संसदीय राजनीति की जनहित डिलीवरी में विपक्ष की भूमिका केवल इसे बिगाड़ने तक सिमट गई है. विपक्ष के सक्रिय योगदान से गवर्नेंस को भटकने से रोका जा सकता है..!!
संसद सत्र विपक्ष के ऐसे मुद्दे पर बर्बाद हो जाता है जो जनता से जुड़ा नहीं होता. संसद का मानसून सत्र SIR पर बर्बाद हो रहा है लेकिन तय कार्यक्रम के मुताबिक राज्यों में यह जारी है. बिहार में भी इसके विरुद्ध माहौल बनाया गया था लेकिन वोटर्स इससे जुड़ नहीं सके. SIR के जाल में विपक्ष स्वयं उलझ गया लेकिन अब जिन राज्यों में यह प्रक्रिया हो रही है, उन राज्यों के नेताओं के दबाव में फिर सदन में हंगामा हो रहा है.
हंगामें से प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं हो सकता बल्कि अब यह अदालत के निर्णय पर संभव है. ऐसे SIR पर सदन में चर्चा हो या नहीं, उससे विपक्ष को क्या फर्क पड़ेगा. हाथों में बैनर थामे जो नारे सदन के परिसर में लगाए जा रहे हैं वह चुनावी राज्यों में भी लगे थे, लेकिन मतदाताओ ने इसे नजर अंदाज किया .
संसदीय व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष की बराबर भूमिका है. एक पक्ष तो सरकार चलाता है और दूसरा उसे अस्थिर करने में लग जाता है. राजनीतिक सोच की यही प्रक्रिया धरातल के मुद्दों से कट जाती है. केंद्र में जब से भाजपा आई है, तब से एक तरफ ऐसे मुद्दे खड़े किए जाते हैं, जिनका विरोध विपक्ष को ही नुकसान पहुंचा देता है. SIR, घुसपैठ और वंदे मातरम ऐसे राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जिस पर विपक्ष विरोध कर स्वयं घिर जाता है.
सत्ता की राजनीति में बीजेपी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे विपक्ष की छटपटाहट भी. विपक्ष के मुद्दे सामान्य और स्वाभाविक नहीं होते बल्कि सिजेरियन इश्यू पर विपक्ष भिड़ता है. डेमोक्रेसी बचाने की बात होती है, लेकिन उसके वरडिक्ट को ही स्वीकार नहीं करता. यही से ड्रामा और डिलीवरी का डिस्प्यूट प्रारंभ होता है.
सोची समझी रणनीति के तहत पीएम नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को नसीहत दी कि, संसद ड्रामे के लिए नहीं डिलीवरी के लिए है. नारों के लिए तो राजनीति है, लेकिन संसद जनहित की डिलीवरी के लिए है. राजनीतिक हार की हताशा की खिसियाहट से संसद बाधित करने को ड्रामा ही कहा जाएगा.
विपक्ष शायद मानता है कि, गवर्नेंस में डिलीवरी के लिए उसकी कोई भूमिका नहीं है. जबकि संसद से बने कानून से ही डिलीवरी सुनिश्चित होती है. जब संवाद के इस अवसर पर नीतियों पर चर्चा नहीं होगी तो फिर संसदीय प्रणाली ही कमजोर होगी. विपक्ष बीजेपी की रणनीति में फंस जाती है. बीजेपी के सारे मुद्दे ऐसे होते हैं जो राष्ट्रीय हित और बहुसंख्यक आबादी से जुड़ते हैं. उनका विरोध, विपक्ष का स्वास्थ्य खराब कर देता है.
विपक्ष अपनी राजनीति और संसद की कार्यप्रणाली में अंतर नहीं कर पा रहा है. राजनीति में तो बिहार चुनाव में राहुल गांधी का मछली पकड़ने के लिए तालाब में छलांग लगाना, ताली बजाने के लिए पर्याप्त है, लेकिन यह संसद में संभव नही है. कुलियों से मिलकर राजनीति तो की जा सकती है लेकिन संसद में तो नीति और कानून पर ही चर्चा करनी होगी.
