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कांग्रेस में छटपटाहट, बदलाव की आहट 

सार

सोनिया गांधी जिस डर से प्रियंका वाड्रा को पीछे रख रही थी वह अब सच साबित होता दिख रहा है. सोनिया गांधी जानती थी कि जब प्रियंका और राहुल में तुलना की जाएगी तो राहुल पीछे रह जाएंगे. 21 साल की राजनीतिक उम्र वाले राहुल गांधी की एंग्रीमैन पॉलिटिक्स से ना केवल कांग्रेस आजिज आ रही है बल्कि गठबंधन भी किनारा करने लगा है..!!

janmat

विस्तार

    कांग्रेस की कार्यशैली में यह बदलाव की छटपटाहट ही है कि पार्टी के एक मुस्लिम सांसद प्रियंका को नेतृत्व सौंपने की मांग कर रहे हैं. वे तो उन्हें पीएम बनाने की बात कर रहे हैं. यह भावना केवल एक सांसद की नहीं है बल्कि राहुल की कार्यशैली से नाराज वर्तमान और पुराने कांग्रेसी नेताओं के चेहरों पर भी पढ़ी जा सकती है.

    लोकसभा का मानसून सत्र प्रियंका के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ है. उनकी राजनीति के प्रियदर्शनी स्वरूप ने कांग्रेस नेताओं के साथ ही गठबंधन और यहां तक की बीजेपी सरकार को भी प्रभावित किया. सदन में उनकी भाषा शैली, प्रजेंटेशन और सरकार के साथ लोकतांत्रिक व्यवहार के नजारों ने देश का ध्यान आकर्षित किया है. प्रियंका गांधी ने जब सदन में सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से सवाल-जवाब करते हुए अपने लोकसभा क्षेत्र के मुद्दों पर उनसे मुलाकात के लिए आग्रह किया तो गडकरी ने कहा कि किसी अपॉइंटमेंट की आवश्यकता नहीं है. 

    दूसरा नजारा सत्र के बाद लोकसभा अध्यक्ष द्वारा बुलाई बैठक में दिखा. यहाँ प्रधानमंत्री के साथ प्रियंका के संवाद के जो दृश्य देश ने देखे उसने राजनीति और भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा के लिए मजबूर किया. राहुल को कभी भी पीएम या किसी केंद्रीय मंत्री के साथ इतनी सहजता और शिष्टता के साथ बात करते हुए नहीं देखा गया है. प्रियंका गांधी की स्वीटनेस और राहुल गांधी की एरोगेंट पॉलिटिक्स में अंतर साफ-साफ देखा जा सकता है. 

    प्रियंका में इंदिरा गांधी का लुक पहले से ही देखा जाता रहा है. अंग्रेजी में सिद्धहस्त प्रियंका ने अपने सभी महत्वपूर्ण भाषण सदन में हिंदी में दिए हैं. हिंदुस्तान में जननेता बनने के लिए हिंदी में बोलना अनिवार्यता ही कही जाएगी. वंदे मातरम पर डिबेट में प्रियंका के प्रजेंटेशन ने लोगों को आकर्षित किया. तर्क और ताकत के साथ अपनी बात रखना और सरकार का लोकतांत्रिक साथ प्रियंका गांधी की इमेज बिल्डिंग कर रहा है. पीएम और प्रियंका के बीच में वायनाड की हल्दी पर बातचीत भी यही दर्शाती है.

    राहुल गांधी किसी से भी इस तरह के संवाद करें यह कल्पना नहीं की जा सकती. पीएम मोदी के साथ दुश्मनी जैसा भाव प्रदर्शित करना उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया है. राहुल तो मोदी सरकार को ही वोटचोरी की सरकार मानते हैं. जो सरकार को ही वैधानिक नहीं मानते वह उसके लीडर को कैसे मान सकते हैं? मां होने के नाते सोनिया गांधी अपने दोनों बच्चों की राजनीतिक दक्षता और क्षमता से वाकिफ हैं. उन्हें राजनीतिक विरासत बेटे को ही सौंपना था, इसलिए राहुल गांधी को पहले राजनीति में उतारा गया.

