भारतीय संविधान ने चुनावी सभाओं में भाषा पर संयम की जिम्मेदारी चुनाव आयोग के जिम्मे डालरखी है।
इन दिनों देश में चुनावों के दौरान जिस तरह बोली-भाषा हिंसक होती जा रही है, उससे लगता है कि लोकतंत्र भी युद्ध में बदल रहा है। हर दल और उसके नेता भाषा का संयम खोते जा रहे हैं। सत्ता के शीर्ष से कहा गया कि विपक्षियों को मार्च में ठंड का एहसास होने लगेगा, तो जवाब मिला कि खेती-किसानी करने वाली जाति जब अपने पर आती है, तो ठंड में पसीने छूट जाते हैं। बिना मौसम गरमी या सर्दी का एहसास मनुष्य के अंदर छिपे भय, घृणा और क्रोध जैसी अनुभूतियोंसे सामना होता है। हर चुनाव में निरंतर बोल-वचन की हिंसा बढ़ती जा रही है। कुछ ही दिनों पहले दिल्ली की एक चुनावी रैली में मंच से एक समूह विशेष को गोली मारने का आह्वान किया गया था। आज नेताओं के पास न तो वैध तर्क हैं और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों में उसकी आस्था है।
चुनावी भाषा में बढ़ती हिंसा कहीं हमारे समाज में बढ़ रही हिंसा का सह –उत्पाद तो नहीं है?, एक गंभीर सवाल है | याद,कीजिए वह माहौल जिसमें देश को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का फैसला हुआ था , वह कतई अनुकूल नहीं था। लाखों मनुष्यों के खून और विस्थापन में लिथड़ी आजादी अंतत: शांतिपूर्ण लोकतंत्र में तब्दील होगी, यह फैसला ही किसी चमत्कार से कम नहीं था।५२ ,५७ और ६२ के आम चुनाव अपेक्षाकृत शांति के माहौल में हुए। उन दिनों के राजनेताओं के भाषणों मे हिंसा का कोई स्थान नहीं था । आज तो कल्पना करना भी मुश्किल लग रहा है। कोई भी नेता रहे हों,जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, राम मनोहर लोहिया या अटल बिहारी वाजपेयी उनके भाषण श्रोताओं की समझ, समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र को मांझते थे। कुछ धाराप्रवाह भाषण तो देश की धरोहर हैं। आज तो यह भी सुनकर विश्वास नहीं करेगा कभी लखनऊ में मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का भाषण विपक्षी नेता आचार्य नरेंद्र देव ने लिखा था।
चुनावी भाषणों की भाषा में आए बदलाव के कारण शायद भारतीय समाज की आंतरिक संरचना में खोजना होगा । समाज में व्याप्त अंतर्निहित असमानता को सिर झुकाकर स्वीकार करने वाला समाज वस्तुत:एक ऐसे तालाब की तरह था, जिसमें ऊपर तो एक स्थिर गंदले पानी की चादर दिखती थी, पर उसके नीचे मचल पड़ने को बेकरार झंझावात छिपा बैठा था। जैसे ही इस समाज में यथास्थिति को चुनौतियां मिलनी शुरू हुईं, इस स्थिर पानी में लहरें उठने लगीं। यदि लोकतंत्र की जड़ें गहरी और मजबूत होतीं, तो संभवत: बदलाव का विमर्श ज्यादा सद्भावपूर्ण माहौल में होता। लोकतंत्र के अभाव के चलते इस समाज का हर कदम हिंसा की अंधी गुफा से होकर गुजरता है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंसा की यही उपस्थिति चुनावी भाषा में दिखने लगती है।
भारतीय संविधान ने चुनावी सभाओं में भाषा पर संयम की जिम्मेदारी चुनाव आयोग के जिम्मे डालरखी है। दुर्भाग्य से, कुछ चुनाव आयुक्त इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। खासतौर से सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर नियंत्रण रखने में वे अक्सर असफल ही साबित हुए हैं। कुछ मामलों में दोषी अल्पावधि के लिए चुनाव प्रक्रिया से दूर किए गए, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ कि दूसरों के लिए सबक बन सके। जब तक हिंसक भाषा के लिए वक्ता और उसके दल को चुनावों से दूर नहीं किया जाएगा, वे अपने ऊपर खुद रोक नहीं लगाएंगे।
स्वस्थ लोकतंत्र में ज्यादा अच्छा तो यही है कि उसके भागीदार स्वयं पर खुद ही नियंत्रण करें, पर इस आत्म-नियंत्रण के लिए एक लंबी परंपरा की जरूरत होगी। दुर्भाग्य से अभी तक भारतीय समाज अभी तक इसके लिए तैयार नहीं हुआ है। भाषा में संयम के लिए पश्चिम को भी बड़ा समय लगा है। सब मिलकर कुछ विचार करें, तो रास्ता निकल सकता है | वरन बोल वचन की इस आंधी का अंत देश की बर्बादी है |