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आज जब झिलमिलाते शहर की होलोरें मारती झील के किनारे से गुजरता हूँ तो लगता है कि जिसने मुंबई की मैरिन ड्राइव को 'ज्वेल आफ इंडिया' का विशेषण दिया था उसे एक बार रात में भोपाल के वीआईपी रोड़ से ड्राइव पर निकलना चाहिए। हजारों दूधिया मर्करी की प्रतिछाया झील के साफ पानी पर ऐसे झलकती हैं मानों जुगनुओं की बारात सजी हो।
बरसात के बाद तो भोपाल शहर के सौंदर्य का कहना ही क्या..। सड़कों के किनारे की हरीतिमा और किसी नागिन के देह सी पसरी स्याह फक्क सड़कें। बरसों पहले विश्वेश्वरैया के बंगलुरू में ऐसी सड़कें व हरीतिमा देखी थी।
भोपाल हर साल साँप सी केंचुल छोड़ता हुआ नित नवेला बन जाता है। जो आज है कल उससे जरा हटके, जरा अलग दिखेगा..।
इस भोपाल को मैं सन् 1982 से देख रहा हूँ..हँसते हुए, डसते हुए..नित नया चोला बदलते हुए। क्या कहें इसकी तासीर ही ऐसी है जो मजबूरियों पर हँसता है और खुशियों को डसता है..। ये अपना भोपाल गजब के कन्ट्रास्ट में जीता है।
किताबों में राजधानी के तौर पर पढ़ चुके एशिया की सबसे बड़ी ताजुल मस्जिद की मीनारों व 'तालों में ताल भोपाल ताल' वाले इस शहर से मेरा पहला वास्ता 1982 में पड़ा, एक नौकरी के लिए साक्षात्कार के चलते।
दिल-ओ-दिमाग में जबलपुर बसा था और वहां के नेताओं के मुँह से यदाकदा यह लांछन सुनता रहा कि भोपाल ने राजधानी बनने का जबलपुर का हक को छीना है।
बिलासपुर-इंदौर एक्सप्रेस से भोपाल स्टेशन में उतरते ही.. कुली आटो और ताँगावालों की जुबान से फुलझड़ियों की तरह माँ-बहन की लड़ियाँ झरते ही समझ में आ गया कि बड्डे एई भोपाल है..यहाँ किसी को अल्सेट देने से काम चलने वाला नइ..।
स्टेशन से बाहर वही भटसुअर(एक टेम्पो जिसकी बनावट की वजह से शायद ये नाम मिला) स्वागत में खड़े मिले जिनसे जबलपुर में रोज का ही वास्ता पड़ता रहा है।
बहरहाल अपना दिल एक ताँगे पर आ गया। लपक-झपक झुलमुलियों से सजा हुआ ताँगा और उसपर जुते हुए कलगीदार घोड़े..बिल्कुल फिल्म 'नयादौर' के उस ताँगे की तरह जो मोटर से मुकाबला करता है।
ताँगेवाले ने ही यह जानकारी दुरूस्त की कि बीआर चौपड़ा की इस फिल्म की सूटिंग भोपाल से ही कुछ दूर होशंगाबाद रोड़ पर बुदनी कस्बे में हुई थी।
अफसोस जताते हुए ताँगे वाले ने बताया था- ये 'माँ-का-लड़ा' घोड़ा दगा दे गया वरना अपना ऐई ताँगा उस फिलम मेंं दिलीप कुमार के साथ दिखता। मैंने उसे हल्का करते हुए कहा- कोई बात नहीं आपके बिरादरय का ताँगा होगा..।
अपन नहीं जानते थे कि जहँगीराबाद किधर है, जहाँ मुझे रुकना था पर मेरी दिलचस्पी को देखते हुए ताँगेवाले ने पुराने भोपाल घुमाने की ठानी।
मैंने उसे ताजुल मस्जिद के बारे में जो पढ़ा था बताया कि ऐसी शानदार मस्जिद कहीं नहीं है। घोड़े की रिदमिक टप्प-टप्प के साथ ताँगा जिधर से भी गुजरता वह सब मेरे लिए नया था।
(...आगे कल पढ़िए)
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स्वदेश भोपाल ने इस विजयदशमी को अपना 41वाँ जन्मदिन मनाया। संपादक शिवकुमार विवेक ने तब और अब के भोपाल पर एक विशेषांक सँजोया जिसमें कई नामचीन लेखकों के संस्मरण हैं..अपने से भी भोपाल पर कुछ लिखने को कहा..सो ये है जो मैंने लिखा.. जरा लंबा है सो पढ़ने की सहूलियत के हिसाब से इसे किश्तों में दे रहे हैं..यह आपकी दिलचस्पी पर निर्भर करेगा कि अगली किश्त कल दें या अगले हफ्ते.