आरएसएस के संगठन की तारीफ पर दिग्विजय सिंह कांग्रेस के निशाने पर आ गए हैं. राहुल गांधी भी दिग्विजय से नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं..!!
दिग्विजय सिंह को कांग्रेस के दूसरे नेता भी निशाने पर ले रहे हैं. शशि थरूर जरूर उनका समर्थन कर रहे हैं. दिग्विजय कांग्रेस के उन सीनियर नेताओं में हैं जो 24*7 राजनीति करते हैं. उनकी पॉलीटिकल अवेयरनेस, नॉलेज, पार्टी के लिए कमिटमेंट और इंटीग्रिटी पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. संघ और बीजेपी विरोध के मामले में राहुल गांधी के साथ दिग्विजय सिंह ही कदमताल करते दिखाई पड़ते हैं.
वर्तमान में जो लोग कांग्रेस और गांधी परिवार के करीबी हैं उनमें कोई ऐसा नहीं जो दिग्विजय सिंह के कद की बराबरी कर सके. दिग्विजय सिंह कांग्रेस में रिफॉर्म की बात करते हैं तो यह राहुल गांधी का विरोध माना जाता है. वे अगर आरएसएस और बीजेपी में जमीनी कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने को संगठन की शक्ति को बताते हैं तो इसे संघ की तारीफ माना जाता है.
सोशल मीडिया पोस्ट के बाद जब दिग्विजय का राहुल गांधी से आमना-सामना होता है तब राहुल गांधी अपनी अप्रसन्नता जाहिर करते हैं. राहुल तो कहते हैं कि आपने अपना काम कर दिया, बदमाशी कर दी. अगर सुधार की बात बदमाशी है तो फिर कांग्रेस आज जहां है, उसे उपलब्धि माननी चाहिए. राहुल गांधी और संगठन की यह अप्रोच कांग्रेस के पतन के लिए जिम्मेदार साबित हो रही है.
दिग्विजय सिंह को युवा नेता के रूप में कांग्रेस ने ही आगे बढ़ाया था, वे दो बार के मुख्यमंत्री हैं. उनकी सरकार के बाद फिर मध्यप्रदेश में कांग्रेस खड़ी नहीं हो पाई. जोड़-तोड़कर कमलनाथ की सरकार बनी लेकिन वह भी चल नहीं पाई. कम से कम राज्य में कांग्रेस के संगठन को इतना बुनियादी मजबूती दिग्विजय सरकार के समय ही मिल जानी चाहिए थी कि चाह कर भी कोई इसकी बुनियाद को न हिला सके.
राजनीति में कथनी और करनी दोनों परखी जाती हैं. कथनी के मामले में तो दिग्विजय देश में सबसे चर्चित नेताओं में हैं. उनके अनेकों बयान विवाद का विषय बनते हैं. हाल ही में उन्होंने बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ हो रहे अत्याचार को भारत में एक्शन के खिलाफ रिएक्शन बताया था.
राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह दोनों संघ और बीजेपी के विरोध को अपनी राजनीति का आधार मानते हैं. कोई भी राजनीतिक दल केवल संगठन के आधार पर विजयी नहीं होता. उसके लिए विचारधारा की जरूरत होती है. मजबूत विचारधारा को जब संगठन मजबूती से जमीन पर पहुंचाता है तभी विजय का वरण होता है. कांग्रेस का पतन केवल संगठन की कमजोरी नहीं बल्कि विचारधारा के क्षय के कारण है.
आजादी के समय से ही कांग्रेस अल्पसंख्यकों की राजनीति करती रही है. वोटबैंक की राजनीति में दिग्विजय भी हिंदुओं और सनातन के विरुद्ध बयान देते रहे हैं. दिग्विजय खुद सनातनी हैं लेकिन राजनीति में उनका फोकस तुष्टिकरण पर होता है. रामजन्मभूमि आंदोलन के चढ़ाव और कांग्रेस के उतार का सीधा संबंध दिखाई पड़ता है.
