सोने, प्रॉपर्टी की कीमत छलांगा मार रही हैं. फिर भी लोकायुक्त छापे सोना उगल रहे हैं. पीडब्ल्यूडी के रिटायर ईएनसी के यहां छापों में किलो सोने के साथ इतनी संपत्तियां निकली है कि, आंखें चौंधिया जाएं..!!
विभाग में 90 डिग्री के ओवर ब्रिज बन रहे हैं और चीफ इंजीनियर काली कमाई से मालामाल हो रहे हैं. यह अफसर दलित वर्ग से आते हैं. दूसरा छापा रिटायर्ड आबकारी अधिकारी के ठिकानों पर पड़ा. जिसमें चार किलो सोना और सात किलो चांदी सहित करोड़ों की संपत्तियां उजागर हुई हैं. यह अफ़सर सामान्य वर्ग से आते हैं.
एक सप्ताह के भीतर पड़े इन दोनों छापों से जो एक सार निकलता है, वह यह है कि काली कमाई के मामले में दलित सवर्ण भाई-भाई हैं. जातिवाद से ऊपर भ्रष्टवाद है. इसके पहले परिवहन विभाग के एक आरक्षक के घर से पचास किलो से अधिक सोना छापेमारी कार्रवाई में जब्त किया गया था. इससे लगता है कि भ्रष्ट्राचार अब नगद नहीं बल्कि सोने के लेनेदेन में परिवर्तित हो गया है.
दलितों के साथ संस्थागत भेदभाव की आवाज उठाई जाती है. यह छापे तो यही बताते हैं कि, काली कमाई में दलितों की हिस्सेदारी अन्य किसी वर्ग से कम नहीं है. इससे एक बात और प्रमाणित होती है कि, भ्रष्टाचार में कोई जातिवाद नहीं है. कोई भी ईएनसी अकेले इतनी काली कमाई नहीं कर सकता, उसके लिए पूरा सिस्टम मिल-जुलकर काम करता है. सिस्टम में कोई एक जाति नहीं होती. सभी जाति के अफसर और कर्मचारी काली कमाई के लिए मिल-जुलकर एक दूसरे की सहायता और सहयोग करते हैं.
सबसे बड़ा सवाल है कि, रिटायर्ड अधिकारियों के यहां जो छापे पड़ रहे हैं वह सेवाकाल के दौरान जांच एजेंसियों की नज़र में क्यों नहीं आए. पूरा शासन तंत्र इसमें इसलिए शामिल होता है कि, भ्रष्टाचार पर कार्रवाई के लिए शासन की अनुमति की आवश्यकता होती है. यह अनुमति मिलना भ्रष्ट तंत्र में आसान नहीं होता है. सेवानिवृत्ति के बाद अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है.
भ्रष्टाचार से अर्जित काली कमाई केवल राज्य के खजाने पर डाका नहीं है बल्कि विभाग के पूरे सिस्टम को हाईजैक करने जैसा है. पीडब्ल्यूडी जैसा विभाग जो जनता से सीधा जुड़ा हुआ है. अभी हाल ही में भोपाल के बाईपास पर ही कई मीटर का गड्ढा विकसित हो गया. जब जिम्मेदार लोगों के फार्म हाउस, तालाब बनेंगे तो सरकार की सडकें तो तालाब बन ही जाएंगीं.
भोपाल में ही एक ऐसा ओवर ब्रिज बना है जो अब तक चालू नहीं हो पाया. शासन तंत्र का जो पूरा सिस्टम करप्शन में शामिल है. एग्जीक्यूशन और मॉनिटरिंग के लेवल पर काम करने वाले अफसर एक दूसरे से गलबहियां करते हैं. ट्रांसफर, पोस्टिंग सब कुछ सौदेबाजी पर निर्भर करता है, तो फिर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि छापे में घिरे अफसर के अलावा बाकी विभाग का पूरा तंत्र पाक साफ़ है.
कोई अकेला आदमी इतनी काली कमाई नहीं कर सकता. इसका मतलब है भ्रष्टाचार के उद्योग की कई सहायक इकाईयां हैं. इन अफसरों द्वारा जो भी काम किए गए हैं, उनकी गुणवत्ता निश्चित रूप से प्रभावित हुई होगी. कोई भी ठेकेदार तब तक कोई पैसा नहीं देता जब तक उसे लाभ नहीं मिले. हिस्सा बंटवारा केवल लाभ में ही होता है. जनधन में ही होता है.
