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जवाबदेही तय, मतलब लोकतंत्र की जय

सार

सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों दोषियों के घरों पर बुलडोजर चलाने को मौलिक अधिकारों के खिलाफ माना है. अवैध निर्माण को तोड़ने के लिए सर्वोच्च अदालत ने प्रक्रिया निर्धारित कर दी है. सरकारों के बुलडोजर न्याय पर रोक लगाते हुए पहली बार अफसरों  की अकाउंटेबिलिटी तय कर दी है..!!

janmat

विस्तार

    अगर तोड़फोड़ की कार्रवाई निर्धारित प्रक्रिया के विरुद्ध की गई तो इस कार्रवाई को अंजाम देने वाले अफसर के खिलाफ़ अवमानना की कार्रवाई की जाएगी. सर्वोच्च अदालत ने यहां तक कहा है, कि किसी भी आरोपी या दोष सिद्ध व्यक्ति का मकान नहीं तोड़ा जा सकता. अगर निर्माण अवैध है, तो उसे भी तोड़ने के लिए पारदर्शी ढंग से प्रक्रिया का पालन करना होगा. 

    सरकार और अफसर न्याय के लिए अदालत की भूमिका नहीं निभा सकते. बुलडोजर न्याय सरकारों की धमक और चमक का जरिया बन गया था. गवर्नेंस में अकाउंटेबिलिटी पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लोकतंत्र की जय जयकार करेगा.

    सरकारों और अफसरों का सबसे बड़ा संकट जवाबदेही का अभाव है. सरकारों और अफसरों के निर्णय कामकाज कई बार ग़लत साबित होते हैं, लेकिन इसके लिए कोई जवाबदेही तय नहीं होती. अकाउंटेबिलिटी नहीं होने के कारण ही निर्णय की रिस्पांसिबिलिटी भी नहीं होती. बिना सोचे समझे जनहित को लाभ-हानि का गणित लगाए खुदगर्जी और मनमर्जी से फैसले होते हैं.

    जब उनका असर गलत होने लगता है, तो उनको बदल दिया जाता है, लेकिन इस ग़लती के लिए किसी की जवाबदेही तय नहीं होती. किसी को दोषी नहीं ठहराया जाता. लोकतंत्र आज अगर सवालों में घिरा है, तो इसके पीछे सरकारी सिस्टम का अकाउंटेबिलिटी से भागना ही है.

    कागजों पर सांसद, विधायक और कार्यपालिका अपने-अपने दायित्वों के लिए अकाउंटेबल होते हैं. लेकिन ग़लत निर्णय, ग़लत आदेशों, अधिकारों के लिए अकाउंटेबिलिटी तय नहीं की जाती, इसके लिए दोषी को दंडित नहीं किया जाता. इसीलिए पूरा सरकारी सिस्टम सरकारी बारात जैसा आराम से टाइम गुजारता है.

    चुनाव के समय सांसद और विधायक के प्रत्याशी जीत के लिए भरपूर मेहनत करते हैं, लेकिन जीतने के बाद उस पद की अकाउंटेबिलिटी को याद ही नहीं करते हैं. ना संसद चलती है, ना विधानसभाएं चलती हैं, जनहित के मुद्दों परचर्चा तो बहुत दूर की बात है. विधायी सदनों को सियासी कारणों से चलने ही नहीं दिया जाता.

    मध्य प्रदेश की ही अगर बात की जाए, तो 365 दिनों में अधिकतम 45-50 दिन भी विधानसभा नहीं चलती. विधानसभा चलने का खर्च हर दिन लगभग 7 करोड़ आता है. सदन की चर्चा पर तो टिप्पणी करना सही नहीं होगा. लेकिन जिस तरह के प्रश्न और मुद्दे सदन में उठाए जाते हैं, वह भी खुदगर्जी और मनमर्जी की कहानी कहते हैं. उनमें जनहित को ढूंढना टेढ़ी खीर होता है. 

    मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ नेशनल पार्क में हाथियों की मौत पर हाहाकार मचा हुआ है. जांच पर जांच हो रही हैं, लेकिन किसी की भी अकाउंटेबिलिटी निर्धारित नहीं हो सकी है. सरकारों में जांच भी लीपा-पोती का ही आधार बनती है. जब भी घटनाएं होती हैं और यहां तक कि जांच आयोग बनाए जाते हैं. उनके प्रतिवेदन भी धूल खाते रहते हैं. सैकड़ो मौतों के मामले भी बिना जवाबदेही तय हुए समाप्त हो जाते हैं.

    मध्य प्रदेश में अभी और एक मामला तेजी से सामने आ रहा है. मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम 30 साल पहले अचानक बंद कर दिया गया था. उसकी जमीनों को खुर्द-बुर्द कर दिया गया था. अब फिर से सरकार को लोक परिवहन की व्यवस्था प्रारंभ करने का विचार आया है. 

