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क्या ज़रूरी - पुलिस कमिश्नर प्रणाली या पुलिस रिफॉर्म्स ? सरयुसूत मिश्र 

सार

पुलिस रिफॉर्म्स छोड़कर पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कैसे होगा सुधार ? प्रणाली में सुधार का देश को लंबे समय से इंतजार, इसके बावजूद भी राज्य सरकारें पुलिस रिफॉर्म को लेकर केवल दिखावा कर रही हैं, ये विचार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर व्यक्त किये गए..

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विस्तार

पुलिस रिफॉर्म्स छोड़कर पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कैसे होगा सुधार ? पुलिस प्रणाली में सुधार का देश को लंबे समय से इंतजार है| भारत की सर्वोच्च अदालत ने सितम्बर 2006  में पुलिस रिफार्म के लिए गाइडलाइन और आदेश जारी किए थे| सर्वोच्च न्यायालय स्वयं इस गाइडलाइन के अनुपालन की निगरानी कर रहा है| इसके बावजूद राज्य सरकारें पुलिस रिफॉर्म को लेकर केवल दिखावा कर रही हैं| कोई भी सरकार गाइडलाइन का अक्षरशः पालन नहीं कर रही हैं| ये विचार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर व्यक्त किये गए हैं| 

पुलिस में सुधार धीरे धीरे जन जन का विषय बनता जा रहा है| सरकारें पुलिस को  स्वायत्त नहीं बनाना चाहती| पुलिस का उपयोग राजनीतिक सरकारों के लिए छोड़ना बहुत मुश्किल काम है| मध्यप्रदेश भी उन “सौभाग्यशाली” राज्यों की श्रेणी में शामिल हो रहा है जहां कुछ शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हो रही है| मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की घोषणा की है| इस प्रणाली की सफलता अथवा असफलता तो लागू होने के बाद धीरे-धीरे पता चलेगी, लेकिन अभी जिन राज्यों में कुछ शहरों में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू है वहां की स्थितियों के बारे में जानना आवश्यक है|

देश की राजधानी दिल्ली मुंबई हैदराबाद अहमदाबाद जयपुर लखनऊ जैसे शहरों में सीपी सिस्टम काम कर रहा है| यदि हम मुंबई की बात करें तो सीपी सिस्टम और पुलिसिंग की सही स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है| मुंबई पुलिस के सीपी रहे एक अधिकारी जो अब डीजीपी होमगार्ड्स बन गए हैं वसूली के आरोपों में लगभग एक माह से लापता हैं| मुकेश अंबानी के घर के सामने विस्फोटक भरी गाड़ी प्लांट करने के लिए भी पुलिस को ही जांच में दोषी पाया गया है| डांस बार और शराब माफियाओं से पुलिस के संस्थागत गिरोह द्वारा वसूली का मामला भी उभरा है| देश की राजधानी दिल्ली में भी सीपी सिस्टम है इस सिस्टम से पुलिस की छवि पर कोई फर्क नहीं पड़ा है| दिल्ली में निर्भया कांड, पुलिस वकील भिडंत और जेएनयू का घटनाक्रम में पुलिस ने उसी तरह का व्यवहार और विवेचना की है जैंसा सामान्य क्षेत्रों की पुलिस द्वारा की जाती है|

हैदराबाद में तो एक वेटनरी  डॉक्टर से रेप और हत्या के मामले में पकड़े गये चारों आरोपियों को पुलिस द्वारा एनकाउंटर कर दिया गया और इस तरह से विवेचना ही समाप्त कर दी गयी| भारत में एक आम कहावत है कि पुलिस से ना दोस्ती अच्छी है और ना दुश्मनी| पुलिस आम लोगों के लिए मित्रवत नहीं बल्कि डर की सेवा बनी बनी हुई है, पराधीन भारत में पुलिस हुक्मरानों की कठपुतली बनी हुई थी, इस मानसिकता में आज भी बदलाव नहीं दिखाई पड़ता, अंतर केवल इतना है कि अंग्रेज हुक्मरानों की जगह सत्ता पक्ष के नेताओं ने ले ली है| आज आवश्यकता राजनीतिक दबाव से मुक्त और तकनीक वाली पुलिस सेवा की है|

