19 साल की उम्र में चढ़ गये थे फाँसी
दुनियाँ में ऐसा कोई देश नहीं जो कभी न परतंत्रता के अंधकार में न डूबा । लेकिन उनमें से अधिकांश का स्वरूप ही बदल गया । आज उन देशों की पूर्व संस्कृति का कोई अता पता नहीं है । लेकिन भारत में दासत्व के लंबे अंधकार के बाद भी उसकी संस्कृति पुष्पित और पल्लवित हो रही है । इसका कारण यह है कि भारत में संस्कृति की रक्षा के लिये प्रतिक्षण बलिदान हुये । ऐसे बलिदान लाखों हुये जिन्हें सत्ता की कोई चाहत नहीं थी । वह संघर्ष राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए था । ऐसा ही बलिदान क्राँतिकारी खुदीराम बोस का था । जो सोलह वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई छोड़कर क्राँतिकारी बने और उन्नीस वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही फाँसी पर चढ़ गये । ऐसे अमर बलिदानियों के आत्मोत्सर्ग से हमें यह स्वतंत्रता मिली है जिनमें से अधिकांश को हम स्मरण तक नहीं करते ।
ऐसे ही अमर बलिदानी हैं क्राँतिकारी खुदीराम बोस । क्रान्ति कारी खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के ग्राम बहुबैनी में 3 दिसंबर 1889 को हुआ था । शिक्षा, संस्कार और स्वाभिमान उनकी विरासत रही । माता लक्ष्मीप्रिया देवी की दिनचर्या धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन से ओतप्रोत थी तो पिता त्रैलोक्यनाथ बोस संस्कृत के विद्वान थे । अपनी परंपरा के अनुरूप उन्होने बालक को पढ़ने भेजा । विद्यालय का वातावरण यद्यपि अंग्रेजों की दासता से भरा था जहाँ प्रतिदिन प्रार्थना में अंग्रेज शासक के प्रति नमन् की प्रार्थना होती थी । यह बात खुदीराम बोस के पिता को पसंद न थी । पर विवशता के चलते खुदीराम विद्यालय जाते रहे पर उन्होंने न केवल अपने बच्चे अपितु विद्यालय जाने वाले अपने आसपास के सभी बच्चों को घर में संस्कृत और संस्कारों की शिक्षा घर में आरंभ कर दी ।
बंगाल में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति अपमानजनक व्यवहार किसी भी स्वाभिमानी भारतीय को पसंद न था । इसकी अभिव्यक्ति समय समय पर होती रही । इसी बीच 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय किया । इस निर्णय का आधार नगरीय क्षेत्रों में साम्प्रदायिक तुस्टीकरण और वनवासी क्षेत्रों में मिशनरीज की जड़े जमाना था । बंगाल विभाजन के समय खुदीराम सोलह वर्ष के थे और नौवीं कक्षा में पढ रहे थे । बंगाल विभाजन का विरोध आरंभ हुआ और पुलिस ने इस विरोध को शक्ति से दबाना शुरू किया । संघर्ष और दमन के चलते पूरे बंगाल में तनाव हो गया । किशोर वय खुदीराम बोस पढ़ाई छोड़ कर आँदोलन में जुट गये । उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ली । वे भले पन्द्रह सोलह वर्ष के थे लेकिन उनकी कदकाठी बहुत दुबली थी इस कारण वे अपनी आयु चार पाँच साल छोटे लगते थे । इस कारण पार्टी ने उन्हें पर्चे बांटने, पिस्तौलें और संदेश यहाँ वहाँ भेजने के काम में लगाया ।
इसका आरंभ वंदेमातरम के पोस्टर बांटने और उन्हें चिपकाने के काम से हुआ । वे एक बार पोस्टर चिपकाते पकड़े गए आयु से कम दिखने के कारण थानेदार ने छोटा बच्चा समझा । उन्हें चांटे लगाकर और चेतावनी देकर छोड़ दिया । खुदीराम बोस ने पहला बम 28 फरवरी 1906 को उस ट्रेन पर फेका जिसमें वायसराय निकलने वाले थे । लेकिन निशाना चूक गया । खुदीराम बंदी बना लिये गये लेकिन वे कैद से निकल भागे । इसी बीच वे क्राँतिकारी युवकों के दल युगान्तर से भी जुड़ गये । उन दिनों बंगाल में एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड आया वह क्राँतिकारी आँदोलन ही नहीं अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शित की गयी किसी भी असहमति पर कठोर यातनाएं देता ।
अदालत में अपमानित करता, जेल में यातनाओ के खुलेआम आदेश करता । युगान्तर पार्टी ने इस मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड को रास्ते से हटाने का सौचा । इसकी खबर सरकार को लग गयी थी इसलिये उसका तबादला मिदनापुर से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । मुजफ्फरपुर इन दिनों बिहार में है । युगान्तर पार्टी ने उसे वहीं जाकर सबक सिखाने का निर्णय लिया और इस काम के लिये खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को चुना गया । दोनों क्राँतिकारी मुजफ्फरपुर पहुँचे । उन्होंने उसकी दिनचर्या का पता लगाया । और 20 अप्रैल 1908 को उसे क्लब के बाहर बम से उड़ाने की योजना बनी । बम फेकने का काम खुदीराम बोस को दिया गया जबकि प्रफुल्ल चाकी पिस्तौल लेकर चला । कि यदि बम से बचे तो गोली मारी जाये । निर्धारित तिथि पर रात साढ़े आठ बजे मजिस्ट्रेट की बग्गी निकली । लेकिन उसमें मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड नहीं बैठा था दो ब्रिटिश महिलायें मिसेज केनेडी और उसकी बेटी बैठीं थीं । मजिस्ट्रेट ने क्यों अपनी बग्गी बदली और क्यों अपनी बग्गी में दो यूरोपियन महिलाओं को बिठाकर बाहर भेजा । इस रहस्य से कभी पर्दा न उठा ।
बग्गी की प्रतीक्षा बाहर दोनों क्राँतिकारी कर रहे थे । जैसे ही बग्गी उनकी पहुँच के भीतर आयी, खुदीराम ने बम फेक दिया । बम निशाने पर लगा । बग्गी के चिथड़े उड़ गये । बम कितना जबरदस्त था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी आवाज तीन मील तक सुनी गयी । पूरा इलाका दहल गया । दोनों क्राँतिकारी भागे । भागकर वैनी स्टेशन आये पर यहाँ पुलिस से घिर गये । अपने बचने का कोई मार्ग न देख प्रफुल्ल चाकी ने पिस्टल से स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बंदी बना लिये गये । उन्हें जेल में भारी प्रताड़ना दी गयी ताकि वे अपने अन्य क्राँतिकारियों के नाम बता दें । पर खुदीराम ने मुँह न खोला । और अंततः 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दी गयी । तब उनकी आयु पूरे उन्नीस वर्ष भी न थी । वे श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित पाठ करते थे और फाँसी के समय भी वे गीता अपने साथ ले गये थे ।