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असली अखाड़ा बना छिंदवाड़ा

सार

लोकसभा के फर्स्ट फेस के चुनाव में ही चुनावी बुखार चरम पर पहुंच चुका है. मध्य प्रदेश में छह लोकसभा सीटों जबलपुर, मंडला, सीधीं, शहडोल, बालाघाट और छिंदवाड़ा में पहले चरण में 19 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे. लोकसभा की 29 सीटों में से 28 सीटों पर बीजेपी को कोई खास चिंता नहीं है. सबसे कड़ी लड़ाई का अखाड़ा छिंदवाड़ा सीट बनी हुई है..!!

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विस्तार

    बीजेपी ने जहां यह सीट जीतने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया है, वहीं कमलनाथ भी अपने राजनीतिक अस्तित्व की आखिरी लड़ाई जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. बीजेपी में राज्य नेतृत्व के साथ ही केंद्रीय नेताओं ने छिंदवाड़ा जीतने के लिए पूरा जोर लगा दिया है. 

    राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह छिंदवाड़ा में प्रचार और रोड शो कर चुके हैं. अमित शाह छिंदवाड़ा में रोड शो करने पहुंचे, तो यह माना जा सकता है, कि बीजेपी इस सीट पर जीत के करीब है. कई बार ज्यादा जोर लगाने से भी राजनीति में उलटफेर हो जाता है.

    अभी जो ओपिनियन पोल सामने आ रहे हैं, उसमें तो ऐसा ही माना जा रहा है, कि मध्य प्रदेश में चुनाव परिणाम 2019 जैसे ही रहेंगे. छिंदवाड़ा सीट कांग्रेस के खाते में जा सकती है और बाकी 28 सीटें बीजेपी जीतने में सफल होगी. छिंदवाड़ा में कांग्रेस के भीतर बड़े स्तर पर बगावत के बाद भी कमलनाथ अगर यह चुनाव जीतते हैं, तो निश्चित रूप से यह क्रेडिट कमलनाथ के खाते में ही जाएगा.

    यह जीत कांग्रेस की नहीं मानी जाएगी बल्कि कमलनाथ परिवार की मानी जाएगी. वैसे भी कांग्रेस का कोई बड़ा राष्ट्रीय नेता प्रचार के लिए छिंदवाड़ा नहीं पहुंच रहा है. यह सीट कमलनाथ का गढ़ मानी जाती है. नकुलनाथ के कारण कमलनाथ को छिंदवाड़ा में संकट का सामना करना पड़ रहा है. 

    कमलनाथ के सबसे निकटतम सहयोगी दीपक सक्सेना पार्टी छोड़ने के बाद नकुलनाथ पर ही निशाना साधते हैं. अमरवाड़ा के विधायक कमलेश शाह जब बीजेपी में शामिल होते हैं, तब उनका इशारा भी नकुलनाथ के व्यवहार को लेकर होता है. 
कांग्रेस में जिस स्तर की बगावत 24 के चुनाव में छिंदवाड़ा में देखने को मिली है वैसा पहले कभी नहीं हुआ. छिंदवाड़ा की लड़ाई अश्लील वीडियो के आरोपों और पुलिस केस तक पहुंच गई है. 

    राजनीतिक हल्कों में तो अब ऐसा माना जा रहा है, कि छिंदवाड़ा सीट पर बीजेपी के अति जोर के कारण कमलनाथ को सहानुभूति मिलती दिखाई पड़ रही है. उम्र के इस पड़ाव पर कमलनाथ परिवार अपनी राजनीतिक विरासत बचाने की आखिरी कोशि, कर रहे है. उनके नजदीकी लोग जिस तरह से उनका साथ छोड़ रहे हैं, उससे आम लोगों में उल्टी प्रतिक्रिया हो रही है.

    पिछले लोकसभा चुनाव में नकुलनाथ केवल 37000 मतों से जीते थे. जीत का अंतर बहुत कम था. मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ जब 2019 में छिंदवाड़ा विधानसभा से उपचुनाव लड़े थे, तब केवल 34000 मतों के अंतर ये यह चुनाव जीत सके थे. छिंदवाड़ा सीट दीपक सक्सेना ने भी विधायकी छोड़ कर रिक्त की थी. 

    कमलनाथ के सामने बीजेपी की ओर से विवेक साहू ही प्रत्याशी थे. मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ की जीत में मतों का अंतर भी बहुत आकर्षक तो नहीं कहा जा सकता है. इन नतीजों से यह संकेत तो मिल रहे हैं, कि छिंदवाड़ा में कमलनाथ का गढ़ कमजोर हो रहा है. 

    मुख्यमंत्री कमलनाथ के 18 महीने का कार्यकाल भी छिंदवाड़ा में उन्हें राजनीतिक नुकसान पहुंचाता प्रतीत हो रहा है. कमलनाथ सरकार का परफॉर्मेंस जहां जन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था. वही छिंदवाड़ा के लोगों के लिए भी उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप साबित नहीं हुआ था. 

    कमलनाथ और उनके परिवार के आस-पास नेताओं और प्रोफेशनल्स की गिरोह बंदी के कारण छिंदवाड़ा के लोगों से उनकी दूरियां बढ़ती गई थी, जो अब बगावत के रूप में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं. 

    छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र नकुलनाथ जीतें या हारें कमलनाथ और उनके परिवार का राजनीतिक भविष्य अब अंतिम पायदान पर ही दिखाई पड़ रहा है. कांग्रेस में कमलनाथ का एक्स्पोज़र हो चुका है. राहुल गांधी और कांग्रेस लीडरशिप के साथ उनके रिलेशन बहुत मधुर नहीं बताए जा रहे हैं. 

    मध्य प्रदेश में कांग्रेस लीडरशिप कमलनाथ से दूर युवा नेताओं के हाथ में चली गई है. जब छिंदवाड़ा में हीं कमलनाथ के सहयोगी उनका साथ छोड़ रहे हैं, तो फिर राज्य के दूसरे हिस्सों में उनके समर्थकों की मजबूती का अंदाजा लगाया जा सकता है.

    बीजेपी अगर छिंदवाड़ा लोकसभा सीट जीतने में सफल हो जाती है, तो इसका क्रेडिट मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के खाते में जाएगा. बीजेपी मध्य प्रदेश में पिछले 20 सालों से कमलनाथ सरकार के कार्यकाल को छोड़कर सत्ता में है.  लेकिन इस दौरान लोकसभा की छिंदवाड़ा सीट कांग्रेस के कब्जे में ही रही है. 

    इस बार बीजेपी ने मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है. चुनावी तैयारी और छिंदवाड़ा पर पार्टी का फोकस इस लक्ष्य को साधते हुए दिखाई पड़ रहा है. ऐसा लग रहा है कि कमलनाथ का कांग्रेस ने साथ छोड़ दिया है. कमलनाथ निजी हैसियत से छिंदवाड़ा में अपना गढ़ बचाने में जुटे हुए हैं.

    मध्य प्रदेश की कांग्रेस में काफी लंबे समय से कमलनाथ का दबदबा कायम रहा है. यह पहला अवसर है जब कांग्रेस में कमलनाथ की जगह नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. लेकिन उन्हें घोषणा के बाद ही जानकारी मिल पाई. इससे पहले कभी ऐसा नहीं होता था कि कांग्रेस में कोई बड़ा फेरबदल हो और कमलनाथ से विचार विमर्श ना किया जाए.

    ऐसे हालात में कांग्रेस की राज्य की नई लीडरशिप भी राजनीतिक रूप से भले ही छिंदवाड़ा जीतने का दावा करती हो लेकिन अंदरखाने उसकी भी मंशा यही होगी, कि यह सीट चली जाए, तो कम से कम कमलनाथ की राज्य की राजनीति में दखलंदाजी तो समाप्त हो जाएगी.

    कमलनाथ पहले भी एक बार यह सीट हार चुके हैं. बीजेपी के दिग्गज नेता सुंदरलाल पटवा नेउन्हें चुनाव हराया था. हमेशा से माना जाता रहा है, कि कमलनाथ कॉर्पोरेट मानसिकता और समन्वयवादी राजनीति के पोषक रहे हैं. उन्हें दल की लाभ हानि से ज्यादा अपने लाभ हानि का गणित प्रभावित करता है. उनका राजनीतिक तरीका विरोधियों को भी अपने साथ मिला लेने का रहा है. 

   राज्य की राजनीति में कमलनाथ और भाजपा नेताओं के संपर्क हमेशा सौहार्द्रपूर्ण ही रहे हैं. पहली बार बीजेपी कमलनाथ को इतनी खुली चुनौती दे रही है. लोकसभा चुनाव के पहले कमलनाथ और नकुलनाथ के बीजेपी में शामिल होने की  चर्चाएं और अफवाहें कई दिनों तक चलती रहीं. 

  राजनीतिक अफवाहें अभी भी ऐसे ही चल रही हैं, कि कमलनाथ योजनाबद्ध ढंग से छिंदवाड़ा सीट हार सकते हैं. पारिवारिक विरासत और बिजनेस बचाने के लिए नकुलनाथ को बीजेपी में शामिल करा सकते हैं. चर्चा तो यहां तक है कि कमलनाथ के निकटतम सहयोगी जो बीजेपी में शामिल हो रहे हैं, उसके पीछे भी कमलनाथ की सहमति मानी जा रही है. 

    पूर्व तैयारी के रूप में वह नेता पहले से बीजेपी में पहुंच गए हैं. आखिरी रणनीति लोकसभा चुनाव के बाद उभर कर आ सकती है. हर सफलता नीचे आती है. हिमालय पर चढ़ने वाला व्यक्ति हिमालय पर बैठा नहीं रह सकता. उसे भी नीचे उतरना पड़ता है. ऐसी ही स्थिति राजनीति में भी होती है.

     कमलनाथ कभी मध्य प्रदेश की राजनीति के सिरमौर हुआ करते थे. आज उन्हें छिंदवाड़ा बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. छिंदवाड़ा सीट का चुनाव परिणाम चाहे कमल के पक्ष में हो या कमलनाथ के पक्ष में हो. लेकिन कमलनाथ के राजनीतिक हालात अच्छे भविष्य का संकेत नहीं कर रहे हैं. सब कुछ हासिल करने के बाद जीवन में सुख और शांति के साथ मोह-माया से दूर सन्यासी भाव में जीवन गुजरना ही नियति होती है.