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कांग्रेस में राजा बना बंदर वाला लोकतंत्र

सार

प्रोटेस्ट लोकतंत्र की आंतरिक शक्ति होती है. कुत्ता और बंदर के प्रोटेस्ट जंगल राज की फील देते हैं. जहां भी बंदर राजा बन जाता है, वहां हर मुद्दे पर उसकी गुलाटी एक जैसी होती है..!!

janmat

विस्तार

    दिल्ली और भोपाल दोनों जगह प्रोटेस्ट की गुलाटी दिख रही है. दिल्ली में संसद को पालतू बताने के लिए डाग का उपयोग किया जा रहा है तो भोपाल में नीतियों के विरोध के लिए बंदर के हाथ में उस्तरा आजमाया जा रहा है.

    बंदर के राजा बनने की कहानी प्रसिद्ध है. जंगल में बंदर की संख्या सबसे ज्यादा थी. लोकतांत्रिक मांग उठी और चुनाव में उसे राजा चुन लिया गया. बंदर राजा के पास जब भी कोई समस्या लाई जाती, वह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर गुलाटी खाने लगता. 

    ऐसे समय निकलता गया. जब जंगल के जानवरों को लगा कि अब यहाँ जंगलराज हो गया है तो सब मिलकर बंदर राजा के पास पहुंचे. बताया कि, कोई समाधान नहीं हो रहा है. जंगलराज कायम हो गया है. राजा बंदर कहने लगा कि जब भी आप शिकायत लेकर आते हो मैं गुलाटी मारने लगता हूं. मुझे जो आता है, मैं वही तो करूंगा. इसके अलावा मैं क्या कर सकता हूं.

    दिल्ली और भोपाल के प्रदर्शन राजा के बंदर बनने की कहानी ही दोहरा रहे हैं. संसद परिसर में कांग्रेस की सांसद पालतू कुत्ता लेकर पहुंचती हैं. सुरक्षा बल जब उनको रोकते हैं तब एतराज करती हैं. जब यह मामला उछलता है, तब वह कहती है कि, परिसर में ही तो लाए थे, संसद में तो नहीं ले गए. काटने और डसने वाले तो वहां बैठते हैं.

    फिर जब उन्हें बताया गया कि उनके खिलाफ विशेषाधिकार लाया जा रहा है तो वह कुत्ते की बोली भौं-भौं कहकर यह कहने की कोशिश करती हैं कि जो ऐसा कर रहे हैं, वह केवल चिल्ला रहे हैं. यह पूरा वाकया जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी के सामने लाया जाता है. तब वह कहते हैं कि पालतू तो संसद के भीतर बैठते हैं.

    संसद और सांसद को कुत्ते के नाम पर प्रतीकात्मक आक्षेपित करना लोकतंत्र में राजा के बंदर की कहानी ही कह रहा है. जैसे बंदर को केवल गुलाटी लगाना आता है. वह हर परिस्थिति में वही करता है. उसी तरीके से जिन्हें सांसद, विधायक बनने का मौका मेहनत, क्षमता और योग्यता से नहीं बल्कि परिवार की राजनीतिक विरासत से मिला है, उनसे ऐसी गुलाटी के अलावा कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती.

    एमपी में भी हालात वही हैं. कांग्रेस के विधायक राज्य सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन करें, यह तो उनका दायित्व है लेकिन इसके लिए बंदर के राजा बनने की कहानी का मंचन करने की आवश्यकता नहीं है. कांग्रेस विधायक बंदर का रूप धारण कर उस्तरा चलाने का प्रोटेस्ट कर रहे हैं. यह पोस्टर सरकार से ज्यादा विपक्ष की नासमझी प्रकट करते हैं.

    बंदर के हाथ में उस्तरा का पोस्टर कांग्रेस पर ही लागू हो रहा है. कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट है. नेतृत्व की अपरिपक्वता के कारण कांग्रेस सिमटती जा रही है. जहां सत्ता मिल भी जाती है वहां भी बंदर के राजा बनने की कहानी मंचित होने लगती है. 

    मध्यप्रदेश सहित किसी भी राज्य में पार्टी और सीएलपी में ऐसा नेतृत्व नहीं है, जिसमें जनविश्वास की कसौटी पर खरा उतरने की क्षमता हो. किसी को परिवार की विरासत के कारण नेतृत्व का मौका मिला है. तो किसी को जाति और संप्रदाय की संख्या के आधार पर नेतृत्व दिया गया है.

