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भारतीय राजनीति के लिए क्या पनौती है जिन्ना ? सनातनी अखिलेश माया, ममता और मोदी में अंतर क्यों ? सरयूसुत मिश्रा

सार

भारतीय राजनीति के लिए जिन्ना एक पनौती बन गए, अखिलेश यादव जिन्ना के जिन्न के कारण विवादों में तो घिर ही गए,लेकिन जिन्ना को भारतीय मुसलमान अपना नायक कभी नहीं मानती, जिन्ना का नाम कभी भी मुस्लिम समुदाय के लोग नहीं लेते...

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विस्तार

भारत में कहीं भी चुनाव हों और पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना का जिक्र नहीं हो ऐसा कैसे हो सकता है ? भारतीय राजनीति के लिए जिन्ना एक पनौती बन गए हैं| इस बार जिन्ना की पनौती सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के सिर पर चढ़ गई है. यूपी चुनाव में मुस्लिम मनौती के लिए  जिन्ना पनौती का फल तो चुनाव परिणाम के बाद पता चलेगा| लेकिन अखिलेश यादव जिन्ना के जिन्न के कारण विवादों में तो घिर ही गए हैं|

भारत के विभाजन के लिए आम तौर पर भारतवासी जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं| यह धारणा धीरे धीरे सार्वभौमिक सत्य के रूप में देखी और महसूस की जाने लगी| धारणा और सत्य में अंतर हो सकता है, लेकिन एक बार जो धारणा सत्य के रूप में मन मस्तिष्क पर दर्ज हो जाती है, फिर उसको बदलना असंभव होता है| जिन्ना देश भक्त थे या देशद्रोही? इस बारे में इतिहास अलग-अलग विचार बताता है|

आज कोई भी इतिहास का छिद्रान्वेषण कर जिन्ना के जीवन कार्य और विचारों को देशभक्ति से जोड़ने का कितना भी प्रयास करे, नए भारत में अब यह संभव नहीं है| भारत ने विभाजन की जो त्रासदी झेली है उसकी कटु  स्मृतियां सदियों तक भारतीयों को सालती रहेंगी| जो व्यक्ति भारत माता के विभाजन करने का हिस्सा रहा हो, उसका नाम चुनाव में उछालने का मकसद, मुस्लिमों के थोकबंद वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने से ज्यादा और कुछ भी नहीं हो सकता|

जिन्ना को भारतीय मुसलमान अपना नायक कभी नहीं मानती| विभाजन के समय जो मुसलमान जिन्ना के विचारों से सहमत थे वो  तो पाकिस्तान चले गए| जो मुसलमान विभाजन के हक में नहीं थे भारत में रहे| जिन्हें भारत की मिट्टी की एकीकरण की तासीर गंगा- जमुनी संस्कृति और तहजीब पर यकीन था वही भारत की मिट्टी में बसे| एक और विडंबना जो हमें परेशान करती है वह यह है कि जिन्ना का नाम कभी भी मुस्लिम समुदाय के लोग नहीं लेते|

हिंदू नेता अपने स्वार्थ में जिन्ना का नाम उछालते हैं| इस बार यूपी चुनाव को देखते हुए अखिलेश यादव ने जिन्ना का नाम उछाला| यूपी की चुनावी राजनीती अब्बाजान चचाजान से और जिन्नाजान के बीच झूल रही है|भाजपा के दूसरे नंबर के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कराची में जिन्ना की मजार पर जा कर अपना बहुत राजनीतिक नुकसान कराया था| आडवाणी के लिए जिन्ना पनौती साबित हुए थे|

भारतीय राजनीति में मुसलमानों की स्थिति आज दोराहे पर है| मुसलमानों को लेकर एक आम धारणा है कि वह एक राजनीतिक दल को अछूत मानते हैं उससे परहेज करते हैं| मुसलमानों का यही राजनीतिक भेदभाव भारतीय राजनीति में उन्हें अलग-थलग कर रहा है| आजादी के बाद भारतीय मुसलमान, कांग्रेस के साथ रहे|

क्षेत्रीय दलों के विकास के साथ मुसलमान हर राज्य में अलग-अलग क्षेत्रीय दलों के साथ जुड़ गए|कांग्रेस को लगभग छोड़ दिया| जिन राज्यों में भाजपा कांग्रेस के अलावा तीसरा विकल्प नहीं है उन्हीं राज्यों में मजबूरी बस मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में दिखाई पड़ते हैं| भारतीय मुसलमान 2014 के पहले सत्ता की राजनीति में अपना दबदबा  और रुतबा मानते रहे हैं|

यह अलग बात है कि यह भी काल्पनिक ज्यादा था| भारतीय राजनीति उत्तरी ध्रुव से चक्कर लगाते हुए दक्षिणी ध्रुव पर जब पहुंच गई, तब मुसलमान चिंतित होने लगे, उनकी चिंता को डर में बदलने का काम दूसरे राजनीतिक दलों ने बखूबी किया|

भाजपा से मुसलमानों का डर, आज कांग्रेस और  क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए फायदे का राजनीतिक सौदा बना हुआ है| आज भारत की राजनीति जिस दौर में पहुंच गई है उसमें मुसलमानों को अपने राजनीतिक  नजरिए और विचार पर पुनर्विचार की आवश्यकता है| डर के आगे जीत है इस पर अब मुसलमानों को चलने की जरूरत है|

