राजनीतिक प्रवृतियां आजकल अवसाद क्यों पैदा कर रही हैं? जनता में राजनीति का स्वाद कसैला और बेस्वाद क्यों हो रहा है? योग्यता राजनीति की प्राथमिकता क्यों नहीं रह गई है? राजनीति परिवारवाद, वंशवाद, कुर्सीवाद, पट्ठावाद पर केंद्रित क्यों हो गई है? राजनीति में कार्यकर्ता भाव क्यों समाप्त हो रहा है? सेवा का राजनीतिक जगत, मेवा के लिए क्यों माना जाने लगा है? कोई भी योग्य व्यक्ति राजनीति में असफल क्यों हो जाता है?
राजनीतिक परिदृश्य पर कहीं भी नजर डाली जाए तो साफ-साफ दिख जाएगा कि नकारात्मक शक्तियां हावी हैं। राजनीतिक प्रवचन तो दैवीय दिखेंगे लेकिन आचरण उसके विपरीत होगा। सेवा को सबसे कठिन माना जाता है लेकिन सेवा के नाम पर राजनीति बिना सेवा किए ही अच्छे परिणाम देती हुई दिखाई पड़ती है।
राजस्थान में कांग्रेस पार्टी में मचे घमासान के पीछे भी पट्ठावाद और कुर्सीवाद ही काम कर रहा है। आलाकमान का पट्ठा मुख्यमंत्री बने या मुख्यमंत्री अपने पट्ठे को पद सौंपने में सफल हों, सारा विवाद इसी बात का है। यह किसी एक दल की बात नहीं है। राजनीतिक जगत में पट्ठावाद, वंशवाद और कुर्सीवाद चलता ही रहता है। इस राजनीतिक प्रवृत्ति के लगातार बढ़ने के कारण कार्यकर्ता भाव लगातार दम तोड़ रहा है।
मौत किसी की भी हो कष्टकारी होती है। नष्ट होने का भय ही व्यक्ति का सबसे बड़ा भय होता है। राजनीति में शायद यह भय सबसे ज्यादा काम करता है। इसी भय से बचने के लिए राजनीतिक व्यक्ति कायरता के साथ ऐसा सब करता रहता है जिससे सुविधाजनक ढंग से उसका पद प्रतिष्ठा कायम रहे। कई बार यही भय उत्तरदायित्व और जवाबदेही निभाने के रास्ते में बाधा पैदा करता है। कई बार ऐसी स्थिति भी बनती है कि पद-प्रतिष्ठा बचाने के लिए ऐसा कुछ कर दिया जाता है जो सेवा के नाम पर धोखा कहा जा सकता है।
मध्यप्रदेश में कुछ दिनों पहले बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता उमेश शर्मा का अचानक हृदयघात से निधन हो गया था। उनके निधन के बाद मीडिया और राजनीतिक जगत की अनेक हस्तियों ने उमेश के लिए जिस तरह के उद्गार व्यक्त किए हैं उससे उनकी कर्तव्यनिष्ठा, समर्पण और वाकपटुता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उमेश के बारे में कहा जाता है कि जब 1980 में बीजेपी का गठन हुआ था तब मुंबई में हुए अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेई को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था, उस अधिवेशन में मध्यप्रदेश की ओर से उमेश शर्मा शामिल हुए थे।
मतलब पार्टी के गठन के साथ ही वे राजनीति में सक्रिय थे। उन्हें जनसंघ का कार्यकर्ता माना जाता है। उनकी वाकपटुता बेमिसाल थी। ऐसा बताया जाता है कि उमेश शर्मा छात्र जीवन से ही वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में राज्यस्तर पर ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कार जीत चुके थे। उनकी भाषा शैली और शब्दकोश अद्भुत था।
संगठन और लीडरशिप के प्रति उनकी निष्ठा व समर्पण पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया जा सका। इतनी योग्यता के बावजूद उन्हें ना तो राजनीति में और ना ही संगठन से जुड़े किसी भी पद का अवसर मिल सका। उमेश जैसे वरिष्ठ कार्यकर्ता का सम्मान सभी करते थे लेकिन उन्हें अवसर देने के लिए किसी ने भी विचार नहीं किया।
राजनीति में आज यही सबसे बड़ी कमजोरी है। कार्यकर्ता से ज्यादा अपने परिवार के लोगों को आगे बढ़ाने पर काम किया जाता है। इंदौर में उमेश शर्मा सड़कों पर संगठन के लिए काम करते रहे और उनके सामने नए-नए लोग सांसद, विधायक, महापौर, प्राधिकरण अध्यक्ष बनते रहे। उनमें राजनीतिक अवसाद लगातार बढ़ता रहा।
राजनीतिक प्रक्रिया में कार्यकर्ताओं की योग्यता और कर्तव्यनिष्ठा के मूल्यांकन की कोई संस्थागत व्यवस्था नहीं है। अगर कोई आम कार्यकर्ता ईमानदारी से अपना काम करता है, तो उसका मूल्यांकन होना चाहिए लेकिन कई बार परिवारवाद और वंशवाद के चलते पट्ठों को ही आगे बढ़ाया जाता है।
राजनीति समाज की मजबूरी हो सकती है लेकिन अब यह सम्मानजनक प्रोफेशन शायद नहीं बचा है। राजनीतिक क्षेत्र की कारगुज़ारियाँ धीरे-धीरे आमजन तक पहुंच रही हैं। चाहे कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हो, भ्रष्टाचार से अनैतिक कमाई हो, सेवा के नाम पर मेवा की राजनीति हो, योग्यता को नकारने की प्रवृत्ति हो, पट्ठा संस्कृति को संरक्षण हो, वंशवाद को प्रोत्साहन हो, हर बुराई की शुरुआत राजनीतिक क्षेत्र से होती दिखाई पड़ती है।
पद,प्रतिष्ठा और पॉवर के लिए संघर्ष राजनीति की आत्मा बन चुका है। शुद्ध हृदय से शायद पॉवर पॉलिटिक्स हो ही नहीं सकती। ऐसा हृदय शांति की तलाश करता है। किसी को हराकर खुद कुर्सी तक पहुंचने की प्रवृत्ति अशुद्ध हृदय के बिना हो ही नहीं सकती। राजनीति में कुछ लोग सफल हैं तो कुछ लोग असफल भी हैं। असफल राजनेताओं को इस बात के लिए प्रसन्न होना चाहिए कि कहीं ना कहीं शायद उनका ह्रदय इतना अशुद्ध नहीं है जितना सफलता के लिए जरूरी है।
समाज और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बढ़ते अवसाद को रोकना और पद-प्रतिष्ठा के लिए कोई सीमा निर्धारित करना अब बहुत जरूरी हो गया है। योग्यता को राजनीति का आधार बनाना भी आवश्यक हो गया है। राजनीति के लिए शैक्षणिक योग्यता भी निर्धारित करने का समय आ गया है। राजनीतिक दलों में कार्यकर्ता भाव को बनाए रखने के लिए कार्यकर्ताओं के सही मूल्यांकन की व्यवस्था करने का भी वक्त आ चुका है।