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लोक-लुभावनवाद में सरकारें बर्बाद 

सार

आकांक्षाएं जब उफान पर होती है तब धन पर ध्यान नहीं जाता. कर्ज से भी इच्छा पूरी करना हर जीवन का फसाना है. जब केवल वायदा या घोषणा से सत्ता की आकांक्षा पूरी होती हो तो फिर तो उस समय वित्त व्यवस्था कोई मायने ही नहीं रखती..!!

janmat

विस्तार

    चुनाव में लक्ष्य केवल जीत और सत्ता हथियाना है. जब वादे पूरा करने का वक्त आता है तब फिर पैसे का रोना शुरू होता है, यह रवैया महत्वाकांक्षा के पतन का संकेत है. अब तक तो विपक्ष इस पर सरकारों को घेरता रहा है लेकिन जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो सरकारों के मंत्री भी मजबूरी का गीत गाने लगे हैं. 

    जब चुनावी वादे किये जाते हैं तब भी राज्य की आर्थिक स्थिति का अंदाजा होता है. हर साल बजट में कर्ज की स्थिति सार्वजनिक होती है लेकिन जब आकांक्षा उफान पर होती है तो सब भुला दिया जाता है. जब वायदे पूरे नहीं होते तो फिर केंद्र और राज्य आपस में आर्थिक फुटबॉल खेलने लगते हैं, अगर केंद्र और राज्य में सरकार अलग-अलग दल की हैं तो फिर यह मैच खुलकर होता है, और अगर एक ही दल की है तो फिर दबे पांव आगे बढ़ा जाता है. 

    केंद्रीय शहरी विकास मंत्री भोपाल में शहरी विकास की  क्षेत्रीय बैठक में आईना दिखाते हैं कि राज्य चाहते हैं विकास के लिए धनराशि केंद्र दे, राज्य स्वयं राशि नहीं लगाना चाहते. वे राज्यों को आत्मनिर्भर बनने की सलाह भी देते हैं. बैठक में मध्यप्रदेश के नगरीय विकास मंत्री जो अपनी साफगोई के लिए जाने जाते हैं कहते हैं कि जनता को लुभाने में राज्यों की माली हालत बिगड़ रही है,सियासी मजबूरी में की गई घोषणाओं ने राज्यों की माली हालत कमजोर कर दी है. 

    राजनीतिक महत्वाकांक्षा दलों से ऊपर है. पीएम नरेंद्र मोदी ने एक बार राजनीति में रेवड़ी संस्कृति की निंदा की थी और अत्यधिक दान के आर्थिक खतरों से आगाह किया था. प्रतिस्पर्धा में जब दान की चुनावी क्षमता को देखते हुए उन्होंने भी उसी को उत्साहपूर्वक अपना लिया है. यह कोई दलगत सफलता नहीं बल्कि एक संरचनात्मक राजनीतिक समस्या है. दानपुण्य से चुनाव तो जीते जा सकते हैं, लेकिन राष्ट्र या राज्य का निर्माण नहीं हो सकता.

    सत्तापक्ष के लोक लुभावन और अनर्गल खर्चे पर अंकुश लगाने की पहली जवाबदारी विपक्षी दलों की है. विपक्षी दल इसको रोकने की बजाय स्वयं ऐसे वायदे करते हैं कि सत्तापक्ष को भी चुनावी जीत के लिए उसी रास्ते पर चलना पड़ता है. बिहार क्लासिक उदाहरण है. वहां सरकार ने महिला रोजगार योजना के नाम पर ₹10 हज़ार देने का निर्णय लिया तो विपक्षी गठबंधन ने चुनाव जीतने पर ₹30 हज़ार एक मुश्त देने की घोषणा कर दी. 

    कई राज्यों में चुनावी परिणामों ने यह साबित किया है कि खातों में मिल रहे पैसे पर ही मतदाता विश्वास करता है और अवास्तविक वादों को वह नकार देता है. अगर केवल मुफ्तखोरी के वादों से चुनाव जीता जाता तो फिर बड़े वादों को क्यों नकारा गया? आखिरी पलों में किए गए नगद हस्तांतरण से वोट प्रभावित होते हैं, बिहार में महागठबंधन का हश्र यही बताता है.

    उदार गारंटियों की लहर पर सवार होकर सत्ता में आई सरकारें अब उन्हें पूरा करने में संघर्ष कर रही है. आंध्र प्रदेश कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा यहां तक कि बिहार में चुनावी वादों को पूरा करने में सरकारों की अर्थव्यवस्था की साँसे घुट रही हैं सभी राज्य कर्जे लेकर भारी भरकम रियायतें देने के बाद राजकोषीय घाटे से जूझ रहे हैं. लाड़ली बहना जैसी योजनाओं के कमिटमेंट को निभाने के लिए सरकारों के पास दूसरे विवेकाधीन खर्चों के लिए बहुत कम जगह बची है.

    भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी यह है कि हर मुफ्त चीज के पीछे राजनीतिक स्वीकार्यता छिपी है. राज्य सरकारें दान पुण्य की घोषणाएं अपनी वित्तीय सीमा में पूरा करने के लिए सक्षम नहीं होतीं, इसके लिए बाकायदा कर्ज लिया जाता है. जिन रियायतों के वित्तपोषण के लिए कर्ज लिया जा रहा है. इसका मतलब है कि आज के उपभोग को कल के करदाताओं पर थोपा जा रहा है. यह एक तरह का वित्तीय द्रोह है. नई पेंशन स्कीम के बाद कांग्रेस का ओल्ड स्कीम लागू करने के वादा ही लोगों के साथ एक तरीके का धोखा ही कहा जाएगा.

    विपक्ष को राज्य की अर्थव्यवस्था की रक्षा की पहली पंक्ति होना चाहिए लेकिन कोई भी दल गरीब हितैषी नहीं दिखने के डर से मुफ्त सुविधाओं की आलोचना करने का साहस नहीं करता. मुफ्त सुविधा अब सीमाएं तोड़ रही हैं. सरकारें इनके कारण सामान्य कामकाज करने में अक्षम साबित हो रही है. इस पर कोई एक दल कारगर फैसला नहीं कर सकता. इसके लिए तो आम सहमति की जरूरत है. जब सभी राजनीतिक दल मिलकर इस पर आम सहमति बनाएंगे तभी राज्यों की आर्थिक स्थिति और कल्याणकारी घोषणाओं का तालमेल हो सकेगा.

    केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में मनरेगा को बदलकर ‘वीबी जी राम जी’ योजना लाई है. इसमें रोजगार की सीमा बढ़ाकर 125 दिन की गई है. राज्य सरकारें इसका केवल इसलिए विरोध कर रही है कि इसमें राज्यों की भागीदारी 40% की गई है. राज्य सरकारें इतनी हिस्सेदारी के साथ इस योजना को चलाने के लिए स्वयं को असमर्थ पा कर रही हैं.

    देश में मुफ्त योजनाओं के लिए एक राष्ट्रीय संहिता की जरूरत है. इसमें चुनाव आयोग की संवैधानिक भूमिका है. ‘घर में नहीं दाने- अम्मा चली भुनाने’ की सरकारों की नीति बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकती. पब्लिक को भी समझना पड़ेगा कि सरकारें दानपुण्य उनके भरोसे और धन से ही कर रही हैं. उसी में राजनीति का ‘कट-कमीशन’ भी जा रहा है. राज्यों के धन प्रबंधन पर जागरुकता बढ़ाने और सरकारों से सवाल करने की प्रवृत्ति लोकतंत्र और व्यवस्था को मजबूत करेंगे.