जब भी ऐसे भ्रष्टाचार के मामले उजागर होते हैं तो पूरी सरकार चुप्पी साध लेती है. विभाग के मंत्री और सीनियर अफसर ऐसा दिखाते हैं कि जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं है. जबकि वास्तविकता यह है कि बिना बड़े लेवल की हिस्सेदारी या सहयोग के भ्रष्टाचार का इतना बड़ा मामला किसी विभाग में चल ही नहीं सकता है.
दूसरी ओर आबकारी विभाग के रिटायर्ड अफसर यहां जो छापा पड़ा है, उसमें भी अकूत संपत्तियां मिली हैं. यह विभाग तो वैसे भी नशे का विभाग है. यहां अफसर विभिन्न तरह के नशे में ही रहते हैं. यहां की कमाई तो जग जाहिर है. इस विभाग के कई अफसरों के यहाँ पहले भी छापे पड़े हैं, जिसमें अरबों की संपत्तियां उजागर हुई हैं. भ्रष्टाचार रोकने के लिए जो कानून है, वह इतने लचर और कमजोर है कि अंततः वास्तविक दोषी को सजा मिलना असंभव हो जाता है.
भ्रष्टाचार के मामले अदालत में प्रमाणित नहीं हो पाते हैं. इतने बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के मामले सामने आए, जिनका जनमत पर असर भी हुआ. सरकारें बदल गई लेकिन अदालतों से कोई भी मामला प्रमाणित न हो पाया और न ही किसी को सजा ही हो सकी.
सरकारी सिस्टम में आए दिन दलित, आदिवासी और सवर्ण अधिकारियों के संगठन अपने हितों के लिए संघर्ष करते हैं. जाति और वर्ग के हिसाब से अधिकारियों के संगठन बने हुए हैं. काली कमाई के मामले में बिना किसी संगठन के सभी जातियों के लोग एक साथ हाथ मिला लेते हैं.
भ्रष्टाचार में कोई दलित नहीं है. केवल अवसर मिलने की देर होती है. कोई भी काली कमाई से वंचित नहीं रहना चाहता. रह भी कैसे सकता है? अगर उसे सिस्टम में अपने आप को बनाए रखना है, तो उसे देना भी पड़ेगा और जब देना पड़ेगा तो फिर कमाई भी करनी पड़ेगी.
अब तो सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार के मामले को गंभीरता से नहीं लेता. इसे तंत्र का हिस्सा मान लिया गया है. इसी से सियासत भी चलती है. सियासत के लिए जरूरी काला धन का प्रबंध भी इसी से होता है.
जातियां केवल भ्रष्टाचार में ही टूटती हैं. इसमें केवल कमाई देखी जाती है, जाति का इसमें कोई रोल नहीं होता. भ्रष्टवाद ही जातिवाद पर कंट्रोल कर सकता है. मध्य प्रदेश मे तो कांग्रेस की सरकार में ऐसा भी कारनामा हो चुका है कि, बाकायदा आदेश निकालकर विभागों को यह कहा गया था कि, कमाई की जो पोस्ट है, उसमें निश्चित प्रतिशत का आरक्षण दलित समुदायों को दिया जाए. ठेके देने में भी यह व्यवस्था लागू की गयी.
ना किसी कर्मचारी संगठन ने और ना ही किसी राजनीतिक दल ने अब तक ऐसा आरोप लगाया है कि, कोई विशिष्ट समुदाय ही करप्शन में लगा हुआ है. करप्शन कैरेक्टर बन गया है. विभागों में काली कमाई चलती रहती है तो जिम्मेदार लोग आँख मूंदें रहते हैं. ऐसा तो नहीं हो सकता उनकी आंख, कान सब खुले होते हैं, केवल हिस्सेदारी के कारण इन्हें बंद रखने का नाटक करना पड़ता है.
जब ऐसे छापों में मामले उजागर होते हैं तो फिर उस अधिकारी के सभी कंट्रोलिंग अथॉरिटी अपने आप को पाक साफ़ बताने लगते हैं. जबकि बिना उनकी भागीदारी के इतनी बड़ी मात्रा में काली कमाई किसी भी विभाग में संभव नहीं है.
काली कमाई में दलित और सामान्य में ना कोई भेदभाव है, ना कोई जाति का झगड़ा है. भ्रष्ट्रवाद का नया समाजवाद पूरे सरकारी तंत्र में प्रभावी है. सिस्टम से भ्रष्टाचार रोकने के लिए कानून को और सख्त करना पड़ेगा. मॉनिटरी तंत्र मजबूत करना पड़ेगा. मिली-भगत को समाप्त करना होगा.
अब तक तो यह सब नहीं हो पाया है. आगे भी हो पाएगा, असंभव लगता है. सरकारी तंत्र में काली कमाई के बाहुबली राजनीति के दुलारे होते हैं!