राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल सांस्कृतिक मूल्यों की लोकतांत्रिक साधना का आस्था पर्व बन गया है..!!
देश में इतने लंबे कार्यकाल के दो ही संगठन है. कांग्रेस 140 साल की हो गई है और आरएसएस सौ साल का. कांग्रेस का पतन और आरएसएस का उत्थान इसलिए एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, क्योंकि यह विचारों का संघर्ष है, जिस संघ पर कांग्रेस प्रतिबंध लगाती रही है, वहीं संघ आज केंद्र और राज्य की संरकारों का भाल बन गया है.
संघ के शताब्दी समारोह सरकारें आयोजित कर रही हैं. देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री संघ की वेशभूषा में उसका गौरव गान कर रहे हैं. कांग्रेस की सरकारों में शासकीय अमले के संघ की शाखाओं में जाना प्रतिबंधित था. अब भाजपा शासित राज्य संघ की शाखाओं में जाने वाले स्वयंसेवकों को राष्ट्र सेवक का दर्जा देती है.
संघ के शताब्दी वर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि भारतीय मुद्रा पर भारतमाता की छवि अंकित होना है. पीएम नरेंद्र मोदी ने संघ के शताब्दी वर्ष की स्मृति में डाक टिकट और सौ रुपए का सिक्का जारी किया है. डाक टिकट में कांग्रेस के शासनकाल में गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल हुए आरएसएस के स्वयंसेवकों की स्मृतियां संजोई गई हैं. तो सिक्के पर एक तरफ राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ है और दूसरी तरफ सिंह पर बैठी वरद मुद्रा में भारत माता की एक भव्य छवि अंकित है, जो हथेली को बाहर की ओर करके अर्पण का एक भाव है. इसमें स्वयंसेवकों को भक्ति और समर्पण भाव से उनके समक्ष नतमस्तक दिखाया गया है. सिक्के पर आरएसएस का आदर्श वाक्य अंकित है. जिसका अर्थ है सबकुछ राष्ट्र को समर्पित सब कुछ राष्ट्र का है कुछ भी मेरा नहीं है.
ऐसा पहली बार हुआ है जब भारत माता की छवि भारतीय मुद्रा पर छापी गई है. सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के जिस उद्देश्य से संघ स्थापित किया गया था, उसके लिए यह अवसर आत्मसंतोष और आत्मगौरव का है. आरएसएस अकेला ऐसा संगठन है जो बिना सरकार में रजिस्ट्रेशन के राष्ट्र की सेवा और व्यक्ति निर्माण पर काम कर रहा है. इस संगठन ने कभी भी अपने उद्देश्यों में बदलाव नहीं किया. जो उद्देश्य स्थापना के समय था, वही आज भी कायम है.
इतनी लंबी यात्रा में संघ ने केवल पाया है. खोया कुछ भी नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि बाधाएं कितनी भी आई हों, लेकिन लक्ष्य के प्रति अडिग रहने के कारण शताब्दी वर्ष में न केवल सरकारें मना रही हैं, बल्कि लोकतांत्रिक साधना के प्रतीक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उसका गौरव गान कर रहे हैं.
आरएसएस राजनीति में सीधे भाग नहीं लेता लेकिन राजनीति बिना उसके सहयोग के चलती भी नहीं है. भारत से ज्यादा संघ की चर्चा पाकिस्तान में होती है. पाकिस्तान संघ की वैचारिक दृढ़ता से डरता है. संघ पोषित सरकारों से वह डरता है. तो यह उन सांस्कृतिक मूल्यों का डर है, जो भारत को भारत बनाते हैं.
कांग्रेस की दृष्टि आरअएसएस के प्रति हमेशा नकारात्मक ही रही है. उनकी नकारात्मकता ही आरएसएस और उनके राजनीतिक सहयोगियों की ताकत कही जा सकती है. ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है, जहां संघ काम नहीं कर रहा हो. वामपंथियों का वैचारिक मुकाबला संघ की ही शक्ति का परिणाम है. आज संघ को आरोपित किया जाता है कि शिक्षण संस्थान और सरकार से जुड़े विभिन्न संगठनों में उसका कब्जा हो गया है. जब उन पर वामपंथियों का कब्ज़ा था तब सवाल नहीं खड़े किए जाते थे.
संघ पर कांग्रेस सरकार द्वारा डाली गई ऐतिहासिक बाधाओं को पार करना आसान नहीं था. क्योंकि लक्ष्य स्पष्ट था, राष्ट्र साधना उद्देश्य था, समर्पण मार्ग था, राष्ट्र की सेवा धर्म था, इसलिए विजयी तो होना ही था. संघ की स्थापना विजयदशमी पर हुई थी और शताब्दी समारोह में विजयदशमी पर ही भारतीय मुद्रा पर भारतमाता की छवि अंकित हुई है.
विजय का यह पर्व राजनीतिक नजरिए से नहीं बल्कि देश के सांस्कृतिक मूल्यों के नजरिए से भारत की दूसरी आजादी कही जा सकती है. अनेकता में एकता हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की धारा है. इस धारा को बचाए रखना जरूरी है. बीजेपी और संघ के रिश्तों को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं. एक दौर तो ऐसा था जब बीजेपी के साथ कोई दूसरा राजनीतिक दल इसलिए अपना संबंध तोड़ देता था क्योंकि बीजेपी के नेता के संघ से जुड़ाव को दोहरी सदस्यता के रूप में देखा जाता था. आज वही संघ की दोहरी सदस्यता बीजेपी में सबसे शक्तिशाली होने का प्रमाण बन गया है.
आलोचना किसी की भी की जा सकती है. नफरत मन का विषय है, जो नफरत करता है, नफरत उसके मन में होती है. आरएसएस से भी नफरत कुछ राजनेताओं का एजेंडा है. कांग्रेस इसका मुखौटा बनी हुई है. राहुल गांधी तो जैसे संघ का विरोध कर अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं. विदेश में भी संघ के शताब्दी अवसर पर राहुल गांधी अगर उसे कायर कह रहे हैं तो यह संघ के खिलाफ नहीं है, बल्कि उस लोकतांत्रिक साधना के खिलाफ है. जिसके बलबूते आज संघ के विचारों का पोषण केंद्र और राज्य की अनेक सरकारें कर रही हैं.
संघ की ग्रोथ स्टोरी भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की स्टोरी कही जाएगी. भारत में आरएसएस को कोई पसंद करें या नापसंद करे, लेकिन अब उसे इग्नोर करना लगभग नामुमकिन है. संघ की कार्य पद्धति संघ में जाकर ही समझी जा सकती है. इसे दूर से देखकर समझना कठिन है.
जो दूर से देख रहे हैं, वही उसके आलोचक हैं. आलोचक को भी राष्ट्र सेवा से जोड़ना, जिस संगठन का उद्देश्य हो उसको कौन हरा सकता है.