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पद, जातीय मानसिकता नहीं बदलता?

सार

आइएएस संतोष वर्मा जैसी मानसिकता ही आरक्षण के खिलाफ विचार भड़काने का काम करती है. एक तरफ दलित चीफ जस्टिस हैं, जो सभी प्रकार के रिजर्वेशन में क्रीमी लेयर की बात करते हैं. जो न्यायमूर्ति हैं, वह न्याय की दृष्टि से सोचते हैं. जो जाति की मूर्ति हैं, वह जातिवादी असंतोष ही पैदा करते हैं. जिसके पास जो है, वह वही तो दे सकता है..!!

janmat

विस्तार

    जो संतोष वर्मा प्रमोशन के लिए जज के फर्जी साइन कर दस्तावेज बना सकते हैं. जिन्हें इसके लिए जेल जाना पड़ा हो. जो इतनी बड़ी साजिश कर सकते हैं. वह अजाक्स के नए अध्यक्ष बनने के बाद जातीय भेदभाव की मूखर्ता पूर्ण बात तो कर ही सकते हैं. राज्य प्रशासनिक सेवा से आइएएस बने ऐसे अफसरों के कारण ही इस अखिल भारतीय कैडर की छवि प्रभावित होती है. पहले आईएएस अफसर सम्मान और गरिमा से देखे जाते थे, अब संतोष वर्मा जैसों के कारण असंतोष का सबब बन गए हैं.

    जिस विषय पर उन्होंने यह बात कही है, वह विषय आरक्षण में क्रीमी लेयर की उठ रही मांग से जुड़ा हुआ है. पिछले दिनों पूर्व चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने कहा था कि, ओबीसी आरक्षण के लिए जिस तरह से क्रीमी लेयर की व्यवस्था है, इसी तरह से एससी और एसटी के लिए भी क्रीमी लेयर होना चाहिए.

    उनका नजरिया बहुत साफ है कि, अगर कोई आरक्षण का लाभ उठाकर आईएएस, आईपीएस, सांसद, विधायक, जस्टिस जैसे पदों पर पहुंच गया है, ऐसा परिवार आरक्षण का हकदार कैसे हो सकता है. जबकि उन्हीं समुदायों में बड़ी आबादी ऐसी है जो अभी भी भेदभाव और शोषण का शिकार है.

    आईएएस संतोष वर्मा के परिवार को आरक्षण की क्या आवश्यकता है. जब वह आर्थिक रूप से संपन्न हो गए हैं. उन्हें शिक्षा सहित सब तरह की व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं. तब उनकी जाति के ऐसे युवाओं को मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए जो शोषित और वंचित हैं. आरक्षण के कारण जो लोग उच्च पदों पर पहुंच गए हैं. उनका यह नैतिक दायित्व बनता है कि अपने समाज के शोषित, वंचित के लिए स्वेच्छा से आरक्षण का अवसर त्यागे.

    अगर देश के न्यायमूर्ति इस पर न्यायिक समानता की दृष्टि से विचार कर रहे हैं तो उसे जातीय संघर्ष में बदलने की कोशिश निदनीय है.

    जानबूझकर संतोष वर्मा ने ब्राह्मणों को लेकर टिप्पणी की है, उनका नजरिया आरक्षण से ज्यादा जातीय भेदभाव दिखाई पड़ता है. उनका विरोध हो रहा है. समाज में वैमनस्य फैलाने का उनका प्रयास, उस संगठन की छवि को भी नुकसान पहुंचाएगा, जिसके वो अध्यक्ष हैं.

    आरक्षित वर्ग में ही आरक्षण के लाभ के वितरण में असमानता का मुद्दा काफी लंबे समय से विचार में है. इसी कारण सुप्रीम कोर्ट में उपवर्गीय आरक्षण की व्यवस्था का निर्णय दिया. कुछ राज्यों में इसका पालन भी प्रारंभ कर दिया गया है. इसके पीछे भी यही थॉट प्रोसेस है कि किसी आरक्षित समाज में कुछ खास लोग और परिवार पढ़ाई-लिखाई और दूसरी सुविधाओं की दृष्टि से आगे बढ़ जाते हैं. उस समाज का यह उपवर्ग ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेता है. उस वर्ग के दूसरे लोग जिन्हें कई तरह की असुविधाएं हैं, आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाते.