पुलिस का आधुनिकीकरण समय की मांग है, अपराधों का स्वरूप  बदल रहा है, आज साइबर अपराध तेजी से हो रहे हैं, पुलिस की प्रणाली भर बदल देने से   बढ़ते और बदलते क्राइम और क्रिमिनल्स को रोकना कैसे आसान होगा ? सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस रिफॉर्म के लिए जो गाइडलाइन तय की है उसके अनुसार -

1- “स्टेट सिक्योरिटी कमीशन” का गठन  ताकि पुलिस बिना दबाव के काम कर सके|

2- “पुलिस कंप्लेंट अथॉरिटी का गठन” जो पुलिस के खिलाफ शिकायतों की जांच करे|

3- थाना प्रभारी से लेकर डीजीपी स्तर तक की एक स्थान पर कार्य अवधि 2 वर्ष सुनिश्चित की जाए|

4- नया पुलिस अधिनियम लागू किया जाए|

5- अपराध की विवेचना और कानून व्यवस्था के लिए अलग-अलग पुलिस की व्यवस्था की जाए|

मुख्यतः उपरोक्त सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित गाइडलाइन के अनुसार पुलिस सुधार की कार्रवाई के बिना पुलिस की छवि, सुधारना संभव नहीं लगता| डीजीपी स्तर के अधिकारी के लिए तो 2 वर्ष का कार्यकाल निश्चित कर दिया गया है| सुप्रीम कोर्ट इन गाइडलाइंस के अनुपालन की निगरानी कर रहा है और प्रकरण में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राज्य पुलिस सुधार के प्रति उदासीन हैं|

पुलिस इस्टैब्लिशमेंट बोर्ड का गठन राज्यों में किया जरूर गया है, लेकिन उसका प्रैक्टिकल उपयोग पुलिस के हित में नहीं हो रहा है| अभी भी प्रक्रिया वही है केवल कागजी खानापूर्ति बोर्ड से होती है| सारी पुलिस खराब है ऐसा नहीं कहा जा सकता, ऐसे अनेक दृश्य और घटनाएं सामने आई हैं, जिसमें पुलिस ने मानवीयता की  हद तक जाकर नागरिकों की रक्षा की है| लेकिन आमतौर पर पुलिस की छवि तानाशाहीपूर्ण जनता के साथ मित्रवत ना होने और अपने अधिकारों के दुरुपयोग करने वाली रही है|

मानव अधिकारों का हनन  एनकाउंटर और पुलिस कस्टडी में डेथ के दाग  पुलिस पर हमेशा लगते रहते हैं| पुलिस का नाम लेते ही क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, रौब, उगाही, रिश्वत, आदि जैसे शब्द दिमाग में कौंध जाते हैं| जो पुलिस आम आदमी के दोस्त होती है वही आम आदमी पुलिस का नाम सुनते ही सिहर जाता है, यथासंभव पुलिस से बचने का प्रयास करता है|

पुलिस कमिश्नर प्रणाली में आईएएस अफसरों के पास अभी तक उपलब्ध मजिस्ट्रियल अधिकार पुलिस अधिकारियों को मिल जाएंगे| यह अधिकार पुलिस को मिलने से पुलिस प्रणाली में कैसे सुधार होगा? पावर की जमीदारी अभी तक आईएएस अफसरों के पास थी अब आईपीएस के पास पहुंच जाएगी, तो इससे क्या अंतर आएगा?