दिग्विजय सिंह के हिंदू विरोधी बयानों ने कांग्रेस को कम नुकसान नहीं पहुंचाया है. भगवा आतंकवाद की थ्योरी जिन नेताओं ने गढ़ी उनमें दिग्विजय का नाम भी प्रमुख है. मुख्यमंत्री के पद से हटने के बाद वे कभी भी चुनाव नहीं जीत सके हैं. दिग्विजय के हिंदुत्व टेरर की थ्योरी के कारण ही मालेगांव ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा को बीजेपी ने चुनाव मैदान में उतार कर जीत हासिल की थी.
दिग्विजय सिंह ने कुछ ऐसे कारनामे किए हैं जो कांग्रेस के लिए नुकसान के स्थाई माध्यम बने हैं. मुंबई में 26/11 के बम ब्लास्ट में संघ का हाथ होने की उनकी थ्योरी अभी तक कांग्रेस के विरोध में दोहराई जाती है. कट्टरपंथी जाकिर नायक की किताब का विमोचन भी दिग्विजय तुष्टिकरण की राजनीति ही करने कही जाती है.
अब दिग्विजय अगर बीजेपी और संघ की संगठनशक्ति की प्रशंसा करते हैं तो उन्हें निश्चित रूप से इसका भी आभास होगा कि वहां परिवार नहीं योग्यता से प्यार किया जाता है. मोदी तो राजनीति में भी नहीं थे. संघ के प्रचारक से उन्हें सीधे मुख्यमंत्री बनाया गया था.
कांग्रेस में तो किसी को नेतृत्व मिल ही नहीं सकता. यह पद तो गांधी परिवार के लिए सुरक्षित है. हर राज्य में ऐसी ही परिस्थितियां हैं. नेताओं के परिवारों की पीढ़ियां ही कांग्रेस का नेतृत्व करती हुई दिखाई पड़ती है. कांग्रेस और बीजेपी में परिवार और योग्यता के बीच मुकाबला है. इसका नतीजा यही होता है जो आज भारत की राजनीति में दिख रहा है.
दिग्विजय सिंह कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता हैं लेकिन उनकी कर्मभूमि मध्यप्रदेश है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस आज कमजोर स्थिति में है. कांग्रेस में दिग्विजय को बहुत कुछ मिला है. उम्र के इस पड़ाव पर अब पाने के लिए कुछ अधिक मौके नहीं है. दिग्विजय अगर पार्टी में रिफॉर्म की बात करते हैं तो उन्हें स्वयं में रिफार्म पर आत्म चिंतन भी करना चाहिए.
कांग्रेस की समस्या यही है कि पार्टी में हर नेता गांधी परिवार के सिंहासन से जुड़े रहने की भीष्म प्रतिज्ञा दोहराता है, लेकिन जब उसे मौका मिलता है तो धृतराष्ट्र की भूमिका निभाता है. जिस संघ पर गांधी की हत्या के आरोप में कांग्रेस ने प्रतिबंध लगाया अब उसकी संगठन क्षमता में अगर कुछ अच्छाई दिख रही है तो उसको अपनाने में कोई बुराई नहीं है. यह चाहे दिग्विजय कहें या कोई और.
कांग्रेस का संकट केवल संगठन नहीं है. नेताओं का स्वार्थ, वंशवादी बीज, सत्ता की लालसा, सेवा भावना का अभाव, खुद के लिए विरोधियों से सौदेबाजी, अनैतिक साधनों से भी समृद्धि की आकांक्षा, पार्टी को दीमक जैसा चाट रही है, इसमें सुधार एक सोशल मीडिया पोस्ट और बयान से नहीं आएगा, इसके लिए आत्मसुधार करना होगा तब पार्टी के पुनर्गठन की संभावना बन सकती है.