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राजनीति में इशारे समझना पड़ते हैं

सार

बीजेपी में अमित शाह का हर शब्द मायने रखता है. वह बहुत तोल मोल कर बोलते हैं. वह कम ही बोलते हैं लेकिन उनके फैसले ज़रूर बोलते हैं..!!

janmat

विस्तार

    एमपी में शिवराज की लीडरशिप में चुनावी जीत के बाद नए मुख्यमंत्री मोहन यादव और उनके बीच सार्वजनिक तुलना उन्होंने पहली बार की है. तारीफ तो दोनों नेताओं की है, लेकिन एमपी को बीमारू राज्य से बाहर निकालने का क्रेडिट शिवराज को देते हुए कहते हैं कि, मोहन यादव उनसे ज्यादा ऊर्जा से काम कर रहे हैं. मध्य प्रदेश अब विकसित बनेगा.

   केंद्रीय गृहमंत्री ने रीजनल इन्वेस्टर समिट मॉडल की भी तारीफ की. उनका यह मध्य प्रदेश दौरा बहुत सारे राजनीतिक संदेश दे गया. अगर इन संकेतों को पढ़ा जाए तो यह कहा जा सकता है कि, उन्होंने मोहन यादव को राजनीतिक ताकत दी. प्रदेश में उनके खिलाफ़ होने वाली किसी भी संभावित राजनीतिक उठापटक को भांपते हुए सभी को चुप्पी साधने का संकेत किया.

    सिंधिया को भी उन्होंने पर्याप्त महत्व दिया. ग्वालियर सिंधिया का गृह नगर है. वहां अमित शाह ने उन्हें जिस तरह का सम्मान शब्दों और बाड़ी लैंग्वेज के माध्यम से दिया, वह भी एमपी की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है. विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और सिंधिया दोनों ग्वालियर से आते हैं. इन दोनों कद्दावर नेताओं के बीच राजनीतिक तनातनी की खबरें आती रहती हैं.

    सबसे अधिक चर्चा इस बात की हो रही है कि, शिवराज और मोहन यादव में तुलना के पीछे क्या राजनीतिक समीकरण हैं. राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जहां कभी भी खींचतान बंद नहीं होती. जो भी पावर में होते हैं उनके बारे में शीर्ष नेतृत्व के पास पक्ष और विपक्ष में जुड़े तथ्य भेजे ही जाते रहते हैं.

    शिवराज स्वयं को एमपी की जीत का नायक मानते हैं. सीएम की कुर्सी पर उनका स्वाभाविक दावा माना जा रहा था, लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी ने मोहन यादव को यह मौका दिया. शिवराज सिंह चौहान केंद्रीय कृषि मंत्री के रूप में आज महत्वपूर्ण भूमिका में है लेकिन उनसे प्रदेश की राजनीति छूट नहीं पा रही है. 

    मोहन यादव को सीएम के रूप में पार्टी ने चुना है. विधायकों का बहुमत उनके साथ न पहले था और ना अभी माना जाता है. यह मैसेज पहले दिन से स्पष्ट था कि, यादव पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की पसंद हैं. सरकार के दो साल पूरे हुए हैं. अभी तक खुलकर कोई राजनीतिक विरोध तो नहीं दिखाई पड़ा है लेकिन विभिन्न मुद्दों पर संगठन, विधायकों और संघ संगठनों में नाराजगी ज़रूर दिखाई पड़ी है. 

    सीएम के लिए सबसे बड़ा झटका उनके गृह नगर उज्जैन में सिंहस्थ के लिए बनाए गए लैंड पुलिंग कानून को रद्द किया जाना है. इसके लिए बाकायदा किसान संघ द्वारा आंदोलन किया गया था. इस मामले में शाह ने मुख्य सचिव और अन्य जिम्मेदार अधिकारियों के साथ चर्चा की थी. सीएम ने इसे वापस ले लिया था लेकिन इसका जो स्वरूप बचा था उसका भी विरोध हुआ. अब उसे पूरी तरह से रद्द कर दिया गया है. इस घटना से साफ है कि, शाह की पूरी नजर मध्य प्रदेश की राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों पर बनी रहती है. 