सिविल और पुलिस सेवा के अधिकारियों में टकराव और ईगो  का भुगतान तो आम व्यक्ति को ही करना होगा| जैसे “चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे और चाहे खरबूजा चाकू पर” अंततः कटना खरबूजे को है, और यही स्थिति आम जनता की होती है|

कानून और शांति व्यवस्था पर वास्तविक नियंत्रण अभी भी पुलिस के पास ही है| केवल कागज पर आदेश जारी करने की शक्तियां डीएम और दूसरे प्रशासनिक अधिकारियों के पास हैं| “डंडा, गोली और गाली” अभी भी पुलिस के ही पास है| पुलिस आयुक्त प्रणाली में भी उन्ही के पास रहेंगे| जमीनी स्तर पर अभी भी पुलिस का ही डंडा चलता है|

सीपी सिस्टम के पक्ष में विशेषज्ञ यही एक बात जोर देकर कहते हैं कि पुलिस के पास मजिस्टेरियल अधिकार आ जाने से निर्णय त्वरित हो सकेगा| निर्णय में विलंब के कारण बिगड़ने वाली कानून व्यवस्था की स्थिति नई प्रणाली में नहीं होगी|

“जिसकी लाठी उसकी भैंस” की कहावत समाज में चारों ओर दिखाई पड़ती है| कलम के अधिकार वाली सेवाओं से ज्यादा मौके पर डंडे की शक्ति वाली पुलिस सेवा का रुतबा होता है| निर्णय कुछ भी हो जाए जमीन पर उसको उतारना और किसी भी चीज पर कब्जा  करने के लिए डंडे वाली फ़ोर्स ही अनिवार्य होती है|

सिविल और पुलिस सेवा शासन के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग हैं| इन दोनों सेवाओं के बीच इंटीग्रेशन से ही नेशन का निर्माण होगा|  इन सेवाओं के बीच अधिकारों के सेपरेशन से केवल ईगो का टकराव होगा जो जनहित में नहीं  होगा| आईएस सेवा सिस्टम में भी सुधार की ज़रूरत है| 

पुलिस काफी दबाव में होती है, राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण होने से, पुलिस पर दबाव बढ़ता है| पुलिस भी इसी समाज से आती है| “काम, क्रोध, लोभ,मद, मोह” जब संत महात्मा तक को घेर लेते हैं तब पुलिस अधिकारी तो इन सब के बीच ही अपना दिन गुजारते हैं| ऐसे हालात में पावर का बैलेंस सिविल और पुलिस सेवाओं के बीच में होना आवश्यक लगता है| 

“एब्सलूट पावर” किसी को देने से क्या यह सही दिशा में होगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, सीपी सिस्टम अनाचार, अत्याचार करेगा तो फिर कौन सा सिस्टम जनता को राहत देगा ? मध्य प्रदेश में अचानक दो शहरों भोपाल इंदौर में सीपी सिस्टम की घोषणा के विभिन्न पहलुओं पर गौर करना जरूरी है| पुलिस आयुक्त वाले शहरों में कलेक्टर  और दूसरे प्रशासनिक अधिकारी क्या राजस्व का ही काम देखेंगे? कानून व्यवस्था में उनकी क्या भूमिका होगी ?

पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने के पहले सर्वोच्च न्यायालय के पुलिस रिफार्म  गाइडलाइन पर सरकार को काम करना चाहिए| पुलिस पर राजनीतिक दबाव खत्म होना चाहिए| पुलिस राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए इंस्ट्रूमेंट नहीं बने| परिधान बदलने, श्रृंगार करने अथवा उघडे  हुए की सिलाई करने  को सुधार नहीं कहा जा सकता| सुधार के लिए आत्मा बदलनी पड़ती है| सिविल और पुलिस सेवाओं के बीच समन्वय और संतुलन पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए|

सिविल सेवा बड़ी है, पुलिस सेवा बड़ी है, ऐसा नहीं है, दोनों सेवाएं जिस की सेवा के लिए हैं वही सबसे बड़ा है और उसी के नजरिए से सारे बदलाव होंगे तो व्यवस्था अपने आप सुधरेगी| एक कवि की कुछ पंक्तियों के साथ हम अपनी बात समाप्त कर रहे हैं “कुछ निर्णय बड़े अजब हैं, बड़ी गजब हैं कुछ बातें, दिन की कीमत में गिरवी रख लेती हैं, ये- रातें| हंसते गाते कर जाती हैं यह आंसू का व्यापार, बड़ा अजब है बड़ा गजब है, शासन का संसार|