    सुप्रीम कोर्ट ने इसी पर विचार किया और आरक्षण को वर्गों में बांटने की व्यवस्था प्रारंभ की. हर आरक्षित समाज में कुछ वर्ग है जिनकी संख्या भले कम हो लेकिन आरक्षण के लाभ में उनकी हिस्सेदारी बहुत ज्यादा है. इसी कारण इस समाज से यह मांग उठी और सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया.

    क्रीमी लेयर की मांग भी इसी का एक्सटेंशन है. अभी तो सुप्रीम कोर्ट ने उपवर्गीय रिजर्वेशन को अनुमति दी है. अब यह भी वक्त आएगा, जब आरक्षण का लाभ लेने वालों को उससे बाहर करने की न्यायिक समीक्षा की जाएगी. यह फैसला राजनीतिक नहीं बल्कि अदालत के हाथ में होगा. 

    जो आरक्षण कभी समानता के लिए भेदभाव दूर करने के लिए लाया गया था उसको अब उसी समाज के कुछ लोगों ने राजनीतिक दलों के साथ मिलकर एक हथियार बना लिया है. अब उन लोगों को भविष्य में खतरा दिखाई पड़ रहा है कि, आरक्षण का लाभ लेने वाले बड़े पदों पर बैठे लोगों को हो सकता है, भविष्य में इस सुविधा से वंचित होना पड़े. 

    आरक्षित समाज के लोग अपने समाज में आरक्षण के लाभ वितरण में समानता की बात क्यों नहीं करते हैं. क्यों किसी खास परिवार और खास लोगों को ही लगातार इसका लाभ मिलना चाहिए. क्रीमी लेयर की अवधारणा इसी सोच पर आधारित है. अगर कोई एक निश्चित आर्थिक स्थिति के ऊपर पहुंच गया है तो फिर उसको आरक्षण मिलने की कोई आवश्यकता नहीं है.

    यह विषय ना संतोष वर्मा का हैऔर ना ही किसी एक व्यक्ति का है. यह आरक्षित वर्गों के समाज का ही विषय है. उन्हीं के बीच से इसकी लड़ाई प्रारंभ हुई है. और यह न्यायिक दरवाजे तक पहुंचेंगी. क्रीमी लेयर की मांग पर न्यायिक समीक्षा होगी. जो भी न्याय की दृष्टि से उचित होगा वह निर्णय आएगा. 

    ओबीसी को क्रीमी लेयर के आधार पर ही आरक्षण का लाभ मिलता है. सामान्य वर्गों को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई है. इस पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी मोहर लगाई गई है. ओबीसी और सामान्य वर्गों की जनसंख्या को अगर जोड़ दिया जाए तो देश की तीन चौथाई आबादी इन्हीं वर्गों से आती है. जब तीन चौथाई जनसंख्या को आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया जाता है तो फिर एक चौथाई वर्ग को आरक्षण केवल जाति के आधार पर क्यों दिया देना चाहिए.

    जो लोग इसका लाभ उठा चुके हैं, उनको उसका लाभ भविष्य में क्यों मिलना चाहिए, इस पर कभी ना कभी तो सोचा पड़ेगा

    आरक्षण पर कोई भी फैसला किसी भी दल के लिए कठिन है. ओबीसी और जनरल कैटेगरी की राजनीतिक एकता आरक्षण पर न्याय सम्मत निर्णय का माहौल बना सकती है. यह आरक्षित और गैर आरक्षित के बीच का मामला नहीं है. क्रीमी लेयर की मांग आरक्षित वर्ग के बीच का ही मामला है. संतोष वर्मा जैसे लोग इसे जातीय भेदभाव से जोड़कर अपनी हीनता ही प्रदर्शित कर रहे हैं.