    फिर से तैयारियां प्रारंभ हो गई हैं, लेकिन अगर अकाउंटेबिलिटी पर सरकार सख्त होती तो सबसे पहले तो जिन नेताओं और अफसरों  ने परिवहन निगम को बंद करने का निर्णय लिया था, उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए थी. उनके खिलाफ एक्शन होना चाहिए. अगर यह गलत निर्णय नहीं लिया गया होता, तो आज मध्य प्रदेश में लोक परिवहन की दुरावस्था नहीं होती. जनता को दर्द और पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ती. नई सरकार को फिर से उसे प्रारंभ करने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ती.

    ब्यूरोक्रेट्स अफसर सियासी अस्त्र से ज्यादा भूमिका नहीं अदा करते. क्योंकि उनको अकाउंटेबिलिटी का डर नहीं है. इसलिए सियासी आदेशों को ऐसा शिरोधार्य  करते हैं, जैसे कि यही उनका सबसे बड़ा दायित्व है. सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर पर आज जो फैसला दिया है, वह डेमोक्रेटिक निर्वाचित सरकारों का दायित्व था. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जरूरत नहीं थी. यह तो प्राकृतिक न्याय का विषय है, कि किसी का भी घर बिना उचित कारण और बिना सुनवाई का मौका दिए नहीं तोड़ा जा सकता. 

    जब डेमोक्रेटिक सरकारें अपनी धमक और चमक के लिए, बिना नियम कानून की परवाह किए काम करने लगेंगी तो फिर कानून का राज समाप्त हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह भी बता रहा है, कि  हालत यहां तक पहुंच गए हैं, कि लोकतांत्रिक सरकारों की कार्यशैली में कानून का राज चलना मुश्किल हो गया है. 

    तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण और संतुष्टीकरण सरकारी एक्शन का पैमाना बन गया है. नियम कानून तो जैसे गौण हो गए हैं. एक्शन किसके खिलाफ़ होना है, उसका बहुमत जुटाने में कितना फायदा होगा, अगर यह सरकारी निर्णय का आधार होगा, तो फिर न्याय की कल्पना करना ही बेमानी होगा.

    जो निर्णय लेता है, जो एक्शन करता है, वही जवाबदार भी होता है. कोई अच्छा निर्णय अगर तारीफ़ दिलाता है तो खराब निर्णय के लिए दंड भी मिलना चाहिए. सरकारी प्रक्रिया तो ऐसी चल पड़ी है, कि विभागों में एसीएस, प्रमुख सचिव, कमिश्नर, डायरेक्टर सारे निर्णयों के लिए जिम्मेदार होते हैं, लेकिन गलतियों के लिए छोटे-छोटे कर्मचारियों और अधिकारियों को दंड देकर अकाउंटेबिलिटी को सरका दिया जाता है. 

    अगर अकाउंटेबिलिटी को सबसे पहले रखा जाएगा, तो कोई भी निर्णय लेने के पहले जिम्मेदार अफसर सौ बार सोचेंगे, कि अगर कोई गलती हो गई, तो दंड भी भुगतना पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट को ऐसे कामों में दखल देना पड़ रहा है, निर्णय देना पड़ रहा है, जो लोकतांत्रिक सरकारों का पहला दायित्व  होता है.

    प्रदूषण रोकने पर भी सुप्रीम कोर्ट को ही आगे आना पड़ रहा है. पराली जलाने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के हाथ में ही मशाल है. अब तो ऐसा लगने लगा है, कि लोकतांत्रिक सरकारें पांच साल केवल सियासत करते हैं. 

    जब भी कोई बुनियादी  मुद्दा निर्णय के लिए गवर्नेंस के सामने आता है, तब उसको इस ढंग से उलझा दिया जाता है, कि अंतत: सुप्रीम कोर्ट उस पर निर्णय करेगा.

    बिना अकाउंटेबिलिटी के शासन अनर्थशास्त्र ही साबित होता है. अधिकार का मतलब यह नहीं होता, कि मनमर्जी मिल गई है. खुदगर्जी और मनमर्जी लोकतांत्रिक सरकारों का सबसे बड़ा मर्ज हो गया है. काम और बातों में इतना अंतर होता है, कि पब्लिक कंफ्यूज हो जाती है. बुलडोजर न्याय पर रोक लगाने जैसा कोई फैसला भाषण के शासन पर भी आना चाहिए. 

    जैसे एक्शन के लिए रिस्पांसिबिलिटी है. वैसे बोलने की वैधानिक जिम्मेदारी है. सियासी बयानों से समाज में  विभाजन का कैंसर पड़ता जा रहा है. कोई भी अपने बयान की रिस्पांसिबिलिटी लेने को तैयार नहीं होता. केवल चुनाव तक उनसे लाभ लेना टारगेट है. इसके बाद क्या कहा गया उसको बोलने वाला ही भूल जाता है. लेकिन इससे समाज में जो नुकसान हो गया उसका भुगतान तो समाज को कभी ना कभी करना ही पड़ता है. 

    लोकतंत्र के नाम पर सरकारों के अनर्थशास्त्र को रोकना ही होगा. जितनी जल्दी इस पर विचार हो जाए उतना बेहतर है. जितनी देर होगी उतना ही नुकसान ज्यादा होगा. अकाउंटेबिलिटी के बिना ना कोई अधिकार हो सकता है, ना कोई सरकार हो सकती है और ना कोई विचार हो सकता है.