जहां तक SIR का सवाल है, यह कहना ही गलत है कि किसी का भी वोट कटेगा. निर्वाचन आयोग जो काम कर रहा है, उस पर राजनीतिक आरोप विपक्ष की कमजोरी ही प्रतीत होती है. निर्वाचन आयोग इस पर सर्वोच्च अदालत में भी अपना पक्ष रख रहा है. इस पर अब तक तो रोक नहीं लगाई गई है. निर्वाचन आयोग का दावा है कि, संविधान सम्मत तरीके से यह काम हो रहा है. सियासी लाभ के लिए उस पर बढ़ा-चढ़ा कर आरोप लगाए जा रहे हैं. बीएलओ पर दबाव और मौतों पर भी अतिरेक परोसा जा रहा है.
विपक्ष का SIR पर विरोध इस सोच पर टिका हुआ है कि बीजेपी अपने समर्थक मतदाताओं के नाम जुड़वा रही है और विपक्षी दलों के मतदाताओं के नाम जानबूझ कर कटवाये जा रहे हैं. इसमें जातीय राजनीति को भी घसीटा जा रहा है. अल्पसंख्यक को भी इसके विरोध में खड़ा करने की कोशिश है. SIR पर बिहार में की गई प्रक्रिया और वहां जनता का जनादेश भी विपक्ष को अगर अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर नहीं कर पा रहा है तो फिर यह उनकी राजनीतिक ढलान का संकेत है.
ममता बनर्जी SIR का पुरजोर विरोध भी और अपने राज्य में कार्यकर्ताओं के माध्यम से इसे पूर्ण करने में पूरी तरह से सक्रिय भी हैं. कांग्रेस और राहुल गांधी केवल कागजी शेर जैसा स्लोगन और बैनर दिखा रहे हैं लेकिन जमीन पर बूथ लेवल एजेंट तक नहीं बना सके.
संसद और विधानसभाओं में ड्रामा कोई नई बात नहीं है. बीजेपी जब विपक्ष में थी तब वह भी ऐसा करती थी, लेकिन कांग्रेस का विरोध तो ड्रामा पर ही आधारित हो गया है. मध्य प्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस के विधायक राक्षसी ‘पूतना’ बन आ जाते हैं. भारतीय मानसिकता जिसे स्वीकार ही नहीं करती उसका भेष धारण कर कांग्रेस का ड्रामा नहीं तो क्या है. प्रियंका गांधी फिलिपींस का बैग लेकर आती है तो यह भी ड्रामा ही है.
राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं लेकिन उन पर सभी विपक्षी दलों का विश्वास नहीं है. मुद्दों पर उनकी सहमति या असहमति होती है, इसलिए ऐसे सिजेरियन इश्यूज पकड़े जाते हैं जो जनता से भले ना जुड़े हो लेकिन उस पर कम से कम सभी विपक्षी दल राहुल गांधी के पीछे खड़े हो जाते हैं.
SIR के हगामें के बीच वंदे मातरम की चर्चा में विपक्षी दलों की भागीदारी न होना उनके राष्ट्रीय धर्म पर सवाल खड़े करता है. जैसा विपक्षी एकता अधर में है वैसे ही उनके मुद्दों पर भी खतरा खड़ा हुआ है. केवल गाली देने या सत्ता पक्ष को कटघरे में खड़ा करने से खुद की राजनीति खड़ी नहीं हो सकती. जो नेता जमीन पर काम कर रहे हैं, वह अपनी पकड़ बनाए रखते हैं. यही उनकी सफलता है.
सभी विपक्षी दलों को कम से कम अपने उन सहयोगियों से ही सीखना चाहिए जो राजनीति के साथ अपनी जमीनी पकड़ के लिए काम करते हैं. राहुल गांधी के मुद्दे उनको ही समझ आते होंगे, जनता तो सिर खुजलाती रह जाती है.