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ईडीए का तोड़, पीडीए का जोड़

सार

देश में मानसून की बाढ़ और भ्रष्टाचार की जांच एजेंसी के छापों की बाढ़ पर एक्शन के रिएक्शन की खबरों की भरमार है. यमुना में आई बाढ़ से दिल्ली बचने के लिए छटपटा रही है तो विपक्षी राजनीतिक दल इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट एक्शन (ईडीए) की बाढ़ से बचने के लिए छटपटाते दिखाई पड़ रहे हैं. पटना के बाद बेंगलुरु में मोदी विरोधी विपक्षी दलों के गठबंधन की कोशिश ईडीए के तोड़ के रूप में पीडीए का जोड़ कही जा सकती है..!

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विस्तार

विपक्षी एकता की आस भी कांग्रेस है और फांस भी कांग्रेस है. UPA के बजाय अब नए संभावित नाम पीडीए (पेट्रियोटिक डेमोक्रेटिक एलाइंस) की बैठक 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में हो रही है. नीतीश कुमार के विपक्षी एकता के प्रयासों की मशाल अब कांग्रेस ने संभाली है. सोनिया गांधी का विपक्षी दलों की बैठक में पहुंचना ऐसे संकेत कर रहा है कि विपक्षी दलों में राहुल गांधी की स्वीकार्यता पर सवाल उठ रहे हैं.

एक तरफ बंगलुरु में बैठक हो रही है, दूसरी तरफ तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री और उनके सांसद पुत्र के यहां ईडी के छापे चल रहे हैं. विपक्षी गठबंधन में जो नेता शामिल हो रहे हैं उनमें अधिकांश ईडी की जांच में फंसे हुए हैं. बीजेपी की ओर से यही कहा जा रहा है कि विपक्षी दलों का गठबंधन भ्रष्टाचार की जांच से बचने का उपक्रम है. प्रधानमंत्री मोदी ने भी पटना की बैठक के बाद बिना नाम लिए प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि परिवारवादी पार्टियाँ भ्रष्टाचार की गारंटी हैं तो मोदी भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही की गारंटी है.

इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट की जांच के मामले में राजनीतिक नेताओं से जुड़े ठिकानों से नगद राशि की जब्ती अपने आप में भ्रष्टाचार का सबूत है. राजनीतिक दल एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं. कर्नाटक में कांग्रेस ने बीजेपी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाया था. अब वहां कांग्रेस की सरकार है और उस सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों को प्रमाणित करने की नैतिकता निभाने की जरूरत है. अगर ईडी का दुरुपयोग भ्रष्टाचार की जांच के लिए किया जा रहा है तो कर्नाटक सरकार की भी जांच एजेंसियां हैं. उन्हें बीजेपी की सरकार के समय के भ्रष्टाचार के सभी मामलों को तथ्यों के साथ उजागर करने और आरोपियों को दंडित करने में बिल्कुल भी देर नहीं करना चाहिए.

गठबंधन की राजनीति करप्शन की गवर्नमेंट देती रही है. 10 साल तक यूपीए गठबंधन की सरकार चली. इस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाकर ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने जनादेश हासिल करने में सफलता पाई थी. इसके पहले भी जब गठबंधन की सरकार देश में रही है तब करप्शन के हालात चिंताजनक ढंग से सामने आए हैं. 

कांग्रेस के बिना विपक्षी गठबंधन नहीं हो सकता है. कांग्रेस पर ही विपक्षी गठबंधन का दारोमदार है. कांग्रेस कभी इस देश पर एकछत्र राज करने वाली पार्टी रही है. धीरे-धीरे पार्टी का वजूद घटता गया. कांग्रेस को हराने के लिए भारत में गठबंधन की राजनीति शुरू हुई थी. आज वही कांग्रेस गठबंधन की राजनीति के सहारे बीजेपी को हराने का सपना पाल रही है. गठबंधन का कागजी खाका बन गया है लेकिन यह जमीन पर कैसे उतरेगा, यह अभी तक स्पष्टता के साथ दिखाई नहीं पड़ रहा है.

कांग्रेस अकेली पार्टी है जो पूरे देश में काम करती है. क्षेत्रीय दलों की राजनीति कांग्रेस की विफलता पर खड़ी हुई है. क्षेत्रीय दल अपनी सफलता के आधार को कांग्रेस को अपने राज्यों में स्पेस देकर क्यों कमजोर करना चाहेंगे? जिन क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस का गठबंधन पहले से है, वहां तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन जो दल विपक्षी गठबंधन में शामिल हो रहे हैं और उनके राज्यों में कांग्रेस का कोई जनाधार नहीं है वहां क्षेत्रीय दल कांग्रेस को शायद ही खड़ा होने देंगे.चाहे बंगाल में ममता बनर्जी हों, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी हो या यूपी में समाजवादी पार्टी हो, कांग्रेस अगर इन राज्यों की लोकसभा की सीटें क्षेत्रीय दलों को छोड़ने के लिए तैयार होगी तभी समझौते का कोई आधार बन पाएगा. गठबंधन के प्रति कांग्रेस की ऐतिहासिक विश्वसनीयता भी संदेहास्पद है.