       शिवराज सिंह चौहान ताकतवर नेता हैं. दिल्ली में उनका दखल कम नहीं है. मध्य प्रदेश सरकार में भी सूचनाओं के सूत्र तो निश्चित रूप से उनसे संपर्क में होंगे. मोहन यादव ने शिवराज सरकार की कई योजनाओं के नाम भी बदले हैं. सीएम राइज स्कूल शिवराज का बड़ा प्रेस्टीजियस प्रोजेक्ट था. मोहन यादव ने इन स्कूलों का नाम बदलकर सांदीपनी स्कूल कर दिया है.

    शिवराज सिंह की मध्य प्रदेश में जमीनी पकड़ से इनकार नहीं किया जा सकता. जब कोई इतना ताकतवर नेता सामने हो तब मुख्यमंत्री को अगर मजबूती से चलना है तो वैसा ही संदेश देना पड़ेगा, जैसा अमित शाह ने ग्वालियर में दिया है. 

    राजनीति में सार्वजनिक प्रशंसा केवल सार्वजनिक उपयोग के लिए ही होती है. आंतरिक राजनीति में इसका कोई खास उपयोग नहीं होता है. मोदी और शाह की नजर में जो नेता उनके काम, समर्पण और निष्ठा के कारण चढ़ते हैं, उनकी जानकारी पार्टी को बहुत देर से लगती है. 

    बीजेपी के नए कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष की कार्य प्रणाली को कब से इन दोनों नेताओं द्वारा ट्रेक किया जाता रहा होगा, फिर भी ना उन्हें अंदाजा था और ना ही पार्टी के किसी भी स्तर के के नेता को आभास हुआ था. जब गुजरात में विजय रुपाणी की पूरी कैबिनेट बदल दी गई थी, तब उसके एक दिन पहले पीएम मोदी ने सार्वजनिक रूप से सीएम की प्रशंसा की थी. इसी तरह का वाक्या उत्तराखंड और हरियाणा में भी हुआ है. 

  जब भी सार्वजनिक तारीफ होती है तो इसके पीछे उद्देश्य यही होता है कि, उस नेता के खिलाफ़ जो आंतरिक राजनीति हो रही है, उसको नियंत्रित किया जाए. ऐसा लगता है कि, अमित शाह ने ग्वालियर में वही किया है. सिंधिया को तो महत्व मिलना ही था. पुनः बीजेपी को एमपी में स्थापित करने को लेकर उनकी भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है. 

    राज्यों में पहले कैबिनेट सरकार हुआ करती थी. अब सीएम सरकार काम करती हैं. हर राज्य में सीएम के नाम से ही सरकार को प्रचारित प्रसारित किया जाता है. सरकारों में सामूहिक जिम्मेदारी और हिस्सेदारी होती है. जिम्मेदारी पर तो किसी को दिक्कत नहीं है. दिक्कत चालू होती है जब सत्ता की हिस्सेदारी में असंतुलन होने लगता है.

    हर मुख्यमंत्री अपनी कार्यशैली और परफॉर्मेंस से ही प्रशंसा हासिल करता है. असली प्रशंसा सार्वजनिक रूप से जनादेश ही देता है. शीर्ष नेतृत्व की प्रशंसा उत्साहित जरूर करती है. इससे जोश भी बढ़ता है. जोश में होश बनाए रखना और शालीनता के साथ सब को साथ लेकर चलने की कला  ही किसी नेता को शीर्ष पर पहुंचाती है. मोदी और शाह ने स्वयं मेहनत और परफॉर्मेंस से यह ऊंचाइयां हासिल की है.