   प्रोटेस्ट पोस्टर बनाते समय इतना तो सोचा ही जाना चाहिए कि उनकी क्रिएटिविटी कहीं उन पर ही तो भारी नहीं पड़ जाएगी? राक्षसी पूतना का कोई नाम भी लेना या सुनना पसंद नहीं करता और उसी को मध्यप्रदेश विधायक दल अपना प्रोटेस्ट पोस्टर बनाने में संकोच नहीं करता.     

  यह कोई पहला अवसर नहीं है. इसके पहले भी सत्र के हर एक दिन ऐसे ऐसे प्रदर्शन किए गए हैं. इन प्रदर्शनों का एक लाभ होता है कि, तात्कालिक रूप से मीडिया में इनको स्थान मिल जाता है लेकिन इससे पार्टी की छवि जो प्रभावित होती है, उसके नतीजे तो चुनाव के समय ही दिखाई पड़ते हैं. 

    एमपी कांग्रेस विधायक दल में बहुत अनुभवी और वरिष्ठ नेता भी हैं. यह भी दिखाई पड़ता है कि ऐसे अशिष्ट प्रदर्शनों पर शायद सभी विधायक सहमत नहीं होते. विधायकों का एक समूह ही ऐसे प्रदर्शनों का नेतृत्व करता है. सीएलपी के लीडर राजा को तो ऐसे प्रदर्शनों में शामिल होना ही पड़ता है. कांग्रेस मध्य प्रदेश में आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. 

    एमपी से कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं है. विधायकों की संख्या भी लगातार घटी है. संगठन का अनुशासन तो जैसे लागू ही नहीं होता है. गुटबंदी कांग्रेस की नियति बन गई है. पार्टी और सीएलपी की प्रतिद्वंदता भी ऐसे प्रोटेस्ट पोस्टर से समझी जा सकती है. किसी भी नेता की सनक कांग्रेस संगठन की आवाज नहीं हो सकती है. बंदर के हाथ में उस्तरा की सोच उसी मस्तिष्क की उपज हो सकती है, जो उसी में जीता हो.

    कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर से लगाकर नीचे तक अपनी विरासत के नशे में झूम रही है. वर्तमान कितना भी कष्टप्रद हो लेकिन विरासत की पूंजी उनके कपड़ों की सफेदी में चमकती देखी जा सकती है. संसदीय व्यवस्था को जनसंख्या के आधार पर बंदर के हाथ में देना घातक साबित हो सकता है. राहुल गांधी आज कहते हैं कि,  प्रतिपक्ष भी लोकतंत्र का दूसरा दृष्टिकोण देता है. यह दृष्टिकोण अगर बंदर के राजा बनने का है तो फिर जमीनी स्तर पर तो इसे स्वीकार्यता नहीं मिल सकती.

    राज्य विधानसभाओं के सत्र लगातार घटते जा रहे हैं. ऐसे प्रोटेस्ट पोस्टर इस गति को बढ़ाएंगे. अगर विपक्ष यह मानने लगा है कि, ऐसे प्रदर्शन से ही इसका परफॉर्मेंस आँका जाएगा तो फिर अलग बात है. जब सदन के भीतर सार्थक चर्चा ही नहीं होना है. ऐसे प्रोटेस्ट से विपक्ष मीडिया में अपनी आवाज पहुंचा सकता है. इससे विपक्ष की राजनीति तो पहुंचेगी लेकिन इसमें जनादेश की आवाज शामिल नहीं है. राज्य के लोग विपक्ष से जिस तरह के काम और भूमिका की उम्मीद लगाते हैं, उस पर तो कांग्रेस अब तक सफल नहीं रही. 

    कांग्रेस में राहुल गांधी की पौध पार्टी को छाया देने में सफल नहीं हो रही है. पार्टी में बंदर बना राजा वाला लोकतंत्र जनता की पसंद नहीं बन पा रहा है. प्रोटेस्ट पोस्टर, डॉग और बंदर कांग्रेस के अंदर बढ़ता जंगलराज दिखा रहे हैं. पार्टी में इस स्थिति से संसदीय सुशासन के राज की कल्पना बेमानी लगती है.