विपक्षी गठबंधन के पास कोई वैचारिक मुद्दा भी दिखाई नहीं पड़ता है. मोदी विरोध ही गठबंधन का एकमात्र मुद्दा है. महंगाई, बेरोजगारी के मुद्दे पर तो कांग्रेस को तथ्य और आंकड़ों के साथ अपनी सरकार और वर्तमान सरकार की स्थिति पर जवाब देना पड़ेगा. विपक्षी गठबंधन में शामिल हो रहे दलों के बीच वैचारिक आधार की एकजुटता तो हो ही नहीं सकती है. एकजुटता का आधार परिवारवाद की राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोपों पर जांच एजेंसी के प्रहार से सुरक्षा ही दिखाई पड़ रहा है. विपक्षी गठबंधन के सामने नेता और चेहरे का भी संकट है. इंदिरा गांधी के विरुद्ध जब विपक्षी गठबंधन हुआ था तब भी उनके करिश्माई व्यक्तित्व ने गठबंधन के मंसूबों को नाकाम कर दिया था. 

राजनीति और चुनाव अंकगणित नहीं है. हर चुनाव अलग परिस्थितियों में होते हैं. एनडीए को 2019 और 2014 के लोकसभा चुनाव में मिले मत प्रतिशत और विपक्षियों को मिले मत प्रतिशत के जोड़ को देखकर लोकसभा क्षेत्र में विपक्ष द्वारा एक प्रत्याशी देने की रणनीति इंदिरा गांधी के जमाने में फेल हो चुकी है. पिछले चुनाव में भी बीजेपी के मुकाबले कई राज्यों में यह रणनीति असफल हुई है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में एसपी-बीएसपी आरएलडी और कर्नाटक में कांग्रेसी-जेडीएस का विपक्षी गठबंधन अधिक ताकतवार दिखाई दे रहा था लेकिन बीजेपी ने यूपी में 62 और कर्नाटक में 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी.  इसके विपरीत बीजेपी को तेलंगाना, उड़ीसा, बंगाल और पंजाब में त्रिकोणीय मुकाबले में अधिक संघर्ष करना पड़ा था.

जिन राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है वहां पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात में बीजेपी लोकसभा चुनाव में हमेशा बेहतर प्रदर्शन करती रही है. 2019 के चुनाव में 224 लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने 50% से अधिक मत प्राप्त करने में सफलता हासिल की थी। इनमें अधिकाँश सीटें उत्तर भारत के राज्यों की हैं जहाँ भाजपा का सीधा मुकाबला  कांग्रेस से ही था. यहां मतदाता लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस को स्वीकार करने को अब भी तैयार दिखाई नहीं पड़ता.

विपक्षी गठबंधन की राजनीति खड़ी होने के पीछे मोदी का विरोध सबसे बड़ा मुद्दा दिखाई पड़ता है. जब तक कि सिद्धांतों, विचारधारा, राष्ट्रीयता और जनहित का कोई नेरिटिव खड़ा करने में गठबंधन सफल नहीं होगा तब तक मोदी का मुकाबला संभव नहीं लगता. कई बार तो भारतीय जीवन शैली में किसी व्यक्ति का विरोध उस व्यक्ति की बड़ी ताकत बन जाती है. 

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपनी विचारधारा को अमलीजामा पहनाने का जोखिम भी उठाया है. धारा 370 कश्मीर से हटाई जा चुकी है. राम मंदिर आगामी लोकसभा चुनाव के पहले जनदर्शन के लिए उपलब्ध हो जाएगा. समान नागरिक संहिता का विधान भी लोकसभा चुनाव के पहले आकार ले सकता है. एक तरफ हिंदुत्व की विचारधारा और सिद्धांतों की प्रतिबद्धता तो दूसरी तरफ किसी को हराने की एकजुटता के बीच चुनाव परिणामों के बारे में अंदाजा लगाना राजनीतिक पंडितों के लिए मुश्किल नहीं है.

कांग्रेस गठबंधन से खड़ी नहीं हो सकती. कांग्रेस को पहले अपने अंदर के बंधन को मजबूत करना पड़ेगा. जो बंधन ढीले हो गए हैं उन्हें कसना होगा. यह कसावट जुबानी नहीं बल्कि विचारधारा और कर्म से दिखानी होगी. जिन राज्यों में कांग्रेस को मौका मिला है वहाँ परफोर्मेंस से भ्रष्टाचार मुक्त शासन की विश्वसनीय शैली प्रदर्शित करनी होगी. चुनाव में भ्रष्टाचार के लिए गालियाँ और सरकार में गीत का राग अब देश में नहीं चलने वाला. गठबंधन का इतिहास तो यही बताता है कि यह टूटने के लिए ही बनते हैं. अगर खुद के पांव में बल नहीं होगा तो किसी का हाथ पकड़कर चलने की लालसा कैसे पूरी हो सकेगी?