अपनी  पुरानी राजनीतिक धाराओं को तोड़ते हुए आगे बढ़ने पर भारतीय मुसलमान भारतीय राजनीति की  मुख्यधारा में आ सकेंगे| 2014 के पहले तक जो भी मुस्लिम राजनीति चली वह समानता से ज्यादा
तुष्टीकरण पर आधारित थी|

तीन बार मुस्लिम  समाज में से भारत के राष्ट्रपति बने| जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और अब्दुल कलाम|  इसके बाद भी आज देश में मुस्लिम राजनीति का कोई आइकॉन नहीं है| जो मुस्लिम राजनेता कुछ दलों में हैं,और जिनके अपने दल हैं, वो पूरे मुस्लिम समाज का चेहरा और आइकॉन नहीं बन सके|

प्रश्न यह है कि भारतीय मुसलमानों को राजनीतिक दलों के प्रति नजरिए और धारणा पर नए सिरे से सोचने और विचारने की जरूरत क्यों है? भारत में कई राज्यों में लंबे समय से भाजपा की सरकारें हैं| 2014 के बाद केंद्र में भी नरेंद्र मोदी की सरकार काम कर रही है|

भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के साथ बराबरी के साथ न्याय और विकास किया है| अल्पसंख्यक के नाते मुस्लिम समुदाय के लिए जो योजनाएं पहले से चल रही थी,
उनसे दो कदम आगे बढ़कर योजनाएं अभी चलाई जा रही हैं|

भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों ने एक क्रांतिकारी विचार आगे बढ़ाते हुए सरकारी योजनाएं जाति और धर्म से ऊपर उठकर बनाना शुरू की| चाहे जन धन योजना हो चाहे उज्जवला योजना| आयुष्मान योजना हो या गरीबों को राशन देने की योजना, इनमें कोई जाति और धर्म नहीं है| हिंदुओं के समान मुसलमान भी इस योजना का लाभ उठा रहे हैं|

मुसलमान भले ही नहीं उठाएं, लेकिन तुष्टीकरण करने वाले राजनीतिक दल यह सवाल उठाते हैं| भाजपा में मुसलमानों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता| ऐसा हो सकता है, लेकिन मध्यप्रदेश का उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां पिछले18 सालों से भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और उसमें कोई भी मुसलमान मंत्री नहीं रहा| इसके बावजूद क्या कोई कह सकता है कि मध्यप्रदेश में मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव या अन्याय हुआ है|

शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में भी ऐसी ही योजना बनाई है जिनमें जाति धर्म का कोई बंधन नहीं है| चाहे लाड़ली लक्ष्मी योजना हो, मुख्यमंत्री मेधावी विद्यार्थी योजना हो, स्वरोजगार योजनाएं या अन्य योजनाएं हों, सभी में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय को बराबरी से लाभ मिलता है|

भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों का रोल मॉडल मुसलमानों को सोचने पर मजबूर करता है कि जब हिंदुत्व की पार्टी मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार में समानता का व्यवहार और विकास योजनाओं में समान भागीदारी सुनिश्चित हो  रही है, तब मुसलमानों को किसी किसी दल को अछूत और किसी को पक्ष का मानने की क्या आवश्यकता है|

राजनीतिक दलों को अछूत और पक्ष में बांटने की मुस्लिम राजनीति पर नए सिरे से विचार कर बदलाव करने का यह स्वर्णिम समय है| अगर भारतीय राजनीति में आया बदलाव मुसलमानों की भागीदारी के बिना चलता रहा तो मुसलमानों के राजनीतिक अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े हो जाएंगे|

किसी एक दल के साथ जाने से मुसलमानों को आज तक क्या लाभ हुआ| उन दलों को भले लगातार सत्ता मिलती रही हो, लेकिन मुसलमानों का विकास तो उतना ही हुआ, जितना स्वाभाविक रूप से होता है| सच्चर कमेटी में भी यह बात उजागर हुई थी कि विकास की दृष्टि से मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही है|

जब हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी की सरकारों में भी मुसलमान  को समान न्याय और समान विकास का हक मिला हुआ है तो फिर किसी दल के साथ पूरे समुदाय को जुड़े होने की धारणा क्यों नहीं तोडना चाहिए ?

इसका लाभ मुस्लिम समुदाय को ही मिलेगा, आज उनकी पहुंच जहां सीमित है, वही अपनी अछूतवादी विचारधारा त्यागने के बाद उन्हें राजनीति का नया परिवेश और परिधान मिलेगा| मुस्लिम टोपी पहन कर जो लोग मुस्लिम हितचिंतक बनने का दिखावा करते हैं, उनसे अभी तक मुस्लिम समाज को क्या हासिल हुआ ?

केवल राजनीतिक अलगाववाद ही मुसलमानों को मिला| क्योंकि मुसलमानों ने हिंदुत्व वाली पार्टी की सरकारें भी देख ली हैं| ऐसी स्थिति में उनका विश्वास मजबूत होना चाहिए कि भाजपा की सरकारें भी विकास में मुसलमानों को पूरा हक और सम्मान देती हैं|

आज भारत में अधिकांश राज्यों में सनातनी लोगों की सरकारें काम कर रही हैं| जब सनातन लोगों  के राजनीतिक दलों के साथ ही राजनीति करनी है तो फिर अखिलेश माया ममता और मोदी में अंतर क्यों किया जाना चाहिए ? मुसलमानों द्वारा राजनीतिक अछूतवाद के विचार को तिलांजलि देने से सामाजिक और राष्ट्रीय एकता भी नए दौर में पहुंचेगी|