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84 महादेव यात्रा का 12वाँ पड़ाव, लोकपालेश्वर महादेव : जब एकता बनी शक्ति और विश्वास बना विजय का मार्ग

सार

हरसिद्धि द्वार पर स्थित श्री लोकपालेश्वर महादेव मंदिर यह शाश्वत संदेश देता है कि संकट चाहे कितना भी विकराल क्यों न हो, यदि विश्वास के साथ एकता हो, तो विजय निश्चित होती है..!!

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विस्तार

हरसिद्धि द्वार पर स्थित श्री लोकपालेश्वर महादेव मंदिर यह शाश्वत संदेश देता है कि संकट चाहे कितना भी विकराल क्यों न हो, यदि विश्वास के साथ एकता हो, तो विजय निश्चित होती है।

उज्जैन—यह नाम मात्र एक नगर का नहीं, बल्कि सनातन चेतना का जीवंत केंद्र है। यह वह भूमि है जहाँ पत्थर भी इतिहास बोलते हैं और मंदिर केवल आराधना के स्थल नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन के शिक्षालय बन जाते हैं। क्षिप्रा के तट पर बसी यह पुण्यनगरी अनगिनत आध्यात्मिक रहस्यों को अपने भीतर समेटे हुए है। इन्हीं रहस्यमय और प्रेरक स्थलों में हरसिद्धि द्वार के समीप स्थित श्री लोकपालेश्वर महादेव मंदिर एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

84 महादेवों की पावन श्रृंखला में 12वाँ पड़ाव रखने वाला यह शिवस्थल केवल आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि यह मानव जीवन को यह सिखाता है कि जब शक्ति बिखर जाती है और अहंकार हावी हो जाता है, तब पराजय निश्चित होती है; किंतु जब विश्वास, समर्पण और एकता एक साथ खड़े होते हैं, तब असंभव भी संभव बन जाता है।

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, हिरण्यकश्यप के वंशज दैत्यों ने एक समय पृथ्वी से लेकर स्वर्गलोक तक अधर्म का साम्राज्य स्थापित कर लिया था। यज्ञ-विधियाँ बाधित कर दी गईं, ऋषि-मुनियों के आश्रम उजाड़ दिए गए और वेदों की दिव्य ध्वनि मौन हो गई। दैत्यों का आतंक इतना व्यापक था कि उन्होंने स्वर्गलोक पर भी अधिकार कर लिया।

इंद्र, यम, वरुण और कुबेर जैसे शक्तिशाली लोकपाल पराजित होकर अपने वैभव और सामर्थ्य से वंचित हो गए। देवताओं का तेज क्षीण होने लगा और त्रिलोक में भय, अराजकता और अधर्म का बोलबाला हो गया।

अहंकार से पराजय, समर्पण से समाधान

देवताओं ने अलग-अलग स्तर पर दैत्यों से संघर्ष किया, किंतु बिखरी हुई शक्ति, परस्पर मतभेद और अंतर्निहित अहंकार के कारण उन्हें बार-बार पराजय का सामना करना पड़ा। तब सभी देवता एकमत होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे।

भगवान विष्णु ने देवताओं को यह गूढ़ सत्य समझाया कि यह संकट शस्त्रों से नहीं, बल्कि सामूहिक साधना और पूर्ण समर्पण से समाप्त होगा। उन्होंने कहा कि देवाधिदेव महादेव ही ऐसे संकटों का समाधान हैं, किंतु उनकी कृपा अहंकार से नहीं, बल्कि त्याग और एकता से प्राप्त होती है।

भगवान विष्णु के निर्देश पर देवता महाकाल वन की ओर प्रस्थान करते हैं, किंतु मार्ग में दैत्यों से पुनः संघर्ष होता है और वे फिर पराजित हो जाते हैं। यह पराजय उनके लिए आत्मबोध का क्षण बन जाती है।

तब सभी देवता कापालिक वेश धारण करते हैं—भस्म से लिप्त शरीर, कपाल, घंट और नूपुर धारण कर वे अपने वैभव, पद और अहंकार का परित्याग कर देते हैं। पूर्ण समर्पण और एकात्म भाव के साथ वे पुनः महाकाल वन पहुँचते हैं।

महाकाल वन में उन्हें एक दिव्य शिवलिंग के दर्शन होते हैं। सभी लोकपाल बिना किसी भेदभाव, पद या अहंकार के, एक स्वर में शिवलिंग की स्तुति करते हैं। यह आराधना न तो व्यक्तिगत थी, न ही स्वार्थपूर्ण—यह सामूहिक, निस्वार्थ और पूर्ण विश्वास से परिपूर्ण थी।

इस अद्भुत साधना से प्रसन्न होकर शिवलिंग से प्रचंड ज्वालाएँ प्रकट होती हैं, जो समस्त दैत्यों का नाश कर देती हैं और त्रिलोक में पुनः धर्म की स्थापना होती है। चूँकि इस शिवलिंग की आराधना समस्त लोकपालों द्वारा की गई थी, इसलिए यह लोकपालेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुआ।

आज के समय में यह कथा केवल पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि जीवन का दर्पण बन जाती है। जब समाज, संगठन या परिवार आंतरिक मतभेदों, अहंकार और अविश्वास से टूटते हैं, तब संकट गहराता है। लोकपालेश्वर महादेव यह सिखाते हैं कि बाहरी शत्रुओं से पहले भीतर के शत्रुओं—अहंकार, भय, द्वेष और संदेह—पर विजय आवश्यक है।

दर्शन और मान्यता

मान्यता है कि लोकपालेश्वर महादेव के दर्शन से शत्रु-बाधाएँ दूर होती हैं। यहाँ शत्रु केवल बाहरी विरोधी नहीं, बल्कि मानसिक तनाव, नकारात्मकता और आत्मसंशय भी हैं। संक्रांति, सोमवार, अष्टमी और चतुर्दशी को यहाँ दर्शन का विशेष महत्व माना गया है, जो अनुशासन, साधना और निरंतरता का प्रतीक है।

पीतल के चौकोर पात्र में स्थापित, सर्प से आवृत यह शिवलिंग केवल एक पत्थर नहीं यह एकता, विश्वास और विजय का शाश्वत प्रतीक है।