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और हमारा ये “प्लास्टिक मोह” 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 08 Dec

सार

ज्यादा चिंता की बात यह है कि त्यागे गए प्लास्टिक उत्पादों के संग्रह और सुरक्षित निपटारे के क्षेत्र में भी कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला है..!

janmat

विस्तार

पता नहीं क्यों भारत के नागरिक क़ानून बनाए जाने के बाद भी ये बात मानने को तैयार नहीं है कि  प्लास्टिक उनकी सेहत के लिए नुक़सानदेह है? तभी तो एक बार इस्तेमाल होने वाले (सिंगल यूज) प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लगाए जाने के तकरीबन 10 महीने बाद भी देश के अधिकांश हिस्सों में उसका इस्तेमाल आम है। हालांकि इनका थोक इस्तेमाल करने वाले कुछ कारोबारियों ने जैविक रूप से अपघटन योग्य विकल्प अपना लिए हैं, लेकिन अधिकांश अन्य उत्पादक, विक्रेता और उपभोक्ता अभी भी पहले की तरह बदस्तूर ऐसे प्लास्टिक का प्रयोग कर रहे हैं। ज्यादा चिंता की बात यह है कि त्यागे गए प्लास्टिक उत्पादों के संग्रह और सुरक्षित निपटारे के क्षेत्र में भी कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला है।

सार्वजनिक प्रदूषण की समस्या और बढ़ी है। सिंगल यूज प्लास्टिक न केवल सड़कों पर बिखरे रहते हैं बल्कि कचरा फेंकने की जगहों पर भी इन्हें बड़ी तादाद में देखा जा सकता है। इसके अलावा अब यह प्लास्टिक नदियों और समुद्र के रूप में हमारे जल स्रोतों में भी मिलने लगा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल ही में कहा है कि अभी भी अर्थव्यवस्था के निचले दायरे में निपटान योग्य प्ला-स्टिक की सामग्री, खासतौर पर पतले कैरी बैग का इस्तेमाल बदस्तूर जारी है।

एक राज्य केरल में 23 मार्च से 4 अप्रैल तक प्लास्टिकरोधी अभियान चलाया गया और इस दौरान 25 टन निषिद्ध प्लास्टिक जब्त किया गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। वहां 100 दिन के प्लास्टिक रोधी अभियान का समापन 22 अप्रैल को हुआ और इस अवधि में 14,000किलो निषिद्ध प्लास्टिक की सामग्री जब्त की गई।  नोट कीजिए,देश के सभी महानगरों में दिल्ली सबसे अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पादित करने वाला राज्य है।

प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या के मूल में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमों के कमजोर प्रवर्तन को जिम्मेदार माना जा सकता है। केंद्र सरकार ने ऐसे प्लास्टिक उत्पादों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया जो सीमित उपयोग के थे लेकिन जो बहुत अधिक कचरा करते थे। परंतु इसके प्रवर्तन का काम राज्यों और उनके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सौंपा गया था जिन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाने में ढिलाई बरती।पूरा दोष केंद्र सरकार पर भी नहीं डाला जा सकता है। उसने विभिन्न समूहों के दबाव को नकारते हुए प्रतिबंध लगाकर जहां उल्लेखनीय प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया, खासकर प्लास्टिक स्ट्रॉ के थोक उपभोक्ताओं की इस मांग को नामंजूर कर दिया जो कह रहे थे कि उन्हें उचित विकल्प अपनाने के लिए और अधिक समय दिया जाए, लेकिन वह बाद में जरूरी कदम उठाने में नाकाम रही।

केंद्र सरकार प्लास्टिक कचरा प्रबंधन का प्रभावी ढांचा तैयार करने की प्रक्रिया में राज्यों को साथ लेकर चलने में भी नाकाम रही है। हालांकि स्थानीय सरकार ने 2019 में ही प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के नियम बना दिए थे, लेकिन अभी इन्हें औपचारिक रूप से अधिसूचित किया जाना बाकी है। कई अन्य राज्यों में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के मानक केवल कागज पर हैं।यही वजह है कि अधिकांश निषिद्ध और जैविक रूप से अपघटित न होने वाला कचरा घरेलू कचरे में मिल जाता है और वर्षों तक वातावरण में बना रहता है। उसके जलने से जहरीला धुआं निकलता है। इसका बड़ा हिस्सा नदियों और समुद्र में मिल जाता है जो जलीय जैव विविधता को नुकसान पहुंचाता है।

प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने में नाकामी की एक अन्य प्रमुख वजह है, उनके सस्ते विकल्पों का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाना। इस दिशा में शोध करने में ज्यादा निवेश नहीं किया गया है। सरकार ने भी इस काम के लिए कोई वित्तीय या अन्य प्रोत्साहन नहीं मुहैया कराया।जरूरत इस बात की है कि इस समस्या को समग्रता में निपटाने के लिए बहुमुखी रणनीति अपनाई जाए। ऐसे में उत्पादन से लेकर ऐसे प्लास्टिक की बरामदगी, पुनर्चक्रण और निस्तारण तक को ध्यान में रखना होगा।