    राहुल गांधी जबसे कांग्रेस में आये हैं, तब से उनकी थ्योरी पर ही पार्टी चल रही है. उनके मुद्दे ही कांग्रेस के मुद्दे रहे हैं. यह अलग है कि आज तक राहुल का एक भी मुद्दा ऐसा नहीं रहा जो दीर्घकालीन राजनीति में याद किया जा सके. उनके मुद्दे मोदी सेंट्रिक और पीएम को कमतर साबित करने के होते हैं. प्रधानमंत्री तो स्वयं राहुल गांधी को नामदार और खुद को कामदार कहते हैं, फिर भी राहुल इस राजनीतिक कटाक्ष को समझने के बजाय विदेशों में भी लोकतंत्र, संविधान और मोदी विरोधी नेरेटिव बनाने की कोशिश करते हैं.

    सोनिया गांधी जब राहुल को राजनीति में लाई थी तब उन्होंने ऐसा सोचा था कि युवा नेतृत्व कांग्रेस को ताजगी देगा लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर में पहुंच गई है. कांग्रेस अब देश की राजनीति में अकेले सक्षम नज़र नहीं आ रही है. गठबंधन की राजनीति में भी कांग्रेस की भूमिका कमजोर हो रही है. राहुल गांधी अगर गठबंधन पर सही फैसला लेते तो शायद नीतीश कुमार दोबारा एनडीए में शामिल नहीं होते और देश की राजनीतिक स्थिति थोड़ा भिन्न हो सकती थी.

    प्रियंका गांधी पहले बैक ऑफिस पॉलिटिक्स करती थीं, अब तो वह पहली बार सांसद बनी हैं. संसद में भी कांग्रेस राहुल गांधी को ही लीडर स्थापित करती है. पद तो विरासत में मिल सकता है लेकिन बुद्धि, विवेक तो स्वयं का होता है. प्रियंका ने भी अभी तक कोई खास राजनीतिक चमत्कार नहीं दिखाया है. राहुल जहां सीधे करप्शन के केस में उलझे हुए हैं, वहीं प्रियंका खुद तो बेदाग़ हैं लेकिन रॉबर्ट वाड्रा की गतिविधियां उनके रास्ते के स्पीड ब्रेकर दिखाई पड़ते हैं.

    कांग्रेस से अनेक युवा नेता पार्टी छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए हैं. इन सारे नेताओं की नाराजगी राहुल गांधी और उनके अनिर्णय से रही है. अभी कांग्रेस की पूरी थ्योरी तो राहुल गांधी के हिसाब से ही चल रही है अब उसको बदलने की छटपटाहट कांग्रेस में देखी जा सकती है. कांग्रेस अब राहुल की थ्योरी और रफ्तार से खुद के भविष्य को जोड़ने के लिए तैयार नहीं दिख रही है. 

    इसके साथ ही प्रियंका गांधी धीरे-धीरे अपने पंख और उड़ान दिखाने लगी है. राजनीति में तो जिसमें जीतने की क्षमता हो वही असली नेता होता है. पीएम मोदी को भी राजधर्म का पाठ पार्टी पढ़ा रही थीं, लेकिन जनविश्वास जीतने की उनकी कला की बदौलत आज बीजेपी देश की सत्ता पर काबिज है.

    राहुल गांधी अपनी राजनीति हार चुके हैं अब तो सांसद बने रहना ही उनकी नियति लगती है. प्रियंका गांधी का डंका राहुल गांधी की जिल्लत से जुड़ जाता है. भाई-बहन की बॉन्डिंग लाजवाब है, लेकिन राजनीति में जीतने की क्षमता के अलावा सब कुछ नजरअंदाज हो जाता है. वैसे कांग्रेस के लिए फैसला बहुत कठिन होगा.