलकाल में जो हुआ, उसे सही मानते हैं? यदि गलत मानते हैं, तो कभी इस बात को किसी मुस्लिम नेता ने खुलकर नहीं कहा. उन्हें यह समझना चाहिए कि, उन्हें और उनकी आने वाली पीढ़ियों को इसी देश में रहना है. उन्हें दूसरे धर्मों के साथ एडजस्ट करना आना चाहिए. सियासी इस्लाम की जगह आध्यात्मिक इस्लाम को तरजीह देना चाहिए.
कट्टरवाद तो हिन्दुओं के डीएनए में ही नहीं है. उन्होंने सदा सभी धर्मों का आदर और सम्मान किया है. उनके पूर्वज ऋषियों ने उन्हें यही शिक्षा दी है. लेकिन सहिष्णुता एकतरफा तो नहीं हो सकती. यदि आप सहिष्णुता नहीं दिखाएँगे, तो दूसरों से इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैं? आज भी हालात पूरी तरह हाथ से नहीं निकलें हैं. थोड़ा-सा भी बदलने से बहुत कुछ बदल सकता है. दोनों धर्म सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर चलकर संसार के सामने उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं.